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ANALOGY OF RELIGION
TO THE

Constitution and Course of Nature
TO WHICH ARE ADDED
TWO BRIEF DISSERTATIONS:
I. ON PERSONAL IDENTITY. —II. ON THE NATURE OF VIRTUE.


BY
JOSEPH BUTLER, D.C.L.


मिल्लत-ए-तश्बीही

हिस्सा अव़्वल व दोम

या’नी मसीही मज़्हब और मख़्लूक़ात के तरीक़ों की मुशाबहत

जिसको

बिशप जोज़फ़ बटलर साहब एल॰ एल॰ डी॰ ने अंग्रेज़ी में तस्नीफ़ किया

और पादरी हैनरी मन्सील साहब ने बअ’आनत

मुंशी जान राजस बिल-इख्तिसार तर्जुमा किया

लखनऊ

अमरीकन मिशन प्रैस में पादरी करियों साहब के एहतिमाम से छपा

1874 ई॰


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JOSEPH BUTLER, D.C.L.

Bishop of Durham

18 May 1692 – 16 June 1752



दीबाचा

          बिशप बटलर साहब मुल्क इंगलैंड में (1692 ई॰) में पैदा हुए और साठ (60) बरस की उम्र में वफ़ात पाई। उन्हों ने अपनी सन (उम्र) की चवालिसवें (44) साल में इस किताब को जिसका तर्जुमा मुबय्यन (बयान किए हुए) सफ़्हों में मुन्दरिजा है तस्नीफ़ (किताब लिखना) किया था।

          उस ज़माने में अक्सर आलिम व फ़ाज़िल लोग कलाम रब्बानी से इन्कार करते और कहते थे कि ख़ुदा जो अपने कामों या’नी मख़्लूक़ात के तरीक़ों से जब हमको मा’लूम होता है वो उस से जिसका ज़िक्र बाइबल में है बिल्कुल बर-ख़िलाफ़ है। चुनान्चे वो कहते थे कि ख़ुदा अपने कामों से करीम व ररीम मा’लूम होता है लेकिन बाइबल में मर्क़ूम है कि वो सज़ा देने वाला भी है। पस इस सबब से उन्हों ने बाइबल की तक़्ज़ीब (झुटलाना, झूट बोलने का इल्ज़ाम लगाने) में कोशिश की लेकिन बिशप बटलर साहब ने बख़ूबी साबित व मुबरहन (दलील से साबित किया हुआ) किया कि वो ख़ुदा जिसका ज़िक्र बाइबल में मर्क़ूम है सो वही है जो कि ख़ल्क़त के तरीक़ों पर ग़ौर करने से मा’लूम होता है, क्योंकि उस की हुकूमत व इन्तिज़ाम उस के काम व कलाम दोनों में यकसाँ हैं जैसा कि साहब मौसूफ़ (जिसकी ता’रीफ़ की जाये) की किताब के नाम से साबित है कि मज़्हब ईस्वी और मख़्लूक़ात के तरीक़ों में मुशाबहत है। बज़रीया तस्नीफ़ मज़्कूर बाला सब मुन्कर लाजवाब हो गए थे। लिहाज़ा वो किताब हरेक अंग्रेज़ी थ्योलोजीकल स्कूल या’नी ता’लीम इल्म इलाही के मदरसों में उस वक़्त से अब तक पढ़ाई जाती है।

          मुतर्जिम के ख़याल में गुज़रा कि अब हिन्दुस्तानी लोगों के लिए ऐसी किताब बहुत मुफ़ीद होगी लेकिन जैसी कि किताब मज़्कूर ज़बान अंग्रेज़ी में बेनज़ीर (जिसकी कोई मिस्ल ना हो) है वैसे ही उस के मुहावरात ऐसे मुश्किल हैं कि बे-ऐनिही तर्जुमा लफ़्ज़ी करना अम्र मुहाल (मुश्किल काम) है। लिहाज़ा मुतर्जिम ने बहुत इख़्तसार (मुख़्तसर तौर पर) उस का मतलब हिन्दुस्तानी ज़बान में अपने ज़हन की रसाई के मुताबिक़ लिखा है और उम्मीद क़वी है कि ख़ुदा की मदद और बरकत से ये काम बेफ़ाइदा ना होगा।



मिल्लत-ए-तश्बीही

हिस्सा अव़्वल

ख़लक़ी मज़्हब का बयान

पहला बाब

आइन्दा की ज़िंदगी के बयान में

          बा’ज़ आदमी इस बात के शाकी (शिकायत करने वाले) हैं कि आया हस्ती इन्सान ज़माना-ए-हाल व इस्तकबाल में और नीज़ किसी दो लम्हे में यकसाँ रहती है या नहीं चुनान्चे बटलर साहब ने इस बात का बयान अपनी किताब के ततमे (किताब का वो ज़ाइद हिस्सा जो अख़ीर में लगा देते हैं) में किया है। लेकिन उस का तर्जुमा अब तक नहीं हुआ। पस हम उन शुक़ूक़ के रफ़ा और रद्द करने से दस्त-बरदार हो कर ख़लक़ी मुवाफ़िक़त दर्याफ़्त करेंगे ताकि हम उन तब्दीलात को जिनमें हम मुबद्दल (तब्दील शूदा) होते रहते और आइन्दा बिला-नुक़्सान उन्हें बर्दाश्त करेंगे मा’लूम करें कि आया बाद अज़ मर्ग (मूत के बाद) हमारा यकसाँ रहना मुम्किन है नहीं।

          अब इन्सान के इस दुनिया में तुफुलिय्यत (बचपन) की ना-कामिल हालत में पैदा होने और फिर उस से गुज़र कर ब आलम जवानी पहुंचने से हम अपनी ख़ासियत में ये कुल्लिया क़ायदा और क़ानून दर्याफ़्त और मा’लूम करते हैं कि हर एक मुतनफ़्फ़िस और कुल अश्ख़ास हालत ज़िंदगी और क़ुव्वते इदराक (सोचने समझने की क़ुव्वत) के सब दर्जों में गुज़र सकते हैं, या’नी हर एक आदमी के काम करने और ख़ुशी पाने और मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) होने की लियाक़तें उस की मुतफ़र्रिक़ सैर की सर-गुज़िश्तों में तफ़ावुत (फ़र्क़) रखती हैं और नीज़ दीगर हैवानात की खासियतों में भी यही क़ायदा जारी है कि उन के हालात और लियाक़तें बनिस्बत उन की पैदाइश के वक़्त के अय्याम कामिलियत में बहुत मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) होते हैं। मसलन चंद क़िस्म के कीड़े मकोड़ों से मक्खियां और तितरी बन जाती हैं और तब उन की ताक़त रफ़्तार बहुत बढ़ जाती है और परिंद अपने घर या’नी अंडों के छिलकों को तोड़ कर एक नए आलम या’नी इस ख़ल्क़त में नमूद करते हैं और यहां उन के हालात मुतग़य्यर (बदलने वाले) हो जाते हैं और वह नए तौर के काम करने लगते हैं पस वो भी इस मज़्कूर बाला क़ायदे में मुश्तर्क (बराबर) हैं। चुनान्चे ब-ईं सूरत हर क़िस्म के जुम्ला जानदारों की तग़य्युरी ज़हूर में आती है। फिर ग़ौर करना चाहिए कि हमारी उन हालतों में कि जब रहम में हो कर बहालत शीर ख़ारी (दूध पीते बच्चे) पैदा हुए थे और अब कि बलूगिय्यत (जवानी) को पहुंचे हमारे ख़यालात की वुस’अत के मुवाफ़िक़ किसी क़द्र फ़र्क़ है। नज़र बरां इस क़ायदा कुल्लिया से साफ़ ज़ाहिर व बाहर है कि बाद मौत के भी हम इसी हाल मौजूदा में क़ाएम रहेंगे।

          हम जानते हैं कि हम में काम करने की ताक़त और ख़ुश होने और रंज सहने की लियाक़तें हमसे जुदा ना होंगी तो ग़ालिब है कि पस अज़ मर्ग (मरने के बाद) भी यही ताक़त और लियाक़तें हम में क़ाएम और बरक़रार रहें पस गुमान ग़ालिब हमारी एक दलील है और बशर्त ये कि इल्हाम की कोई बात इस के बर-ख़िलाफ़ ना हो तो हम इस ता’लीम पर एतिक़ाद व एतमाद रख सकते हैं कि आइंदा को भी ज़िंदगी होगी और यक़ीन है कि ये तमाम होशो-हवास जैसे कि अब हैं वैसे ही आइंदा को भी क़ाएम और मौजूद रहेंगे और अगर हम किसी दलील से ये साबित ना कर सकें कि इन लियाक़तों और कुव्वतों में तग़य्युरी (बदलाव) फिर होगी तो मुशाबहत की रू से गुमान ग़ालिब भी हमारी एक दलील जो मुदावमत (हमेश्गी, क़ियाम सबात, दवाम) के लफ़्ज़ से बयान होती है और इसी की रू से साबित होता है कि इस दुनिया के तरीक़े आख़िर तक वैसे ही रहेंगे जैसे कि और तवारीख़ों में इब्तिदा से मुतवातिर हैं और सिर्फ इसी दलील से हम ये ख़याल भी कर सकते हैं कि सिवाए ग़ैर मख़्लूक़ ख़ुदा के कोई शय जो अब मौजूद है ज़माना आइंदा तक मौजूद ना रहेगी। पस अगर इन्सान को ये यक़ीन-ए-वासिक़ है कि आदमी की ताक़त और लियाक़त मौत से हलाक नहीं होतीं तो वो हरगिज़ गुमान ना करें कि कोई और चीज़ जो मौत से इलाक़ा नहीं रखती उन की कुव्वतों और लियाक़त को मौत के वक़्त नेस्त कर सकेगी। इसलिए अग़्लब (मुम्किन) है कि हमारी ज़िंदा ताक़त और लियाक़त जो अब मौजूद हैं बसूरत असली क़ाएम रहेंगी।

          हासिल कलाम इस का ये है कि अगर हम यक़ीन करते हैं कि मौत हमारी इन कुव्वतों को नेस्त व नाबूद ना करेगी तो ज़रूर वो बाद मौत के भी ज़िंदा रहेंगी और अगर इक़रार किया जाये कि आइन्दा की ज़िंदगी ग़ैर मुम्किन है और दलील से पेश्तर ये ख़याल में आए कि हमारे हवास-ए-ख़मसा (पाँच हवास देखने, सुनने, सूँघने, छकने और छूने की पाँच क़ुव्वतें) मौत के बड़े सदमे से नेस्त हो जाएंगे तो ऐसे ख़याल की कोई दलील माक़ूल नहीं है और अगर समझी जाये तो चाहिए कि वो दलील मौत की ख़ासियत या ख़ल्क़त के तरीक़ की मुशाबहत से निकले लेकिन ज़ाहिर है कि हम मौत की ख़ासियत को देख कर किसी तरह साबित नहीं कर सकते तो वो हमारी रूह को बर्बाद कर देगी क्योंकि हम नहीं जानते कि मौत क्या शय है अलबत्ता हम उस की चंद तासीरात देखते हैं या’नी उस के बा’इस गोश्त व चमड़ा और हड्डियां गल कर तब्दील हो जाती हैं लेकिन ये ग़ैर-मुम्किन है कि उस के सबब कोई क़ुव्वत या लियाक़त नेस्त हो जाए और अलावा अज़ीं हम ये भी नहीं जानते कि हमारी लियाक़तों की हरकतें किस चीज़ पर मौक़ूफ़ हैं क्योंकि बख़ूबी अयाँ और साबित है कि नींद में और ख़सूस (ख़ास काम) ख्व़ाब की हालत में हमारी ताक़तें और लियाक़तें मौजूद और क़ाएम रहती हैं गो कि उस वक़्त वो काम में नहीं आतीं और उन में हरकत करने की ताक़त नहीं होती। ख़ुलासा कलाम हमको नहीं मा’लूम कि हमारी ताक़तों और लियाक़तों की हस्ती किस चीज़ पर मौक़ूफ़ है इसलिए हम ना ख़याल कर सकते ना कह सकते हैं कि मौत उन को नेस्त कर देगी क्योंकि उन की हस्ती किसी ऐसी शय पर मुन्हसिर है जो मौत से किसी तरह नहीं बदल सकती पस हम जानते हैं कि हमारी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला (सोचने की क़ुव्वत) ऐसी तेज़ है कि हम बग़ैर दलील बहुत सी बातों का ख़याल करते हैं और अब हम उन कयासों (गुमान) पर जो दिल में आते हैं चंद लहज़ा बग़ौर सोच करेंगे कि उन में क्या शय है। पहले अगर हम कहें कि मौत से ज़िंदा क़ुव्वतें नेस्त हो जाती हैं तो हमें साबित करना चाहिए कि वो क़ुव्वतें शामिल कर मुनक़सिम होती हैं।

          बिना अलिया (इस वजह से, इसलिए) ख़ुद आगाही एक वाहिद ताक़त है और अयाँ है कि जिसमें वो क़ियाम रखती है वो भी वाहिद है ख़याल करो कि अगर किसी ज़र्र की एसी हरकत हो कि वो तक़्सीम ना हो सके तो इस के तक़्सीम करने का ख़याल भी बेवक़ूफ़ी है। क्योंकि हम नहीं कह सकते कि उस हरकत का एक हिस्सा हो और दूसरा ना हो पस वो ज़र्रा जिसमें वो हरकत रहती है वाहिद है। इस से साबित हुआ कि हमारे वजूद होने की आगाही वाहिद और बे-तक़्सीम ताक़त है लिहाज़ा ज़ाहिर होता है कि जिसमें ये आगाही क़ियाम रखती या’नी हमारी वाक़िफ़ कारी की हस्ती ला-तक़्सीम है। तो इस बयान से जिसका ऊपर ज़िक्र हुआ साफ़ व वाज़ेह ये नतीजा हासिल होता है कि वो ज़िंदा ताक़त या हस्ती जो एक आदमी आप में बयान करता है और नीज़ हमारा बदन जिसमें हम रहते हैं बाहम पैवस्ता और वाहिद हो कर मुजस्सम नहीं और जिस्म के अलावा हमारा कोई हिस्सा नहीं है क्योंकि हम और बदन में मोअस्सर भी हो सकते और उन से भी असर पा सकते हैं और जिस तरह हम अपने क़ालिब में रहते हैं उसी तरह उन से बाहर भी रह सकते हैं और हम और तरह के अज्साम में भी जिनकी ज़ात आ’ला हो इसी तरह जी सकते हैं जिस तरह अपने इन अज्साम (जिस्म) में जीते हैं और हमारे कई एक अबदान (बदन की जमा, बहुत से जिस्म) के नेस्त होने से भी हमारी हस्ती नाबूद नहीं होती जैसे कि और तरह के जिस्म जिनमें हम तासीर पाते हैं बरवक़्त नेस्त होने के हमारी ताक़तों और लियाक़तों को नेस्त नहीं करते।

          दूसरी : हम तजुर्बा-कारी की रु से साबित नहीं कर सकते कि कोई मख़्लूक़ वाहिद है क्योंकि उस में एक जिस्म और एक रूह है और उस की रु से हम सोच कर ये नतीजा पैदा करते हैं कि हमारे ख़लक़ी आलात अज्साम जिनसे हम मा’लूम करते और काम करते हैं वो हमारी रूह का कोई हिस्सा नहीं है पस किसी सबब से हम ऐसा ख़याल नहीं कर सकते कि जिस्म के नाबूद होने से ताक़त व लियाकत भी नेस्त हो जाती है क्योंकि अक्सर देखने में आया है कि इन्सान बा’ज़ वक़्त किसी उज़ू या जिस्म के बड़े हिस्से को खो देते और क़ता कर देते हैं तो भी वैसे ही ज़िंदा और सलामत रहते हैं या’नी उन की रूह में कुछ नुक़्सान नहीं आता हम उस वक़्त को याद करते हैं कि जब हम कमसिन थे और हमारा जिस्म बहुत छोटा था अगर इस वक़्त इस का हिस्सा या उज़ू दूर या मुनक़ते हो जाता तो भी हम ज़िंदा और बरक़रार रह सकते थे। अलावा अज़ीं जवान आदमी का जिस्म ज़रर सहता है लेकिन उस के दिल को नुक़्सान नहीं पहुंचता और भी हम देखते हैं कि जानवरों के जिस्म हमेशा तब्दील होते रहते हैं पस इन बातों से हम ये तमीज़ हासिल करते हैं कि रूह और फ़ानी जिस्म के दरमियान फ़र्क़ है। या’नी रूह और शय है और जिस्म दीगर चीज़ है क्योंकि जिस्म गो तब्दीली है मगर रूह यकसाँ रहती है।

          और अब हम और ख़यालों पर मुतवज्जह होते हैं। पहले हम अज़रूए तजुर्बा कारी साबित नहीं कर सकते कि वो जान जो हम में है कितनी बड़ी है मगर चूँकि उस का इस जिस्म के अनासिर से बड़ा होना साबित नहीं होता तो हम हरगिज़ नहीं कह सकते कि वो मौत के ज़रीये से नेस्त हो जाएगी।

          दूसरे, अगर हम किसी तरह के जिस्म या’नी गोश्त व हड्डी व रग वग़ैरह से ता’अल्लुक़ रखते हुए ख़ुश रहें और बा’दा (इस के बाद) उस जिस्म से अलैहदा हो कर ज़िंदा रहें तो हम नहीं कह सकते कि उस जिस्म और हड्डियों की जिनसे हम अलैहदा होते तब्दीली बिला (बगैर) उन की हलाकत होगी। और जो हाल उनका होगा वो हमारी हलाकत का सबब होगा। और अगरचे हम जिस्म का एक बड़ा हिस्सा ख्वाह सब खो दें ताहम हमारी जान यकसाँ रहती है और हम नेस्त नहीं होते तो बेशक व शुब्हा हम मौत के बाद ज़िंदा रहेंगे अलबत्ता हमारा जिस्म एक दम से तब्दील ना होगा मगर ये कुछ बात नहीं है जिस हाल में कि हम बड़ी तब्दीलियों से गुज़र कर ज़िंदा रहें तो किसी तरह ख़याल नहीं कर सकते कि जब हमारा जिस्म मर जाये तो रूह भी अदम वजूद हो जाएगी।

          पस अगर हम अपने बदन की बाबत ख़ासकर इस तरह के ख़याल करें कि मा’लूम करना और ख़्वाहिश करना भी ख़लक़ी आलात से बने हैं तो नतीजा ये निकलता है कि इल्मी मुनाज़रे से और अज़रूए फ़िलासफ़ा मा’लूम होता है कि हम आँखों से मिस्ल चशमे के देखते हैं मगर ये किसी तरह साबित नहीं कि आँख ही वो देखने वाली शय है बल्कि वो तो फ़क़त बसीरत का एक ज़रीया है और इसी तरह कान भी सुनने वाली शय नहीं हैं बल्कि समा’अत का ज़रीया हैं। अला हांज़ल-उल-क़यास (इसी तरह, इसी क़यास पर) जुम्ला आज़ा एक तरह के आलात हैं जिनके ज़रीये से हम बाहर के अश्या को अंदर ला सकते हैं या’नी मा’लूम कर सकते हैं। पस वो मा’लूम करने के औज़ार और वसीले हैं ग़र्ज़ इस से ये साबित होता है कि अगरचे आदमी अपने कई एक ख़लक़ी आलात या’नी बासिरह व समा’अ् (देखने और सुनने की क़ुव्वत) वग़ैरह खो देते हैं तो भी उन की क़ुव्वतें ज़िंदा और बरक़रार रह सकती हैं और नीज़ ये बात ख्व़ाब की हालत में और होती है। इसी तरह हरकत करने की क़ुव्वत भी क़ाएम शय है। क्योंकि हम हसब अपनी मर्ज़ी के हरकत कर सकते हैं अगर कोई उज़ू ज़ाए (बर्बाद) हो जाए तो भी ये रूह क़ाएम रहती है या’नी वो शख़्स जिसके उज़ू का नुक़्सान हो गया हो वोह हरकत करने की ताक़त व लियाकत रखता है पर बसबब ना होने उज़ू के इस ताक़त व लियाक़त को काम में नहीं ला सकता और अगर वही उज़ू क़ाएम होते तो वो साबिक़ के मुवाफ़िक़ अपनी जुम्ला हरकतें कर सकता। फिर अगर किसी की टांग ज़ाए (बर्बाद) हो गई हो तो वो लकड़ी की टांग बनाकर चल सकता है या डंडे से काम ले सकता है। और हालाँकि हमारे आज़ा हरकत करने के क़ाबिल बनाए गए हैं। मगर ये साबित नहीं हो सकता कि वो अज़खु़द हरकत कर सकते हैं। मसलन एक शख़्स इरादा रखता है कि दूरबीन के ज़रीये से किसी चीज़ को देखे और चौबदस्ती (हाथ की लकड़ी, छड़ी) की मदद किसी जगह को जाये तो कुछ दूरबीन और चौबदस्ती इरादा करने वाली शय नहीं हैं पस इस तरह आँख और टांग कुछ इरादा करने वाली नहीं हैं और भी जिस तरह कि दूरबीन देखने वाली नहीं है और ना लाठी चलने वाली है इसी तरह आँख और टांग चलने वाली और देखने वाली नहीं। ख़ुलासा कलाम ख़लक़ी औज़ार व अ’ज़ा सिर्फ़ आलात व वसाइल हैं जिनके ज़रीये से ज़िंदा शख़्स या’नी हम मा’लूम करते और हरकत व क़ाम करने के इस्तिमाल में लाते हैं। और सिवाए इस के कुछ और यक़ीन इनकी बाबत नहीं हो सकता कि वो क्या हैं और ना हम उन से किसी और तरह का ता’अल्लुक़ रखते हैं बल्कि मिस्ल और आलात के। पस जिस वक़्त हमारे ख़लक़ी आलात व औज़ार हलाक होंगे तो ये यक़ीन हरगिज़ नहीं हो सकता कि हम भी नेस्त हो जाएं और अगर कोई एतराज़ करे और कहे कि दलाईल मज़्कूर बाला से साबित होता है कि और हैवानात भी अबदी हैं और इसलिए हयात-ए-अबदी पाने के मुस्तहिक़ हैं तो उनका ये एतराज़ ज़’ईफ़ (कमज़ोर) और बेजा है क्योंकि जिस क़द्र हम अपनी बाबत वाक़फ़ियत रखते हैं उस क़द्र उन की बाबत नहीं जानते ख़्वाह वो हयात-ए-अबदी पाएं या नहीं पर इस मुबाहिसे से कुछ ता’अल्लुक़ नहीं है।

          अगरचे ये ज़ाहिर व साबित है कि क़ुव्वत इदराक व याद व मुहब्बत हमारे अज्साम से मुत’अल्लिक़ हैं मगर उन का ता’अल्लुक़ ऐसा नहीं जैसा कि हमारे आलात हक़ीक़ी का है पस किसी तरह और किसी सबब से हमें ये ख़याल नहीं हो सकता कि जब हमारा जिस्म मर जाये तो हमारी क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला व इदराक भी नेस्त हो जाएगी या थोड़ी देर के वास्ते भी बेकार हो जाएगी पस जिस हाल में कि दो तरह के क़ानून हैं तो इन्सान उस ज़िंदगी में दाख़िल हो सकता है और हर हालत की ख़ुशी या रंज मा’लूम कर सकता है और जब कि हमारे ख़लक़ी आलात को हरकत हुई है या जब कि हमारी कोई जिस्मानी ख़्वाहिश पूरी होती है तो हम उस वक़्त हालत हवास में होते हैं और अगर ऐसा ना हो और हम मा’लूम करते हों या काम और ख़याल करने में मशग़ूल हों तो उस वक़्त हम ख़याल करने की हालत में हैं और किसी तरह से मा’लूम नहीं कर सकते कि कोई चीज़ जो बज़रीया मौत हलाक हो सकती है किसी ज़िंदा शख़्स को जो क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला रखता है दरकार हो बशर्त ये कि उस वक़्त के पेश्तर उस ने इल्म हासिल किया हो अगरचे ख़याल करने के वक़्त हमको अपने मा’लूम करने वाले ख़लक़ी आलात की ज़रूरत होती है ताकि वो हमको ख़यालात के लिए तसव्वुरात पहुंचाएं जैसा कि राज मकान बनाने में औज़ार थोड़ी देर तक काम में लाते हैं मगर तो भी जब कि तसव्वुरात और इल्म दिल और याद में दर आते हैं तब हम अपने ख़लक़ी आलात की मदद से बग़ैर गुज़श्ता ख़याल और गौर करने के बहुत ही ख़ुश और ग़मगीं होते हैं। पस हम बहालत मज़्कूर अपने इन अज्साम से जो फ़ानी हैं कुछ मदद नहीं पा सकते जिससे ये जान सकें कि हम ना मरेंगे जिस वक़्त कि मर जाएंगे फिर हम में कई शय ऐसी हैं जो बदन के लिए मुहलक हैं लेकिन जब कि वही हमारे जिस्म पर हमला करती हैं तो हमारी रूह और अक़्ल की क़ुव्वतें और लियाक़तें बदस्तूर क़ाएम रहती हैं पस किसी तरह से यक़ीन नहीं होता कि जिस वक़्त जिस्म मर जायेगा तो ये रूह भी मर जायेगी बल्कि ग़ालिब है कि वो हरगिज़ नेस्त ना होगी क्योंकि जिस्म की बीमारियों से रूह में कुछ नुक़्स नहीं आता हाँ अलबत्ता चंद बातों में हमारी फ़ानी ताक़तें और ख़लक़ी आलात अपनी हरकत से रुक जाते हैं मसलन गुनूदगी कि वो हमारी नींद तक बढ़ती जाती है गर वोह हमारी तजुर्बा कारी के बर-ख़िलाफ़ बतलाती तो हम यक़ीन करते कि ये ताक़तें नींद से हलाक हो जाएंगी बल्कि मज़्कूर बीमारियों से ये हाल नहीं होता जैसा नींद में होता है क्योंकि ताक़तें और लियाक़तें तो ज़रा क़ासिर नहीं होतीं बल्कि मौत के वक़्त तक पूरी और बाहम रहती हैं तो किसी तरह यक़ीन नहीं होता कि मौत के सबब से क़ुव्वत-ए-मुतख़य्यला हलाक होगी क्योंकि हम देखते हैं कि अगली क़ुव्वतें और लियाक़तें या’नी हिस्सा मुश्तर्क ख़याल वहम क़ुव्वत मुतफक्किर हाफ़िज़ा मौत ही तक क़ाएम रहती हैं यहां तक इन्सान ब बा’इस अक़्ल दर्ज ख़्वाह ख़ुश व ख़ुर्रम या मग़्मूम (ग़म-ज़दा) हो सकता है। पस साबित है कि रूह की ताक़त व लियाक़त कम नहीं होती बल्कि किसी क़द्र तरक़्क़ी पाती है अब हम किस तरह ख़याल कर सकें कि वो सख़्त और मुहलक बीमारियां जो बदन को हलाक कर डालती हैं रूह को भी ज़रर (नुक़्सान) पहुंचाएंगी हरगिज़ नहीं क्योंकि हमने अक्सर देखा है कि जब बीमारियों के सबब जिस्म कमज़ोर हो गया है तो ताक़तें और लियाक़तें जो रूह और अक़्ल के ता’अल्लुक़ हैं ताहंगाम (मौक़ा, ज़माना) मौत क़ाएम व बरकरार रहती बल्कि किसी क़द्र बढ़ जाती हैं और जिस हाल में कि हम इस तरह की मौत से नेस्त नहीं हो जाते तो नहीं कह सकते कि किसी और तरह की मौत से मर जाएंगे और हम इस बात को और भी तूल दे सकते हैं कि हमारे ख़लक़ी आलात हमारे ग़ौर करने की क़ुव्वत से इस क़द्र कमतर ता’अल्लुक़ रखते हैं कि हम ख़याल भी नहीं कर सकते हैं कि मौत जिससे हमारे ख़लक़ी आलात हलाक होते हैं वो हमारे ग़ौर करने की ताक़त को भी नेस्त करेगी या उस को ज़रा भी रोक सकेगी क्योंकि हमारी क़ुव्वत या दो क़ुव्वत मुहब्बत और ग़ौर करने की ताक़त मौत तक ज़्यादा बढ़ती जाती है और रोज़ बरोज़ हम अपनी तमाम पहली लियाक़तें इस तौर से काम में लाते हैं कि हमारे जिस्म के ख़लक़ी आलात कुछ भी उन में मदद नहीं करते पस अग़्लब (मुम्किन) व बदेही (वो बात जिसमें दलील की हाजत ना हो, ज़ाहिर) है कि हमारी रूह की लियाक़तें मौत तक हलाक ना होंगी और ना रोकी जाएँगी बल्कि बढ़ जाएँगी और पस अज़-मर्ग (मौत के बाद) हम उन्हें अज़-सर-ए-नूअ् शुरू करेंगे और आगे बढ़ जाऐंगे और यक़ीन है कि मौत एक तरह से तवल्लुद (पैदा) होने की मानिंद है। और चूँकि ज़ाहिर है कि तवल्लुद (पैदा) होने के वक़्त वो ताक़तें जो कि हम रहम में हो कर रखते हैं ना तो हलाक होती और ना बदल जाती हैं बल्कि क़ाएम और बरक़रार रहती और तरक़्क़ी पाकर बहुत ज़्यादा हो जाती हैं तो मौत से भी वो ताक़तें नेस्त ना होंगी बल्कि मौत मिस्ल एक दरवाज़े के है जिससे हम गुज़र कर फ़ौरन एक उम्दा ख़ुशी और आज़ादगी के मकान में पहुँचेंगे जहां हमारी क़ुव्वतें और लियाक़तें फ़ुर्सत पाकर कामिलियत से अपनी तमाम हरकतें करेंगी क्योंकि हम जिस्म में रहते हुए तो बा’ज़ बातों को अपने ख़लक़ी आलात से मा’लूम कर सकते हैं जो कि शायद हमारी क़ुव्वत ग़ौर को रोकती हैं मगर जब कि हम मर जाएंगे तो आज़ाद हो कर कामिल तौर से अक़्ल व फ़हम की रसाई के बमूजब ग़ौर करके शादमान हो सकेंगे लेकिन बा’ज़ आदमियों का क़ौल है कि इन्सान की मौत नबातात के गल जाने से मुशाबहत रखती है सो इस बात से कोई फ़रेब ना खाए क्योंकि नबातात के वजूद पाने और नेस्त होने में बमुक़ाबला बनी-आदम इस क़द्र फ़र्क़ कसीर है कि इस बात की रु में कुछ लिखने की हाजत नहीं पस बेहतर है कि हम तजुर्बा कारी की रु से ख़याल करने में ना रोके जाएं बल्कि जो कुछ हमको इल्म है उस से मुबाहिसे करके सच्चा नतीजा निकालें तब मा’लूम होगा कि निहायत ही क़रीन-ए-क़ियास है कि जब हम इस दुनिया से फ़राग़त पाएँगे तब उम्दा और आज़ाद हाल में दाख़िल होंगे।

          और ये बात त’अज्जुब की नहीं क्योंकि जैसा ऊपर मज़्कूर हो चुका कि हम बरवक़्त पैदाइश के तारीकी और लाचारगी से रोशनी और आज़ादगी में आए। और आइन्दा ज़िंदगी की ये मो’तबरी जिसका बयान बाब हज़ा में किया गया मज़्हब की सुबूती दलील के बराबर है। लेकिन आइन्दा ज़िंदगी की दलील क़वी सबूत मज़्हब की दलील नहीं हो सकती है क्योंकि आइन्दा ज़िंदगी दहरियों (मुल्हिद, लादीन) के बयान के बर-अक्स नहीं है बल्कि वो मज़्हब का एक नतीजा है इसलिए जो बात या ख़याल उस के बर-ख़िलाफ़ हो। वो मज़्हब के भी बर-ख़िलाफ़ है अब ऊपर के बयान से साफ़ व बख़ूबी वाज़ेह होता है कि कोई दलील इस ता’लीम के ख़िलाफ़ नहीं है और मख़्लूक़ात के तरीक़ों पर ग़ौर करने से कोई बात भी ऐसी नहीं निकलती जिसकी रु से कोई कह सके कि मौत से हमारी रूह हलाक हो जाती है। पस इस वास्ते ये मज़्हब की बुनियाद की एक ता’लीम का सबूत क़वी है। और इस बात की मदद से इन्सान का दिल मज़्हब की तमाम ता’लीम पर ग़ौर करके उसे क़ुबूल कर सकता है।



दूसरा बाब

ख़ुदा की हुकूमत करने और सज़ा व जज़ा देने
बल्कि ख़ास कर सज़ा देने के बयान में

          आइन्दा ज़िंदगी का ख़याल इस सबब से हमको भारी मा’लूम होता है कि उस में हम या तो ख़ुशहाल हो सकते हैं या मुब्तलाए मलाल और वो बात जिसके बा’इस हमें ऐसा ख़याल बक़िया आता है ये है कि हमारी आइंदा ज़िंदगी की ख़ुशी या तकालीफ़ और बख़्श हमारे मौजूदा क़ौमों और फ़े’अलों पर मुन्हसिर है। और अगर तस्लीम किया जाये कि ऐसा नहीं है तो शायद हमराज़ जोई (तलाश करने वाले) के तौर पर इस बात की बाबत ख़याल करेंगे और तब अपनी या औरों की मौत की बाबत फ़िक्र करेंगे लेकिन अर्बाब दानिश (साहिब-ए-इल्म लोग) इस से ज़्यादा ख़याल ना करेंगे कि हमारे कामों का जो हम इस दुनिया में करते हैं आइंदा ज़िंदगी में कभी हिसाब लिया जाएगा या अगर किसी तरह की मुशाबहत या मुबाहिसे से यक़ीन ना हो कि आइंदा फ़े’अलों के मुताबिक़ सज़ा या जज़ा पाएँगे तो हमको बहमा वजूह (वजह की जमा) ग़ौर करना लाज़िम आएगा कि ऐसे काम करें जिनके सबब सज़ा से बच कर जज़ा और कामिल ख़ुशी हासिल करें जिसके पाने के हम अपने तईं मुस्तहिक़ समझते हैं अगर सिवाए इस दलील के जो पहले बाब की मुशाबहत से निकलती है और ना हो तो भी अहले दानिश उस आइंदा ज़िंदगी की बाबत ज़रूर फ़िक्र करेंगे।

          और अब हाल में हमारी शादमानी और तक्लीफ़ का बड़ा हिस्सा हमारे इख़्तियार में कर दिया गया है और ख़ालिक़ ने हमको हमारे कामों का नतीजा दर्याफ़्त करने की लियाक़त अव़्वल ही बख़्श दी है चुनान्चे हम अपनी तजुर्बे कारी से मा’लूम करते हैं कि ख़ुदा हमको बग़ैर हमारे ख़बरदारी व दूर-अन्देशी करने के ज़िंदा नहीं रखता है अगरचे हद उसी ने बांध दी है और वो चीज़ें भी मौजूद कर दी हैं कि जिनके बग़ैर हम ज़िंदा नहीं रह सकते हैं फिर हम अक्सर देखते हैं कि वो दुनियावी चीज़ें जिन्हें हम चाहते हैं बग़ैर कोशिश करने के दस्तयाब नहीं होती हैं फिर जब जहद (कोशिश) करते तब ज़रूर मतलूबा चीज़ें पाते और उन से ख़ुश होते हैं या’नी ये कि ख़ुदाए त’आला हमारी कोशिश और काम के ज़रीये से हमारी ख़ुशी के वास्ते वो चीज़ें अता फ़रमाता है। और मैं नहीं जानता कि हमारी ख़ुशी का कोई दर्जा या क़िस्म सिवाए हमारे कामों के किसी और वसीले से मिलता हो फिर अक्सर होशियारी व ख़बरदारी को काम में लाने से हम आराम व सलामती से बसर कर सकते हैं। इल्ला (लेकिन, सिवा) बर-ख़िलाफ़ इस के जल्दबाज़ी व शहवत परस्ती व ज़िद व ग़फ़लत से हम अपने तईं परेशानी व शिकस्ता हाली में रख सकते हैं। और बहुत आदमी अपनी मुसीबत की शिकायत करते हैं पर सबब ये है कि वो ऐसे काम करते हैं जिनका नतीजा उन्हें पेश्तर से मा’लूम है कि शिकस्ता हाली और परेशानी है और उन तरीक़ों पर चलते हैं कि जिनका समरा (फल, नतीजा) वो और दिन की नसीहत व नमूना और तजुर्बे कारी से ये जानते हैं कि बदनामी व इफलास व बीमारी और नागहानी मौत होगी। हर शख़्स मा’लूम करता है कि इस दुनिया का ये तरीक़ा है। लेकिन अलबत्ता हम इक़रार करते हैं कि अज़रूए तजुर्बे कारी हम हरगिज़ साबित नहीं कर सकते कि हमारी जुम्ला तक्लीफ़ात हमारे बुरे ही कामों का नतीजा हैं। और कि आया ख़ालिक़ अपने मख़्लूक़ को ख़्वाह-मख़्वाह बरकत देता है या नहीं या’नी बग़ैर उन के कामों और कोशिशों के वो उन की आफ़तों को रोक कर ख़ुशी बख़्शता है या नहीं।

          दूसरे लाज़िम आता है कि शायद बसबब दुनियावी चीज़ों की ख़ासियत के जिसे हम नहीं समझते ग़ैर-मुम्किन है कि ख़ुदा हमको बग़ैर काम के ख़ुशी अता करे। या अगर वो हमको बग़ैर काम व कोशिश के सब कुछ बख़्शे तो हमें ऐसी ख़ुशी जैसी अब मिलती है ना मिलेगी या शायद ख़ुदा की मुहब्बत ऐसी है कि वो मेहनत करने वालों व नेकों और ईमानदारों और दियानतदारों को ख़ुश करनी चाहती है और शायद वो कामिल ख़ुदा इन्हीं बातों से ख़ुश होता है कि उस की मख़्लूक़ इस ख़ासियत के मुताबिक़ जो इन्सानों में हैं और नीज़ उस वास्ते के मुवाफ़िक़ जो इन्सान और ख़ुदा के बीच में चले और बसर ले जाये। फिर कहता हूँ कि शायद कामिल ख़ुदा दियानतदारी अपनी मख़्लूक़ में पसंद करता है इसलिए कि दियानतदारी ख़ुद-पसंद के लायक़ है और वो तमाम मख़्लूक़ात की ख़ुशी के लिए ज़रूर है। अलावा अज़ीं ये भी हो सकता है कि हम लोग बिल्कुल नहीं जानते कि ख़ुदा ने दुनिया को किस वास्ते बनाया और उस की हुकूमत का क्या मतलब है। पस हमको इस बात की वाक़फ़ियत ऐसी मुश्किल है जैसे नाबीना को रंग की तमीज़ करना बिल्कुल ग़ैर-मुम्किन है लेकिन जो कुछ हो एक बात बरहक़ है और तजुर्बा कारी से साबित है कि ख़ुदाए त’आला की हुकूमत अक्सर इस वतीरा (तौर, तरीक़ा) पर है कि पहले से हमको आगाही देता है या दर्याफ़्त करने की ताक़त व लियाक़त बख़्शता है ताहम बख़ूबी मा’लूम करें कि या फ़ुलां हुक्म तोड़ने से फ़ुलां नुक़्सान या आज़ार पहुँचेगा ताकि हम जानें कि वो ख़ुशी व राहत या ख़स्ता ख़ातिर दरबख़्श हमारे ही नेक या बद-कामों का है।

          अगर कोई कहे कि ये सब ख़ल्क़त के तरीक़े हैं तो बेशक यही बात है जो मैं बतलाता हूँ पर सोचना चाहिए कि ख़ल्क़त के तरीक़े के क्या म’अनी हैं। उस के म’अनी हैं ख़ालिक़ की मर्ज़ी और फ़र्मान। और उन को जो ख़ालिक़ के मुकर (इक़रार करने वाला) हैं इस बात का इन्कार करना कि वो मख़्लूक़ात पर हुकूमत रखता है नहीं चाहिए। और ना इस बात से मुन्कर होना चाहिए कि ख़ुदा ही सब कुछ करता है इसलिए कि वो इन्सान के हर काम का नतीजा निकालता है। क्या वो हर दम काम करता है कि नहीं। कोई और दलील नहीं है जिससे साबित हो कि वो हर दम काम नहीं करता।

          अला हाज़ल-उल-क़यास हर आदमी अपने हर एक काम में दूर-अंदेशी करता है ताकि वो नुक़्सान और बुराई से बच कर फ़ायदा हासिल करे। और अगर ऐसा है कि ख़ल्क़त के तरीक़े ख़ुदा से मुकर्रर हुए और हमारी दूर-अंदेशी और तजुर्बे कारी की ताक़त व लियाक़त भी इसी से बख़्शी गईं तो हमारे कामों के बुरे या अच्छे नताइज भी उसी से मु’ईन हुए और उन नताइज की पेश-बीनी भी उसी से दी गई ताकि हम आगाह हों कि कौन से काम करें और कौन से काम ना करें। मसलन हर शख़्स जो जानता है कि ये तरीक़ा ख़ुदा से मुक़र्रर हुए उसे मा’लूम है कि रंज एक नतीजा है बुरे काम और सुस्ती व काहिली का और ख़ुशी नतीजा है उस के बर-अक्स का। और नतीजे अक्सर पूरे हुए हैं पस हम हक़ीक़तन मा’लूम कर सकते हैं कि हम फ़िल-वाक़े’अ् ख़ुदा की हुकूमत में हैं यहां तक कि वो हमको हमारे कामों के मुताबिक़ बराबर जज़ा या सज़ा दिया करता है।

          और अगर हम ख़ालिक़ के मुक़िर (इक़रारी) हों तो तजुर्बे कारी की रु से ना कि मुबाहिसे से ज़रूर मा’लूम करते हैं कि हम उस के ज़ेर हुकूमत हैं जैसे कि ज़ाहिर में मजिस्ट्रेटों के ज़ेर फ़र्मान हैं क्योंकि हुकूमत करने की रास्त तदबीर ये है कि आज़ाद दिन को अहकाम और उन की ता’मील और अदम इता’अत के नताइज बता दी जाएं और तब फ़रमांबर्दारों को जज़ा और नाफ़र्मान बर्दारों को सज़ा दी जाये।

          और ख़्वाह तो ख़ालिक़ हमको दम-ब-दम सज़ा या जज़ा दिया करे और या ऐसी तदबीर मुक़र्रर कर दे कि जिससे हमको दम-ब-दम हमारे कामों का बदला मिलता रहे तो एक ही बात है और अगर मजिस्ट्रेट एक तदबीर निकाल सके कि जिससे बग़ैर तक्लीफ़ उठाए और मुक़द्दमा करने और फ़त्वा देने के मुजरिम को उस के जुर्म के मुवाफ़िक़ सज़ा मिले या कि हर एक गुनेहगार फ़ौरन अपने ऊपर अपने गुनाह की सज़ा उठाले तो इस हाल में भी हम उस के ज़ेर हुक्म होते हैं और हर एक शख़्स कहेगा और इक़रार करेगा कि ऐसा हाल और ऐसी तदबीर ज़्यादा कामिल है।

          और अगर ऐसा हो कि ख़ुदा बा’ज़ कामों का बुरा बदला देता और बा’ज़ का अच्छा अज्र बख़्शता इस मक़्सद से कि हमको नेक काम करना सिखलाए तो वो ना सिर्फ ख़ुशी व रंज पहुँचाता बल्कि जज़ा और सज़ा देता है। और जब हम ऐसा काम करते जिस से जिस्म हलाक होता है। मसलन आग में गिरना तो हमको दर्द मा’लूम होता है जो कि ख़ालिक़ की तरफ़ से एक आगाही है और हमको हलाक होने से रोकने के लिए मुक़र्रर हुई है। पस साबित है कि हम ख़ुदा के ज़ेर हुकूमत हैं और ये सबूत ऐसा है कि अगर आस्मान से आवाज़ सज़ा बताती हुई आती तो भी इस से ज़्यादा नहीं सकता।

          पस हम देखते हैं कि जिस तरह बाल बच्चे और नौकर चाकर और र’ईयत अपने मालिकों से अपने कामों के मुवाफ़िक़ सज़ा और जज़ा पाते हैं वैसे ही हम अपने मालिक ख़ुदा से अपने कामों का बदला पाते हैं। हासिल कलाम मख़्लूक़ की मुशाबहत से ज़ाहिर वे अयां है कि मज़्हब की ये ता’लीम कि ख़ुदा आख़िर को आदमजा़द को उन के अफ़’आल के बमूजब बदला देगा बिल्कुल क़ाबिल-ए-एतिबार है।

          लेकिन इलाही सज़ा वही है जिसके बर-ख़िलाफ़ आदमी एतराज़ करते हैं लिहाज़ा हम साबित करेंगे कि वो सज़ाएं जो आदमियों को इस जहान में मिलती हैं उन आने वाली सज़ाओं की जिनका बयान बाइबल में है तश्बीहें हैं। ऊपर के बयान से साबित किया गया कि भूल व ज़िद और गुनाह का नतीजा दुख और तक्लीफ़ है और चूँकि उन तकालीफ़ को पेश्तर से दर्याफ़्त कर सकते हैं तो बेशक वो हमारे अफ़’आल बद के नताइज हैं। अला हाज़ल-उल-क़यास हम देखते हैं कि दुनिया में रहने से इस क़द्र तक्लीफ़ नहीं होती बल्कि इन्सान अपने बुरे काम करने से निहायत दुख और तक्लीफ़ अपने ऊपर लाते हैं जिनको वो पेश्तर से देख सकते और उन से बच सकते हैं।

और इस जहान की सज़ाओं का और भी कुछ बयान करते हैं जो क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं

          पहले : अक्सर ये सज़ाएं उन कामों के बदले हैं जिनको करते वक़्त बहुत ख़ुशी हासिल हुई मसलन बीमारी और बेवक़्त की मौत बद-परहेज़ी का बदला है अगरचे करते वक़्त बहुत ख़ुशी और ऐश मा’लूम हुआ।

          दूसरे : ये सज़ाएं जो पीछे आती हैं अक्सर उन फ़ाइदों और ख़ुशियों से बहुत ज़्यादा होती हैं।

          तीसरे : अगरचे हम ख़याल कर सकते हैं कि गुनाह का फ़ौरन बदला मिलने की तदबीर हो सकती है तो भी हम देखते हैं कि अक्सर ऐसा नहीं होता बल्कि गुनाह करने के बाद देर में उस की सज़ा दी जाती है। हत्ता कि अक्सर हम उस गुनाह को जिसके बदले में वो सज़ा आती है भूल जाते हैं।

          चौथे : सज़ाएं तवक़्क़ुफ़ (वक़्फ़ा, देर) होने से साबित नहीं होता कि वो ना दी जाएँगी।

          पांचवें : अक्सर ऐसा होता है कि गुनाह करने के बहुत देर बाद सज़ा मिलती है ना कि दर्जा बदर्जा बल्कि एक दम से और बड़े ज़ोर के साथ जैसे कि अक्सर दुख का यही हाल है।

          छटे : किसी को यक़ीन कामिल नहीं है कि हमारे कामों का बदला फ़ौरन वक़्त पर मिलेगा इसलिए कोई सज़ा का मुंतज़िर नहीं रहता बल्कि अक्सर ये हाल है कि लोग जानते कि बद-परहेज़ी से बीमारी होगी और मुल्की क़ानून की इन्हिराफ़ी (इन्कार) से हाकिम की तरफ़ से सज़ा मिलेगी तो भी वो समझते हैं कि शायद हम बच जाऐंगे मगर तरीक़े के मुताबिक़ दुख अक्सर अपने वक़्त पर आता और वो अपने फ़े’ल (काम, अमल) का बदला पाते हैं।

          इसी तरह अगरचे जवान आदमी अपनी बेफ़िक्री और बेवक़ूफ़ी के तमाम कामों के नतीजे नहीं जानते तो भी वो नतीजे उन को मिल जाते और अक्सर ऐसा होता है कि वो अपने आलम जवानी के अफ़’आल के सबब उम्र भर दुख और दर्द व नुक़्सान उठाते हैं। और ऐसा भी होता है कि फ़ायदा हासिल करने के लिए फ़ुर्सत मिलती है। और अगर वो फ़ुर्सत जाती रहे और ज़ाए की गई तो फिर वो फ़ायदा कभी हासिल नहीं होता।

          अगर किसान मौसम पर तुख़्म (बीज) ना बोए तो साल भर तक नुक़्सान सहता है इसी तरह जो आदमी आलम जवानी तो ओबाशी व बद-परहेज़ी में सर्फ करे वो ज़रूर बीमारी या बदनामी या परेशानी वग़ैरह कुछ ना कुछ बुरा बदला पाएगा।

          बद-परहेज़ी और बुरे काम की एक हद है कि जिसके बाहर कोई आदमी बे-सज़ा पाए नहीं जा सकता। फिर भी ख़याल करने के लायक़ है कि ग़फ़लत व भूल के सबब से हम पर बहुत आफ़तें और नुक़्सान आते हैं। और पिछली बात ये है कि मुल्की हुकूमत के मुताबिक़ आईं है और सज़ाएं भी जो उस में दी जाती हैं बाक़ायदा हैं। और उस में बा’ज़ गुनाहों की सज़ा दार (सूली) पर खींचना मुक़र्रर की गई इसी तरह ख़ुदाए त’आला की हुकूमत में बा’ज़ गुनाहों की मसलन बद-परहेज़ी की सज़ा मौत है हासिल कलाम मुल्क के क़ानून और तबी’अत के ख़िलाफ़ चलने से अक्सर मौत की सज़ा मिलती है और इस से दो मतलब हैं।

          पहले : कि गुनेहगार औरों का नुक़्सान करने से रोके जाएं।

          दूसरे : कि वो औरों के वास्ते निशान और तश्बीह हों।

          और ये मज़्कूर बातें इत्तिफ़ाक़ी नहीं बल्कि रोज़मर्रा के तजुर्बे में आती हैं और उन क़वानीन के नताइज हैं कि जिनके मुताबिक़ ख़ुदाए त’आला मख़्लूक़ात की हुकूमत बतर्तीब करता है।

          और वह उन सज़ाओं की जो किताब-ए-मुक़द्दस में बयान की गईं ठीक-ठीक तश्बीहें और मिसालें हैं यहां तक कि दोनों का बयान एक ही तौर से हो सकता है चुनान्चे किताब अम्साल में यूं मस्तूर है कि :-

          “हिक्मत ऊँचे मकानों की चोटियों पर और उन मकानों में जो रह गुज़रों के बीच सर-ए-राह हैं खड़ी होती है।” और जब ज़ाहिर करती है कि मैं इन्सान को उस की ज़िंदगानी तक रहनुमाई करने वाली हूँ तब वो उन को जो ज़िंदगी की मंज़िल में चलने वाले हैं यूं कहती है कि (ऐ सादा लोगो तुम कब तक सादगी को दोस्त रखोगे और कब तक ठट्ठे बाज़ अपनी ठट्ठे बाज़ी पर माइल रहेंगे और जाहिल इल्म से कीना रखेंगे तुम मेरी तम्बीह पर मुतवज्जह हो देखो मैं अपनी रूह तुम पर जारी करूँगा और मैं अपनी बातें तुम्हें समझाऊँगा और जब कि वो इस फ़र्मूदा को नहीं मानते वो यूं कहते हैं (अज़-बस कि मैंने बुलाया पर तुमने ना माना मैंने अपना हाथ लंबा किया पर कोई मुतवज्जह ना हुआ बल्कि तुमने मेरी सारी मस्लहतों को नाचीज़ जाना और मेरी सरज़निश की क़द्र ना की तो मैं भी तुम्हारी परेशानी पर हँसूँगा और जब तुम पर दहश्त ग़ालिब होगी तो मैं ठट्ठे मारूंगा जिस वक़्त तुम्हारी दहश्त ख़राबी की मानिंद तुम्हारे पास आएगी और तुम्हारी आफ़त गर्द बाद की तरह तुम तक पहुँचेगी और जिस वक़्त मुसीबत और जान कुंदनी तुम पर पड़ेगी तब वो मुझे पुकारेंगे पर मैं जवाब ना दूँगा वो सवेरे मुझ ढूँडेंगे पर मुझे ना पाएँगे)

          ये आया तम्सीली और बतौर नज़ीर (अम्साल) के हैं लेकिन उन के म’अनी सहल (आसान) से समझ में आ जाऐंगे और उनका मतलब ज़्यादा सफ़ाई से उन आयतों से हासिल होगा। क्योंकि उन्हों ने दानाई का कीना रखा और ख़ुदावन्द के ख़ौफ़ को इख़्तियार ना किया सो वो अपनी ही राह के मेवे खाएँगे और अपनी ही मस्लहतों से सैर होंगे कि जाहिलों की बर्गश्तगी उन्हें क़त्ल करेगी और अहमक़ों की कामयाबी उन्हें जान से मारेगी। पस इन आयात में सज़ा देने के तरीक़े बयान किए गए हैं और हम देखते हैं कि बेशक ये सच है और कुतुब मुक़द्दसा में ये बयान है कि इस ही तरीक़े पर जहान आइंदा में सज़ा दी जाएगी फ़िल-हक़ीक़त अगर कोई आइंदा की सज़ा व जज़ा के दलाईल तलब करे तो इस के सबूत में सिर्फ ये बात मुकतफ़ी (काफ़ी, पूरा) है कि अक्सर गुनेहगार लोग गुनाह और बेवक़ूफ़ी व बद-परहेज़ी की राह में चलते हुए तम्बीह और आगाहियां नेक लोगों की तरफ़ से पाते और मलामत भी किए जाते हैं पर कुछ पर्वा नहीं करते और अगर वो अपने गुनाह के बा’इस दिक़्क़त भी उठाते तो भी उस को तर्क नहीं करते हैं तब यकायक बड़ी मुसीबतों में गिरफ़्तार होते और इसलिए कि तौबा करने की फ़ुर्सत गुज़र गई इसलिए इफ़्लास (ग़रीबी) (भूक, प्यास, ग़ुर्बत) व बीमारी व नदामत और बदनामी व आख़िर कार मौत भी उन पर आ पड़ती है और वह किसी तरह से नहीं बच सकते हैं और ये हम ख़ल्क़त के तरीक़ों में देखते हैं।

          हम नहीं कह सकते कि हर नफ़्स अपने गुनाह का ठीक बदला पाता है लेकिन अक्सर ऐसा होता है जिसे हम कह सकते हैं कि आइंदा की सज़ा ज़रूर दी जाएगी।

          अगर इन्सान ऐसी बातों पर ग़ौर करेंगे और ख़ुदा तरसी को दिल में जगह देंगे तो ज़रूर वो गुनाह के बदले और सज़ा से बच जाऐंगे लेकिन जो नहीं मानता तो हाल की और आइन्दा की सज़ा के ख़तरे में ज़रूर रहता है।



तीसरा बाब

ख़ुदा की अदालत के बयान में जो ख़ल्क़त से
ज़ाहिर है

          हम जमी’अ् मख़्लूक़ात और मौजूदात में ऐसी हिक्मत व तरबियत देखते हैं कि जिससे फ़ौरन मा’लूम होता है कि इन सबको ख़ुदाए आलिमुल-गैब ने बनाया और हम ये भी देखते हैं कि ख़ुशी व रंज किसी पर बेसबब नहीं आते बल्कि वो हर नफ़्स के अफ़’आल के बदले हैं इस से बख़ूबी मुद्दलल (साबित) है कि कुल आदमजा़द उसी ख़ुदा के हुक्म के नीचे हैं और इस हुक्म की रास्त मिसालें ये हैं कि जिस तरह मालिक अपने नौकरों पर और मजिस्ट्रेट अपनी रि’आया पर हुकूमत करते हैं और जैसा कि बाब गुज़श्ता में ज़िक्र हुआ कि गुनेहगारों को ईज़ा और नेकों को ख़ुशी मिलती है इसी तरह ये नतीजा निकलता है कि दुनिया का कोई आलिमुल-गैब हाकिम है। जैसा कि हम मौजूदात की हिक्मत व बंदोबस्त पर ख़याल करने से मा’लूम कर सकते हैं कि इन तमाम चीज़ों का कोई आलिमुल-गैब बानी है। लेकिन इस मज़्कूर बात से ये मा’लूम नहीं होता कि आया हाकिम बिल्कुल रास्तबाज़ है या नहीं। हाकिम मुंसिफ़ में ये सिफ़त चाहिए कि वो अपने हर एक बंदे को उस ही के तमाम कामों का ठीक ठीक बदला दे। बा’ज़ आदमी ख़याल करते हैं कि ख़ुदा की सिर्फ एक ही सिफ़त है या’नी रहमत और उस के ये म’अनी हैं कि वो इन्सान के कामों पर लिहाज़ ना करके हर एक को सिर्फ ख़ुशी देता है।

          बिलफ़र्ज़ अगर ये सच है तो इन्साफ़ के फ़क़त ये म’अनी हो सकते हैं कि ख़ुदा अक़्लमंदी व दानाई से रहम करता है लेकिन अगर इस बात की कोई दलील नहीं है तो ऐसा कहना अम्र ना-वाजिबी है क्योंकि ऐसे मज़्मूनों की बाबत हमको संजीदगी से कलाम करना चाहिए।

          लेकिन हमारा सवाल ये है कि क्या हम दुनिया की हुकूमत में रास्तबाज़ी और सदाक़त देख सकते हैं या नहीं और अगर तरीक़ हुकूमत में ये सिफ़ात ज़ाहिर हों तो हाकिम ज़रूर रास्तबाज़ और सादिक़ ठहरता है। शायद मख़्लूक़ात में ऐसे शख़्स भी हों जिन पर ख़ुदा सिर्फ अपनी रहमत ज़ाहिर करता है मगर वो इन्सान पर ठीक मुंसिफ़ी मिसाल अपने नौकरों के करता है। और ये बात ग़ौर करने से साफ़ अयाँ होती है। पस इन्सान को बेफ़िक्र ना होना बल्कि याद रखना चाहिए कि इलाही हुकूमत जिसके मातहत हम हाल में रहते हैं वो एक कामिल नहीं है ताहम उस में हम किसी क़द्र कामिल अख़्लाक़ी इन्साफ़ देख सकते हैं कि जिससे ज़रूर यक़ीन होता है कि आइंदा में दुरुस्त और वाजिबी इन्साफ़ जैसा कि मज़्हब सिखलाता है हर नफ़्स का कामिल और पूरे तौर से किया जाएगा।

          और इस बात का मक़्सद ये है कि हम तफ़्तीश करें कि किस क़द्र इस दुनिया के इन्क़िलाब में हम ऐसी हुकूमत जो आइंदा को कामिलियत के दर्जे पर पहुँचेगी देख सकते हैं।

          और इस मुक़ाम पर हम फिर कहते हैं कि अक्सर बदकार आदमी की निस्बत नेकोकार निहायत ख़ुशहाल और साल रहता है और ये तो हुकूमत की एक मिसाल है लेकिन हम नहीं कह सकते कि नेक कहाँ तक तक ख़ुश हों और बद आदमी किस क़द्र रंज उठाए क्योंकि इस दुनिया में बाज़ औक़ात यहां तक तबद्दुल और इन्क़िलाब होता है कि नेक आदमी और ख़ास कर वो जो पहले नापाक था लेकिन बदी को तर्क करके तब्दील हो गया बड़ी मुसीबत में पड़ता है इस सबब से कि उस के बड़े आदात इस को दिक़ करते हैं और वो अफ़्सोस में होता है बर-अक्स इस के जो एक बुरा आदमी है और बदी से शर्माता नहीं बल्कि अपने गुनाहों पर ख़याल ना कर के ख़ुश होता है। लेकिन ऐसी मिसालें थोड़ी हैं और हम बाआसानी मा’लूम कर सकते हैं कि जो ऊपर बयान हुआ सो सच है कि इस दुनिया में बेशक हुकूमत का शुरू है।

          अब हम इस बात को और ज़्यादा तश्रीह के बयान करते हैं।

          पहले : अगर हमको मा’लूम ना होता कि ख़ुदा हमारा हाकिम है या नहीं तब तो अलबत्ता कुछ मज़ाइक़ा ना था मगर चूँकि साफ़ साबित है कि वो किसी ना किसी तरह से हमारे ऊपर हुकूमत करता है इस वास्ते ज़रूर ख़याल करने की जाह (जगह, मुक़ाम) है कि शायद वो रास्तबाज़ हाकिम है।

          और जब कि साबित है कि ख़ुदा इन्सानों को किसी तर्तीब से सज़ा या जज़ा देता है तो हम बिला-शुब्हा ख़याल कर सकते हैं कि वो आख़िर में उन को उनके कामों का ठीक बदला देगा क्योंकि हमारे नज़्दीक नेकोकारों को जज़ा देकर ख़ुश करना और बदों को सज़ा से रंज देना बनिस्बत और तरह के तरीक़ हुकूमत के जो हमारे ख़याल में आए निहायत ही बेहतर व लायक़ और मुनासिब है।

          पस ख़्वाह मसीही मज़्हब हक़ हो या बातिल तो भी ये बात जो इस में मुबय्यन (ज़ाहिर) है कि ख़ुदा रास्ती से हर एक आदमी का इन्साफ़ करेगा। बेवक़ूफ़ी और ख़याली हरगिज़ मा’लूम नहीं होती। क्योंकि हम देखते हैं कि इस तरह के इन्साफ़ का इसी दुनिया में शुरू है और हमारी अक़्ल व दानिश कहती है कि इस से बेहतर और उम्दा कोई और तरीक़ा नहीं हो सकता।

          दूसरे : हमें याद रखना चाहिए कि सलामती व फ़ायदा और ख़ुशी ज़रूर हमारी नेकी व होशियारी और दूर-अंदेशी का अंजाम है और नाख़ुशी व रंज व मुसीबत बेशक जल्द-बाज़ी व ओबाशी और ज़िद की बेवक़ूफ़ी के नताइज हैं और मिसाल मज़्कूर मख़्लूक़ात की उम्दा तर्बियत के सबूत हैं। मसलन जब कोई आदमी अपने लड़कों को सज़ा देता और सिखलाता और उन के वास्ते अच्छा नमूना बन जाता है तो उस की बाबत कहा जाता है कि वो अपने लड़कों की ठीक तर्बियत करता है।

          इसी तरह से ख़ुदा आम व मुस्तहकम क़वानीन के ज़रीये से दुनिया की हुकूमत करता है क्योंकि ये तर्बियत उसी ने मु’ईन कर दी है कि हम नेकी करने से ख़ुशी पाएं और बदी करने से परेशानी में पड़ें।

          तीसरे : और ऐसे ही कि वो जो बड़े काम मसलन चोरी व दारोग गोई व जुल्म व बेरहमी करते हैं वो सज़ा पाते हैं और जो ऐसे काम पोशीदा कर चुके वो इस क़द्र दर्द व खौफ में रहते हैं कि जो सज़ा के बराबर है। और ये एक हुकूमत है कि सब के ऊपर है जो मुल्क में रहते हैं।

          और ये मज़्कूर हुकूमत ख़ुदा से मुक़र्रर हुई है क्योंकि उसी ने हमें पैदा किया कि एक दूसरे के तहत में एक दूसरे के मुहताज हैं। पस जब हम किसी से मुल्क के क़वानीन के मुताबिक़ सज़ा पाते हैं तो ये सज़ा हमको ख़ुदा की तरफ़ से मिलती है।

          लेकिन एतराज़ किया जाता है कि बा’ज़ वक़्त नेकोकार आदमी सज़ा पाते या’नी सताए जाते हैं और बदकार लोग बे-सज़ा छूट जाते बल्कि अज्र भी पाते हैं सो इस का जवाब ये है कि दस्तूर और तर्बियत तो ऐसी मु’ईन नहीं की गई पस साबित रहा कि ख़ालिक़ ने अपने मख़्लूक़ का बंदो-बस्त ऐसा मुक़र्रर किया है कि नेकोकारों को जज़ा व ख़ुशी और बदकारों को सज़ा मिल जाये।

          चौथे : और ख़ल्क़त की तर्बियत के मुताबिक़ नेक लोग अपनी नेकी के सबब जज़ा पाते हैं और गुनेहगारों को उन की बुराई का बदला मिलता है कि हुकूमत मुक़र्रर की गई और शुरू हुई है और वो बेशक इन्सानों के कामों से ता’अल्लुक़ रखती है मगर कामिल और पूरी नहीं है।

          लेकिन हमें चाहिए कि कामों और उन की सिफ़तों में तमीज़ करें क्योंकि ऐसा होता है कि बा’ज़ ख़्वाहिश के पूरा करने से एक तरह की ख़ुशी या फ़ायदा ज़रूर हासिल होता है मसलन हुसूल माल की ख़्वाहिश ख़्वाह हम उस को चोरी करने से या बज़रीये मेहनत के पूरा करें ताहम माल दोनों तरह से वसूल होता है। और अब अगरचे चोर और मेहनत कश दोनों बराबर मालदार हो जाते हैं, मगर कौन कह सकता है कि दोनों की ख़ुशी बराबर है। अब फ़र्क़ ये है कि दोनों काम की सिफ़तें मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) हैं क्योंकि एक काम पाक है और दूसरा गुनाह है। हम अक्सर ये बात सुनते हैं कि कोई आदमी अफ़्सोस के साथ ये शिकायत करता है कि फ़ुलानी आफ़त मुझ पर इत्तिफ़ाक़िया आ पड़ी है लेकिन मुझको ये तसल्ली है कि मेरा कुछ क़सूर इस में नहीं है और कोई ये कहता है कि मुझ पर ये या वो आफ़त आ पड़ी है पर मुझे ज़्यादा अफ़्सोस इस बात से है कि मैं ने आप अपने गुनाह से ये आफ़त अपने ऊपर खींची है। पस मा’लूम हुआ कि घबराहट और ख़ौफ़ इन्सान को इस सबब से होता है कि वो अपने तईं सज़ा के लायक़ जानता है। और बर-ख़िलाफ़ इस के जो नेकी और मेहरबानी और मुहब्बत व खैरात करता है वो सलीम और ख़ुश रहता है। और यहां ये बात क़ाबिल नक़्ल करने के है कि उन लोगों में से जो मज़्हब ईस्वी को बरहक़ जानते हैं वो जो गुनेहगार हैं हमेशा की हलाकत से बहुत डरते हैं जिसके बा’इस वो बहुत रंज व घबराहट में रहते हैं लेकिन वो जो नेकोकार हैं हमेशा की ज़िंदगी और नजात के उम्मीदवार हो कर बहुत ख़ुश व खुर्रम रहते हैं। वो जो इस बात पर ज़्यादा सोचते हैं जानते हैं कि ये ख़ुशी या रंज क़ाएम रहता है। और कि कोई इस रंज और सलामती की हुदूद नहीं जानता है।

          एक और बात ये है कि ईमानदार और नेक-बख़्त आदमी आपस में एक दूसरे से उल्फ़त रखकर उन की मदद करते हैं और उन के वास्ते बहुत फ़ाइदेमंद है।

          और वो बदकारों से नाराज़ हो कर उन को डाँटते हैं जिसके बा’इस बदकार लोग बहुत नाख़ुश रहते हैं और गाहे (कभी) तक्लीफ़ में भी होते हैं।

          और अगरचे इन्सान अक्सर अपने या औरों के कामों में अख़्लाक़ की कुछ परवाह नहीं करते ताहम वो जिसको ईमानदार और नेक-बख़्त जानते हैं ज़रूर उस को इज़्ज़त देते और हत्ता-उल-इमकान उस की मदद करते हैं सिर्फ इस लिहाज़ से कि वो वफ़ादार है। और वो जो दियानतदार व मुंसिफ व ईमानदार और मुहबत्ती और अपने मुल्क के ख़ैर-ख़्वाह हैं फ़िल-हक़ीक़त अपने मुल्क के लोगों से आम इज़्ज़त और फ़ायदा पाते हैं। और कभी ऐसा होता है कि वो जो बेवफ़ा और ख़ताकार हैं अपने हम मुल्क लोगों से शर्म दिलाए जाते और जिलावतन किए जाते और मारे जाते हैं। मसलन ज़ुल्म के सबब से अक्सर लड़ाईयां और मुल्क की तब्दीलियां वक़ू’अ् में आती हैं क्योंकि आदमी ज़ुल्म या नुक़्सान उठा कर ज़रूर बदला लेने का इरादा रखते हैं। और नेकी व फ़ायदा पाकर शुक्रगुज़ार होते हैं। और उन से जो नेकी करने वाले हैं नेकी करनी चाहते हैं। और अलावा अज़ीं एक अहम बात जिसको बा’ज़ कम क़द्र समझे हैं देखते हैं कि ख़ानदानी हुकूमत में लड़कों को झूट और बेईमानी और बदकामों के बदले सज़ा और नेक कामों के एवज़ अज्र मिलता है और इसी तरह मुल्क में भी उन कामों का जो आम लोगों के नुक़्सान के बा’इस हैं ठीक बदला दिया जाता है जिससे साफ़ साबित है कि इन्सान अपने दिलों में नेकी को पसंद करते और बदी से नफ़रत रखते हैं और चूँकि इन्सान को ये लियाक़तें ख़ुदा ने अता की हैं पस वही इस तर्तीब से उन पर हुकूमत करता है। सो हम देखते हैं कि ख़ुदा इन्सानों का ठीक इन्साफ़ करेगा। क्योंकि उस ने अब ही उस का शुरू किया है।

          हम इन्कार नहीं करते हैं कि बाज़ औक़ात तक्लीफ़ और ख़ुशी ना सिर्फ नेकी या बदी के बदले में बल्कि और तर्तीब से भी दी जाती है क्योंकि कभी-कभी ख़ुदा हमारी तर्तीब के लिए हमको तक्लीफ़ या’नी बीमारी वग़ैरह देता है।

          और शायद ये सबसे अच्छा है कि जहां ऐसे आम क़वानीन के ज़रीये से हुक्म किया जाये और कि हमारी ख़ुशी और तक्लीफ़ एक दूसरे के इख़्तियार में हैं और जैसा हमने ऊपर बयान किया कभी ऐसा होता है कि इन क़वानीन और इख्तियारात से नेक लोगों को तक्लीफ़ मिलती है और बुरे आदमियों को कामयाबी हासिल होती है लेकिन इस से ख़ुदा की आवाज़ रुकी नहीं रहती है क्योंकि ये बात अक्सर नहीं होती है कि बुरे आदमी कामयाब हों और नेक आदमी परेशान। पस हम बयान मज़्कूर बाला से अपने ख़ालिक़ की मर्ज़ी पहचान सकते और मा’लूम करते हैं कि वो गुनाह के बर-ख़िलाफ़ और नेकी की तरफ है।

          और जिस क़द्र कि इन्सान नेक व ईमानदार व दियानतदार और मुहबत्ती है उसी कद्र वोह दुरुस्त और ख़ुदावन्द त’आला का ख़िदमतगुज़ार है जिसके बा’इस उस को क़ुव्वत और तसल्ली है और वो उम्मीद भी रखता है कि कुछ और अज्र भी पाएगा।

          पांचवें : ये उम्मीद ज़्यादा मज़्बूत होती जाती है इस सबब से कि कभी नेकी का बदला किसी की नादानी या किसी और की ख़ता से रोका जाता है और बा’ज़ वक़्त गुनेहगारों की सज़ा उन के बुरे मन्सूबों से रुक जाती है पस नेक लोग उम्मीद रखते हैं कि किसी वक़्त ये सब दुरुस्त और कामिल हो जाएगा और जिस मुल्क में नेकी जारी है वो मुल्क निहायत ज़ोर-आवर है और सब ताक़त अपने क़ब्ज़े में कर लेता है इसलिए कि उस में दानिश ताक़त पर ग़ालिब है। और नेकी की ताक़त इस तरह की तासीर करती है कि उस मुल्क का हर एक बाशिंदा नेकी को अपना फ़ायदा समझ कर बड़े ग़ौर और कोशिश से अपनी ख़बरदारी और हुक्मरानी करता और तदबीर निकालता है कि जिसके ज़रीये से वो क़ाएम हो वो और सर्फ़राज़ी पाए। और मुल्क के आदमी दियानतदारी व ईमानदारी के ज़रीये से मुत्तफ़िक़ होके मो’अतबर और ज़ोर आवरों हों और अगर ख़ैर ख़्वाही और मुल्क का प्यार उन में तासीर करे तो ठीक और अगर तासीर ना करे तो रहनुमा कुछ नहीं है।

          और अगर ख़ुदा की ये ज़ाहिरी दुनिया और उस की हुकूमत आइंदा हुकूमत की ठीक तश्बीह है या अगर ये दोनों एक ही बंदो-बस्त के हिस्से हैं जिनमें का एक हिस्सा हम देखते हैं और दूसरा आइंदा हुकूमत का हिस्सा उस के मुवाफ़िक़ है तो हम आसानी से ख़याल कर सकते हैं कि नेकी ज़रूर सब के ऊपर जो उस के बस में अब तक नहीं हैं ग़ालिब होगी जैसे कि अक़्ल तमाम हैवानी ताक़त पर ग़ालिब होती है। लेकिन नेकी के वास्ते फ़ुर्सत ज़रूर है और अगर वह फ़ुर्सत पाए तो बेशक ग़ालिब होगी क्यों कि हम देखते हैं कि साल बसाल वो फ़त्ह पाती है और अगर ज़िंदगी ज़्यादा होती और इल्म व अक़्ल की तरक़्क़ी होती तो और ज़्यादातर जल्दी नेकी तमाम दुनिया पर ग़लबा पाती। पस हम ख़याल करते हैं कि बाद इस के या’नी अबदियत में वो इन मज़्कूर फ़वाइद को पहुँचेगी और तब फ़ुर्सत पाकर सब पर ग़ालिब होगी और अपना ठीक बदला पाएगी।

          और अगर रूह ग़ैर-फ़ानी है और ये ज़िंदगी एक सीढ़ी है कि जिसके वसीले से हम एक उम्दा ज़िंदगी तक चढ़ जाएं जैसे कि बच्चे बढ़कर आदमियों में शामिल होते हैं तो शायद हम और उम्दा मख़्लूक़ के साथ शरीक हो कर एक बड़े और फ़त्ह मंद गिरोह बन जाऐंगे क्योंकि नेकी एक बंद है या’नी हर नेक मख़्लूक़ दूसरी नेक मख़्लूक़ को प्यार करती है और उस को अपना भाई जानती है और वो मुत्तफ़िक़ हो कर ज़्यादा मज़्बूत होती हैं।

          अगर हम इल्म इलाही में तरक़्क़ी पाते जैसा कि और इल्मों में पाते हैं तो शायद हम देख सकते कि नेकी अपने नमूने से और तरह से आइंदा में ग़ालिब होगी जैसा कि ऊपर बयान हुआ। ये एक बड़ी बात है लेकिन हम इस दुनिया का भेद जान नहीं सकते हैं तो इसी तरह हम ख़ुदा का आइंदा बंदो-बस्त दर्याफ़्त नहीं कर सकते हैं। लेकिन इन बातों को छोड़ कर हम इस मुक़ाम पर एक ख़याली बात को जिसका होना मुम्किन है और जिससे हम नेकी की तासीर मा’लूम कर सकते हैं मर्क़ूम करेंगे। मसलन ज़मीन पर एक बादशाहत बाशिर्कत ऐसी हो जो ज़मानों तक नेकी में कामिल हो और अगर चाहो तो वो बादशाहत ऐसी जगह पर हो जहां से तमाम दुनिया पर इख़्तियार रखे तो ऐसी हालत में किसी तरह तकरार मुम्किन नहीं है क्योंकि लोग बखु़शी इंतिज़ाम मुल्क हमेशा लायक़ आदमियों के हाथ में सौंप देंगे और वो इस इख़्तियार को आपस में बग़ैर हसद के तक़्सीम करेंगे हर एक उन में से वो काम करेगा जिसकी वो और दिन से ज़्यादा लियाक़तें रखता है। और वो जो लियाक़तें नहीं रखते अपने तईं लायक़ों के इख़्तियार में सलामत समझ कर ख़ुश होंगे। और सब के इरादे यकसाँ होंगे जिनको वो पूरा करेंगे हर एक अपनी लियाक़त के मुवाफ़िक़ आम कामयाबी की तरक़्क़ी करेगा हर एक अपनी नेकी का समरा (फल, नतीजा) पाएगा। और बेइंसाफ़ी उन के बीच में बिल्कुल ना होगी ना तो ज़बरदस्ती से और ना फ़रेब से। इसी तरह वो उस नुक़्स से जो औरों में राइज है परहेज़ करेंगे। और हर तरह का लालच व ज़िद व बग़ावत और झगड़ा लड़कों के से खेल समझे जाएंगे और उन की एवज़ (बदले) में दानिशमंदी व यगानगत व हब्ब-उल-वतनी व ईमानदारी और मिलाप जारी रहेंगे। अब ख़याल करो कि ऐसी बादशाहत की तासीर और मुल्कों पर कैसी बड़ी होगी और और बादशाहतें उस की कैसी ता’ज़ीम व तकरीम करेंगी। वो बेशक सब बादशाहतें से अच्छी होगी जिस सबब से वो सब उस के नीचे मग़्लूब होंगी। और वो बादशाहत तमाम दुनिया के ऊपर होगी ना कि जबरन बल्कि सब मुल्क अपनी हिफ़ाज़त के वास्ते अपने तईं उस के इक़्तिदार में सौंप देंगे और उस का बादशाह तमाम दुनिया का बादशाह होगा और पाक नविश्ते की बात पूरी होगी कि सारे मुल़्क उस की ख़िदमत करेंगे। और अब मज़्हब ईस्वी के इंतिज़ाम पर ख़याल करो कि दुनिया की हुकूमत यकसाँ है और नेकी और हक़ ज़ोर पकड़ेंगे और वो फ़रेब व ज़बरदस्ती और गुनाह पर ख़ुदा ही की मा’रिफ़त जो अकेला मालिक है ग़ालिब होंगे। और हमारी अक़्ल इस बंदो-बस्त के हर एक हिस्से में तर्तीब व ता’ल्लुक़ देखती और कहती है कि नेकी इस तरह से जैसा ऊपर बयान हुआ ग़ालिब होगी। और अगर कोई इस बात को ख़याली जानता हो तो मैं अर्ज़ करता हूँ कि वो ख़याल करे कि अगर गुनाह की सिफ़त ऐसी होती जैसी हमने नेकी की बताई तो दुनिया का क्या हाल होता। और अब इन मज़्कूर बाला बातों से कई नतीजे निकलते हैं।

          अव़्वल : कि ख़ुदा नेकी व बदी की बाबत बे-परवाह नहीं है बल्कि वो नेकी की तरफ़ और बदी के बर-ख़िलाफ़ है। सो अगर कोई इन्सान मज़्हब का इन्कार करे और ख़ल्क़त के तरीक़ों को दर्याफ़्त करे तो वो मा’लूम करेगा कि आइंदा में नेकों की हालत बनिस्बत बदों के अच्छी होगी। पस साबित है कि मख़्लूक़ात के तरीक़ों से ईस्वी मज़्हब के फ़राइज़ हमारे ऊपर वाजिब हैं।

          दोम : जब कि इंजीली मज़्हब के मुवाफ़िक़ अयाँ है कि ख़ुदा सादिक़ों को अज्र और जज़ा और नालायक़ों को सज़ा देगा और हर नफ़्स अपने फ़े’लों (आमाल) का वाजिबी बदला पाएगा तो ऐसा इन्साफ़ बज़ातेहा उस के मुवाफ़िक़ होगा जिसको हम दुनिया में शुरू किया हुआ देखते हैं। और वो इस इन्साफ़ का कामिल ख़ातिमा होगा।

          सोम : हम ख़ुदा की हुकूमत में देखते हैं कि ख़ुशी व तकलीफ़ कामिल तौर से नहीं दी जातीं इस जिहत से हम सोचते और यक़ीन करते हैं कि आइंदा में कामिल ख़ुशी और पूरी सज़ा हर मुतनफ़्फ़िस को बमूजब उस के अफ़’आल नेक या बद के ज़रूर दी जाएगी।



चौथा बाब

हाल की आज़माईश के बाबत कि उस में
इम्तिहान व ख़तरे और मुश्किलात हैं

          मज़्हब की ये आम ता’लीम है कि हाल की ज़िंदगी एक हालत-ए-आज़माईश है ताकि उस से मा’लूम हो कि आया हम आइंदा ज़िंदगी के वास्ते तैयार हैं या नहीं और इस ता’लीम मज़्कूर के मुत’अल्लिक़ कई एक बातें हैं लेकिन इस ता’लीम के साफ़ और अव़्वल म’अनी ये हैं कि हमारा आइंदा का फ़ायदा हमारे अब के कामों पर मौक़ूफ़ है कि हमको नेकी करने के वास्ते लियाक़त व फ़रसर मिलती है जिसके सबब हम आगे को अज्र पाएँगे। पस या तो हम बदी कर सकते हैं जिसके वास्ते आइंदा में सज़ा पाएँगे या नेकी कर सकते हैं। जिसके एवज़ (बदले) जज़ा को पहुँचेंगे। और ये बात उस के मुताबिक़ है जो तीसरे बाब में मज़्कूर हुई कि हम ख़ालिक़ की हुकूमत के तख़्त में हैं और अपने जमी’अ् अफ़’आल का हिसाब उस को देंगे और आइंदा के हिसाब और वाजिबी इन्साफ़ के मुवाफ़िक़ सज़ा व जज़ा दिए जाने से साबित होता है कि हम बदी करने की ताक़त रखते और वरग़लाए जाते हैं वर्ना बदी करना ग़ैर-मुम्किन होता और सज़ा व जज़ा का मिलता भी एक बेवक़ूफ़ी बल्कि अनहोनी बात ठहरती। पस हम इस हाल की आज़माईश पर जिसमें ख़ुसूसुन इम्तिहान व मुश्किलात व ख़तरे पाए जाते हैं ग़ौर करेंगे।

          चूँकि ख़ुदा की हुकूमत से जिसका बयान मज़्हब ईस्वी में पाया जाता है ये मुराद है कि हम आइंदा दुनिया के मुक़द्दमात के वास्ते इम्तिहान में हैं वैसा ही उस की ये मुराद है कि हमारी आज़माईशें इस दुनिया के वास्ते हो रही है। हुकूमत जो कि सज़ा और जज़ा के ज़रीये से की जाती है आज़माईश को ज़रूर ज़ाहिर करती है। और ख़ुदा की हुकूमत के ये म’अनी हैं कि ख़ुदा ठहराता है कि बा’ज़ काम का नतीजा ख़ुशी और बा’ज़ का दर्द और तक्लीफ़ है और वह हमको आगे से आगाह करता है कि हमारे कामों के नतीजे कैसे होंगे और हमको ताक़त भी बख़्शता है कि बुरे कामों से जिनका नतीजा बुरा है बाज़ रहें और उन कामों को जिन का नतीजा अच्छा है किया करें तो साबित हुआ कि उस ने हमारा फ़ायदा और नेक-बख़्ती हमारे कामों पर मौक़ूफ़ रखी है। और जब कि इन्सान किसी काम के करने का शौक़ रखता हो और उस काम का नतीजा बुरा है तब वो अपना नुक़्सान करने के ख़तरे में हैं या’नी वो उस काम की बाबत इम्तिहान में हैं। आदमी कभी आप पर और कभी औरों पर अपनी भूल चूक और नुक़्सान का ऐब लगाते हैं। और हम अक्सर देखते हैं कि इन्सान अपना नुक़्सान आप करते और इस ख़ुशी से जो वो पा सकते हैं क़ासिर रहते हैं। और बहुत से आदमी ख़ासकर अपने क़ुसूरों के सबब से अपने तईं (आपको) दुख और तक्लीफ़ और मुसीबत में डालते हैं। सो वो बातें ज़रूर इम्तिहान और ख़तरे ज़ाहिर करती हैं। और हर एक शख़्स ख़्वाह वो मज़्हब पर यक़ीन करता है या नहीं तो भी हमेशा ख़याल करता है कि जवान आदमी जब कोई काम शुरू करते हैं तो ज़रूर ख़तरे और अंदेशे में पड़ते हैं कि शायद उस में कामयाब हों या ना हों और ये ख़तरे ना सिर्फ लड़कों की नादानी से होती हैं बल्कि इस के और भी सबब हैं। और जब हम उन बुरे कामों का जिनसे हमारा नुक़्सान होता है शौक़ रखते हैं तो ये शौक़ एक तरह की आज़माईश है जो कि अगर पूरी हो तो हम अपना हाल और आइंदा की ख़ुशी खो देते हैं।

          पस साबित है कि जैसे हम क़ियामत की बाबत इम्तिहान व मुश्किलात और ख़तरे में हैं इसी तरह दुनिया की बाबत भी हैं। और ये बात ज़्यादा साबित होगी अगर हम ख़याल करें कि (रुहानी और जिस्मानी) आज़माईशों में क्या फ़र्क़ है और इन्सान इन दोनों तरह की आज़माईशों में कैसे चलते हैं, और वो बात जिससे हमारी आज़माईश इन दोनों हालतों में ज़ोर पकडती है या तो हमारी ख़ासियत में या हमारी कैफ़ियत में पाई जाती है। क्योंकि अक्सर ऐसा वाक़े’अ् होता है कि वो आदमी जिनके चाल व चलन दुरुस्त हैं और जो कि औसत दर्जे की आज़माईशों में बेक़सूर ठहरते हैं इत्तिफ़ाक़न बड़ी आज़माईश में पड़ कर या सख़्त वरग़लाए जाकर गुनाह करते हैं और तब और आदमी ऐसों की ख़ताओं की बाबत ये कहते हैं कि उन्हों ने आज़माईश के सबब से या अपने हाल के ज़रीये से किया है। और बर-ख़िलाफ़ इस के बहुत से आदमी जिन्हों ने बुरी आदतें सीखी हैं जिनके सबब से उन की बुरी ख़्वाहिशें ज़ोर-आवर हो गई हैं वो जब गुनाह करें तब कोई उन के बुरे कामों के वास्ते एतराज़ में ये ना कहेगा कि वो अपनी कैफ़ियत के सबब से क़सूर में मुब्तला हुए बल्कि हर एक कहेगा कि वो अपनी बुरी ख़्वाहिशों की आदत के सबब से गुनाह करते हैं।

          और इस साबिक़-उल-ज़िक्र बात का बयान ये है कि जैसा इन्सान बुरी आदतों और ख़्वाहिशों के सबब अपना दुनियावी नुक़्सान करता है वैसा ही अपनी बुरी ख़्वाहिशों के पूरा करने से वो नेकी और दीनदारी के बर-ख़िलाफ़ हो कर अपना रुहानी नुक़्सान करता है। फिर जब हम कहें कि हम बाहरी कैफ़ियत के ज़रीये से इम्तिहान में पड़ते हैं तो साबित है कि हम में कोई क़ल्बी ख़्वाहिश है जो उन बाहरी कैफ़ियत में बद तमीज़ करके उन के साथ हमारे गुनाह में मुब्तला होने का सबब होती है। और जब हम कहें कि हम बुरे काम करने से गुनेहगार होते हैं तो साबित है कि हमारे दिल के बाहर कोई चीज़ है कि जिससे हमारी बुरी ख़्वाहिश पूरी होती है पस साफ़ साबित है कि बैरूनी और अंदरूनी आज़माईशें यकसाँ हैं और एक दूसरे को साबित करती हैं।

          अब इस दुनिया में वो सब चीज़ें मौजूद हैं कि जिनको हमारी रग़बत व शहवत और मुहब्बत पसंद करती हैं और कभी हम ऐसी चीज़ें नेक तरह से और बग़ैर गुनाह करने के हासिल कर सकते हैं और कभी उन के हासिल करने में गुनाह होता है। और जब हम इस में गुनाह करें तो हम अपना जिस्मानी और रुहानी नुक़्सान करते हैं। पस साबित है कि हम अपनी शहवतों के ज़रीये से दुनिया की और इन्साफ़ के दिन की बाबत आज़माईश पर हैं। और आज़माईश ये है कि क्या हम अपनी अब की ज़रा सी ख़ुशी हासिल करने के वास्ते अपना दुनियावी फ़ायदा खोएंगे या नहीं अगर हम दूर-अंदेशी करें तो हम ज़रूर अपनी ज़रा सी ख़ुशी और आराम को नाचीज़ समझेंगे ताकि अपना फ़ायदा हासिल करें। और ये हमारे रुहानी हाल की ठीक मिसाल है क्योंकि जो कुछ मज़्हब के मुताबिक़ नेकी है अगर हम उस को किया करें तो अपना हमेशा का फ़ायदा हासिल करते हैं। और हम देखते हैं कि जिस तरह इन्सान दुनियावी आज़माईश में पड़के अपना दुनियावी नुक़्सान करते हैं वैसे ही रुहानी आज़माईश में हो कर अपना हमेशा का नुक़्सान करते हैं। पस साफ़ साबित है कि हमारी जिस्मानी मुश्किलात व ख़तरे और आज़माईशें हमारी रुहानी मुश्किलात व ख़तरे और आज़माईशों की ठीक और सहीह तश्बिहें (मिसालें) हैं।

          इस के सिवा ये बात भी है कि हम मज़्हब के तरीक़ों में से अक्सर औरों के बद (बुरे) कामों के ज़रीये या बुरी ता’लीम से या बद नमूनों से और बुरे दस्तूरों से और कभी अहले मज़्हब के वसवास (वास्वसों) से बहकाए जाते हैं। इसी तरह बमूजब इस मिसाल के हम अपनी दुनियादारी की दूर-अंदेशी की राह में से बुरी ता’लीम से और जब जवान होते तो औरों की बद-परहेज़ी और ग़फ़लत के सबब से भटक जाते और इस दुनिया की खूबियों से महरूम रहते हैं। और हम अपनी ग़फ़लत व बेवकूफ़ी से अपने तईं (अपने आपको) ख़तरे और नुक़्सान के दरिया में यहां तक डुबो देते हैं कि आगे को नहीँ मा’लूम कर सकते हैं कि फ़र्ज़ की राह कौनसी है। पस हम देखते हैं कि हम दुनिया की आज़माईश पर हैं और इसी तरह हम रुहानी आज़माईश पर भी रहते हैं।

          और एक बात ये है कि हम मख़्लूक़ात में छोटे दर्जे पर हैं और अक़्ल व अख्लाक में फ़रिश्तों और करूबियों से कमज़ोर हैं और अपना दुनियावी और आक़िबत (आखिरत) का फ़ायदा और आराम ठीक नहीं समझते हैं। लेकिन इस सबब से हम उज़्र (बहाना) नहीं कर सकते हैं क्योंकि हमारे फ़राइज़ हमारी अक़्ल व ताक़त से बाहर नहीं हैं। पस हम अपने ख़ालिक़ से नाराज़ नहीं हो सकते हैं और हमने इस बाब में साबित किया सो ये है कि वो हाल की आज़माईश जो मज़्हब ईस्वी में मुबय्यन है ठीक-ठीक हमारे दुनियावी इम्तहानों के मुवाफ़िक़ है क्योंकि हम बहुत मेहनत और परहेज़गारी और तक्लीफ़ व ख़तरे से दुनियावी फ़ायदा और खूबियों को हासिल करते हैं। पस अग़्लब (मुम्किन) है कि हमारी रुहानी आज़माईशें और तकलीफ़ें और मेहनतें हमारी आइंदा की खूबियों के हासिल करने के वास्ते मुक़र्रर हैं।



पांचवां बाब

ये हाल की आज़माईश हमारी तर्बियत और
तरक़्क़ी का बा’इस है

          जब हम अपने तईं (अपने आपको) इस हाल की आज़माईश में देखते हैं जिसमें इस क़द्र बहुत से ख़तरे व मुश्किलात और आज़माईशें भी हैं तब ये सवाल ज़रूर दिल में आता है कि किस सबब से हम इस हाल में रखे गए हैं। लेकिन ऐसे सवाल का जवाब देना निहायत मुश्किल बल्कि ग़ैर-मुम्किन है। अगरचे हम ख़याल करें कि गुनाह एक ख़ुशी की बात है या’नी हम मज्बूर होने से गुनाह नहीं करते हैं। और बहुत सी मुश्किलात हैं कि जिनसे अच्छा नतीजा निकलता है मगर तो भी हम सबब नहीं बतला सकते हैं कि क्यों इस हाल इम्तिहान में हैं। और हम नहीं जान सकते हैं कि इस सवाल मज़्कूर के जवाब से हमको कुछ फ़ायदा मिल सकता है या नहीं। और जैसा हमारे हाल और ख़ुदा की हुकूमत में मुवाफ़िक़त है वैसा ही ईस्वी मज़्हब में सिखलाया गया है कि हम इस हाल इम्तिहान में इस वास्ते रखे गए हैं कि हम अपने तईं (अपने आपको) नेकी करने से एक आने वाले हाल के लिए तैयार करें। और अगरचे ये बात भी इस सवाल का पूरा जवाब नहीं है तो भी वो एक और सवाल का जवाब है या’नी हमारा यहां का या’नी इस दुनिया का क्या काम है। पस हम इस तक्लीफ़ व ख़तरे की हालत में इस वास्ते रखे गए हैं ताकि हम नेकी व दीनदारी में तरक़्क़ी पाकर एक सलामती और ख़ुशी की जगह के वास्ते हो तैयार जाएं।

          और जिस तरह हम अपने बचपन और नौजवानी में अय्याम बुलूग़त (जवानी के दिनों) के कामों और दस्तूरों के वास्ते तैयार किए जाते हैं वैसे ही अग़्लब (मुम्किन) है कि हम इस दुनिया में एक और हाल के वास्ते बन जाएं और ज़ेल की तश्बीहों से मा’लूम होगा कि अब की ज़िंदगी के हाल इम्तिहान एक और ज़िंदगी के लिए हैं।

          पहले : हम देखते हैं कि हर एक जानदार किसी ख़ास तरह की ज़िंदगी के वास्ते बनाया गया और हर एक जानदार की ज़ात व लियाक़त और मिज़ाज वग़ैरह वैसे ही दरकार हैं जैसे उन के बाहर का हाल उन के वास्ते दरकार है। पस अंदरूनी ज़ात और बाहरी हाल ज़रूर उन की ज़िंदगी के हिस्से हैं।

          और हम ख़याल कर सकते हैं कि इन्सान की ख़ासियत या लियाक़तें यहां तक बदल सकती हैं कि वो इस जहान के तरीक़ों से बिल्कुल नामुताबिक़ हों। गोया कि उस के वास्ते यहां कुछ काम ही नहीं या उस के इशतिहा (भूक, ख़्वाहिश) और ख़्वाहिश और मुहब्बत के पूरा होने के वास्ते इस दुनिया में कुछ चीज़ ही नहीं है। लेकिन हाल ये है कि हमारी ख़ासियत और बाहरी हाल में मुवाफ़िक़त है। और अगर ऐसी मुवाफ़िक़त ना होती तो इन्सान का ख़ुश होना अनहोनी बात होती क्योंकि हमारी ख़ुशी हमारी ख़ासियत और हाल की मुवाफ़िक़त से निकलती है। पस हम नहीं कहते हैं कि आइंदा ज़िंदगी में कौनसा काम या ख़ुशी होगी। लेकिन हम कह सकते हैं कि जैसा इस दुनिया की खूबियों से ख़ुशी पाने के वास्ते कुछ तैयारी ज़रूर है वैसी ही आने वाली ख़ुशी पाने के वास्ते कुछ तैयारी या’नी मुवाफ़िक़ ख़ासियत रखने की ज़रूरत मा’लूम पड़ती है।

          दूसरे : इन्सान की ख़ासियत और दीगर हैवानात की ज़ात भी ऐसी है कि वो तर्बियत पाकर ज़िंदगी की उन हालतों के वास्ते तैयार और लायक़ हो सकते हैं कि जिनके वास्ते वो पेश्तर बिल्कुल नाक़ाबिल और ना-मुवाफ़िक़ थे। हम इल्म और सच्चाई को ना सिर्फ पहचान सकते और हासिल कर सकते हैं बल्कि उन को याद में रखने की ताक़त व लियाक़त रखते हैं।

          हम काम करने के ज़रीये से ना सिर्फ ख़ुशी की नई तासीर पा सकते हैं बल्कि हम काम करने के लिए लियाक़तें और नया मिज़ाज और आदतें हासिल कर सकते और उन में तरक़्क़ी पा सकते हैं। और तफ़्तीश व मुबाहसा और याद करने की ताक़त और लियाक़त कि जिनसे हम इल्म को हासिल करते हैं काम में लाने से बहुत मज़्बूत होते जाते हैं। हाँ मुकर्म (बार बार) हम कहते हैं कि इन्सान में दर्याफ़्त व मुबाहसा और याद करने की ताक़त व लियाक़त मश्क़ करने से ज़ोर पकडती है

          दर्याफ़्त करने और काम करने की आदतें हैं। दर्याफ़्त करने की आदत इन तश्बीहों से मा’लूम होंगी। मसलन हम किसी चीज़ के डील बॉक्स मुसाफ़त के पहचानने में बेशतर भूल और सहू करते हैं और दफ़’अतन नापने और देखने से हम चीज़ों के डील और दूरी की पहचान में होशियार हो सकते हैं। और कोशिश करने से हम ऐसी आदतें पाते हैं कि हम लफ़्ज़ों के देखने और सुनने से ज़बानों के सीखने में बहुत होशियार हो जाते हैं। और बहुत लिखने और पढ़ने और बोलने से हम नविश्ता ख़वांद और गुफ़्तगु में निहायत मश्शाक़ी (माहिर) हो जाते हैं।

          और बदन और क़ल्ब (दिल) की भी आदतें हैं मसलन कोशिश करने से आदमी बहुत ता’ज़ीम पा जाता है और जो कोई सच बोलने की मश्क़ करता तो वो सच बोलने का आदी हो जाता है। अच्छी आदतें यही हैं और बुरी आदतें भी हैं और वो बढ़ जाती और कामिल भी हो जाती हैं और हम नहीं कह सकते कि वो कहाँ तक कामिल हो सकती हैं। पस हम देखते हैं कि जब हम किसी तरीक़े पर देर तक चलते तो हम इस पर आसानी से और कभी बहुत ख़ुशी से भी चल सकते हैं। हमारी तबी’अत इस तरीक़े को क़ुबूल करती और जो मुश्किलात उस में मा’लूम पड़ती थीं वो जाती रहती हैं बल्कि ऐसा मा’लूम होता है कि वो सिर्फ़ ख़याल में रहती थीं। और हमारे इरादे वग़ैरह रोज़ बरोज़ ज़ोर पकड़ते हैं और रफ़्ता-रफ़्ता गोया कि हम बिल्कुल नई तबी’अत और ख़ासियत रखते हैं। और जो बात कि पेश्तर ख़ासियत में ना थी वो आदतों में शामिल होके गोया कि ख़ासियत में भी शामिल हो जाती है।

          तीसरे : हम जानते हैं कि अगर आदत डालने की ताक़त कि जिनके ज़रीये से हम इल्म व हुनर वग़ैरह में तरक़्क़ी पाते रहते हैं हमको दरकार व ज़रूर ना होतीं तो वो हमको इनायत ना होतीं। चुनान्चे हम देखते हैं कि अगर आदत डालने की ताक़त और लियाक़त हमको ना दी जाती तो हम किसी तरह अपने दुनियावी काम के वास्ते लायक़ और तैयार ना हो सकते।

          हम अपनी ख़ासियत से अपने काम के वास्ते ना तो बिल्कुल और ना एक दम से तैयार हैं। हमारी बदी की ताक़त और फ़हम की लियाक़त इस्तिमाल की रू से रफ़्ता-रफ़्ता बढ़कर आख़िर कामिल हो जाती है। अगर कोई शख़्स इस दुनिया में जवान और बदन की ताक़त और फ़हम की लियाक़त में कामिल होके पैदा भी हो सकता तो भी वो एक पागल आदमी की मिस्ल काम करने में हैरान और ना तैयार होता। और हम ना जान सकते कि किस क़द्र अर्से बाद वो अपने काम और हाल से वाक़िफ़ होता और अपने मामूली काम करने लगता। और हम शक भी करते कि क्या उस की आँख और फ़हम तजुर्बे कारी पाने और आदत डालने के पेश्तर काम में आतीं या नहीं। और अगर वो तजुर्बे कारी जो हम सीख सकते हैं उस में ना होती तो वो आदमी क़ाबिल मुलाक़ात ना होता जैसा कि गूँगा आदमी होता है।

          पस साबित है कि इन्सान ख़ासियत से ना-कामिल और नाक़िस मख़्लूक़ है और जब तक कि वो इल्म और तजुर्बे कारी और आदत हासिल ना करे तब तक अपनी ज़िंदगी का काम नहीं कर सकता और इस मक़्सद को जिसके वास्ते वो पैदा हुआ था पूरा नहीं कर सकता है और जैसा हम ख़ासियत से इल्म व तजुर्बा और आदतें हासिल करने की लियाक़तें रखते हैं वैसी ही हम इस हाल में रखे गए हैं कि जिसमें दर्जात मज़्कूर ज़रूर हैं और जिन्हें हम हासिल कर सकते हैं। मसलन इतफ़ाल अपनी पैदाइश से रोज़ बरोज़ उन चीज़ों और हालात से जिनमें वो जवान होके मशग़ूल होंगे ज़्यादा वाक़िफ़ होते जाते हैं और अपने आइंदा कामों के वास्ते तैयार हो जाते हैं। और अगर हम लड़कपन में इल्म व आदात और तजुर्बे कारी हासिल ना करें तो आगे को हमारा नुक़्सान है। पस हमारी ज़िंदगी की पहली औक़ात एक हालत है कि हम कामिल आदमी होने के वास्ते तैयार हों। वैसे ही ग़ालिब है कि ख़ुदा ने इस दुनिया को हमारे लिए हाल इम्तिहान मुक़र्रर किया है ताकि हम सीख के आने वाली ज़िंदगी के वास्ते या’नी आस्मान के लिए तैयार जाएं।

          चौथे : जब हम ऐसे ख़याल करें और फिर याद में लाएं कि आइंदा ख़ुशी करने के वास्ते नेकी और दीनदारी हमारी तबी’अत में ज़रूर हैं तब हमें साफ़ मा’लूम है कि इम्तिहान हाल किस तरह से हमको उस आने वाली ख़ुशी के लिए तैयार कराना है क्योंकि हम नेकी और दीनदारी में तरक़्क़ी चाहते हैं और हम अच्छी अच्छी व नई आदतों के डालने से नेकी और दीनदारी में ज़रूर तरक़्क़ी पा सकते हैं। और हाल की ज़िंदगी लायक़ है कि आने वाली ज़िंदगी के लिए हाल इम्तिहान और तैयारी हो जैसे कि बचपन और लड़कपन आलम जवानी के वास्ते हाल इम्तिहान और हाल तैयारी है। और अब के हाल में हम कोई बात ऐसी नहीं देखते हैं कि जिससे ये ख़याल ग़ालिब हो सके कि लोग अलग-अलग बेकार रहेंगे बल्कि बहुत सी तश्बीहें (मिसालें) हैं कि जिनसे हम सोचें कि जैसा किताब-ए-मुक़द्दस में लिखा है कि वहां जम’ईय्यत होगी। और कोई तश्बीह (मिसाल) ऐसी नहीं है कि जिससे ये ज़ाहिर हो कि अग़्लब (मुम्किन) है कि आइंदा हालत की जमा’अत जैसी नविश्तों में बयान है ख़ुदा की ख़ास हुकूमत के नीचे ना होगी। और अगरचे हम नहीं जानते कि हम अपनी नेकी और ईमानदारी और मुहब्बत के इस्तिमाल करने के वास्ते कौनसी फ़ुर्सतें पाएँगे तो भी हमारी इस बात की ना वाक़फ़ियत साबित नहीं करती कि फ़ुर्सत हमको ना मिलेगी। और हमारी ना वाक़फ़ियत साबित नहीं करती कि वो आदतें और खासियतें जो इस दुनिया के काम में बन जाती हैं आस्मान में काम ना आयेंगी । और ये भी इक़रार करना चाहिए कि ख़ुदा की हुकूमत है और इस सबब से उस के शरीकों के वास्ते एक नेक और दीनदारी की ख़ासियत ज़रूर है।

          मज़्कूर बाला के बयान से साबित है कि हम तर्बियत में तरक़्क़ी पा सकते हैं। और इस की ज़रूरत से कोई भी जो इस दुनिया की बदी से वाक़िफ़ है इन्कार ना करेगा चुनान्चे वो जो सबसे अच्छे हैं उस की ज़रूरत को कुछ मा’लूम करते हैं। इन्सान अपनी ख़ासियत से गुनेहगार होने के ख़तरे में हैं और अग़्लब (मुम्किन) है कि वो अगर अच्छी आदतें हासिल ना करें तो ज़रूर गुनाह करेंगे। अगर हमारी ख़्वाहिश और प्यार बुराई पर लगें और अहकाम और अच्छी आदतों पर रुजू ना करें तो हम ज़रूर गुनाह करेंगे। लेकिन जब हमारी ख़्वाहिश और प्यार वग़ैरह अहकाम में तर्बियत पाएं और हम अच्छी आदतें डालें तो हम बहुत ख़तरे में नहीं हैं। बल्कि आज़माईश का मुक़ाबला करने में क़ाएम और रोज़ बरोज़ ज्यादा मज़्बूत होंगे जैसे कि वो जो बुरे काम करने की आदतें डालते हैं। रोज़ बरोज़ ज़्यादा कमज़ोर हो जाती हैं क्योंकि अगर हम तीन चार दफ़ा’अ् नेकी करें तो नेकी करने की आदतें मज़्बूत होती जाती हैं अगर हम तीन चार दफ़ा’अ् गुनाह करें तो गुनाह करने की आदत ज़ोर पकडती है। सो अगर हम ज़रूर हुकूमत के मातहत हैं तो हम नेकी की आदतों से नेकी और दीनदारी में तरक़्क़ी पाकर ख़ुशी में भी तरक़्क़ी पाते रहेंगे। और जब हम ख़याल करें कि इन्सान ने अपनी बद-फ़े’ली (बुरे काम) से अपनी ख़ासियत को बिल्कुल बिगाड़ा है और अपनी पहली असली नेकी से बिल्कुल सरकशी की है तो हम देखते हैं कि उन के वास्ते एक हाल इम्तिहान या कोई और तरह की तज्वीज़ ज़रूर है, कि जिसके ज़रीये से वो आस्मान के अख़्लाक़ और नेकी के वास्ते हो जाएं।

          जब कि सादिक़ लोगों को सदाक़त में तरक़्क़ी करनी चाहिए तो कितना ज़्यादा बुरे लोगों को बुराई और बुरी तबी’अत से नजात पाना और नई पैदाइश हासिल करना चाहिए। सादिक़ लोगों को हाल इम्तिहान में हर तरह की नेक ता’लीम और तर्बियत ज़रूर है तो फ़िल-हक़ीक़त बुरे लोगों को ज़्यादा तर तर्बियत और ता’लीम लाज़िम व ज़रूर है ताकि वो अच्छी आदतें डालें और अपनी पहली और असली ताक़त हासिल करके अपने तईं (अपने आपको) बुरे कामों से बचा कर नेकी और दीनदारी की क़ाएम हालत को पहुँचें। और अब जो कोई बग़ौर ख़याल करेगा उस के दिल में कामिल यक़ीन होगा कि ये दुनिया एक ऐसा हाल इम्तिहान है कि जिसमें ऐसे इन्सान नेकी में बहुत अच्छी तरह ता’लीम व तर्बियत पा सकते और इस में तरक़्क़ी भी कर सकते हैं।

          चुनान्चे हमारे चारों तरफ़ आज़माईशें हैं। तमाम गुनेहगारों में फ़रेब व बेरहमी व खूनरेज़ि वग़ैरह होती हैं और उन गुनाहों के सबब से बहुत सी बे-तर्तीबियाँ और तकलीफ़ें और रंज और दुख वग़ैरह सभों के ऊपर आती हैं। ये सब बातें हमारी तर्बियत के लिए हैं। क्योंकि जब हम देखते हैं कि ख़ुदा गुनेहगारों को इस क़द्र दुख और नेकोकारों को इस क़द्र ख़ुशी और शादमानी दे सकता है तो हम ज़रूर नेकी को पसंद करेंगे और बदी से मुतनफ़्फ़िर (नफरत करने वाले) होंगे। और अगर हम अच्छी आदतें डालें तो हम अपने तईं (अपने आपको) ख़तरे से बचाकर ख़ुशी हासिल करने के क़ाबिल कर सकते हैं। इसलिए कि अच्छी आदतें डाल के हम आज़माईशों पर ग़ालिब होंगे सिर्फ नेकी और दीनदारी के काम करेंगे। और जब हम इस तरह से इस दुनिया में ख़ुश हो सकते हैं तो ज़रूर अगर आस्मान एक पाक जगह है और उस में हुकूमत जारी है या’नी अगर नेक और पाक लोग ख़ुश हो सकते हैं तो हम इस दुनिया में पाकीज़गी और नेकी रख के आस्मान के लिए तैयार होते हैं।



छटा बाब

तक़्दीर की ता’लीम से हमारे कामों पर कौनसी
तासीर होती है

          पहले बाबों में मज़्कूर हुआ कि ख़ुदा की हुकूमत जो मख़्लूक़ात में ज़ाहिर है उस की दीनी और आइंदा हुकूमत की ठीक तश्बीह (मिसाल) है। अगर कोई कहे जैसा कि तक़्दीर के मानने वाले ज़रूर कहते हैं कि मख़्लूक़ात के तरीक़ों से तक़्दीर मा’लूम होती है तो उस को ज़रूर इक़रार करना पड़ेगा कि ख़ुदा की दीनी और आइंदा हुकूमत में और उन के सबूत में भी तक़्दीर है। पस हमारा ये दा’वा है कि अगर मख़्लूक़ात के तरीक़ों में तक़्दीर ज़ाहिर है तो वो ज़रूर मज़्हब में भी शामिल होगी। और कोई शख़्स तक़्दीर के ज़रीये से साबित नहीं कर सकता कि मज़्हब नहीं है। क्योंकि उस के मुज़ख़रफ़ात (झूटी बातें) आसानी से ज़ाहिर होगी और आसानी से बातिल हो जाएगी। हमने शुरू से क़ुबूल किया गोया कि साबित किया कि दुनिया का एक ही आक़िल ख़ालिक़ व मालिक है। लेकिन इस ता’लीम के बर-ख़िलाफ़ तक़्दीर की ता’लीम एक एतराज़ हो सकती है। इसलिए कि अगर तक़्दीर हो तो वो सब चीज़ों के वजूद मज़्बूत होने का मूजिब हो सकती है तो ज़रूर है कि एतराज़ को रद्द करें। और पहले हम बताएँगे कि कोई ऐसी तक़्दीर कि जिससे एक आक़िल ख़ालिक़ व मालिक के वजूद का होना रद्द हो हमारी तजुर्बे कारी में मा’लूम नहीं होती है। और तब हम साबित करेंगे कि कोई ऐसी तक़्दीर नहीं हो सकती है जिससे मुद्दलल हो कि हाकिम नहीं है या कि हम मज़्हब के हाल या’नी हाल इम्तिहान में हैं।

          जब कोई तक़्दीर का मुक़िर (इक़रार करने वाला) कहे कि मख़्लूक़ात के सब तरीक़े और आदमियों के तमाम काम और और सब कुछ और कुल अश्या की तमाम हालत बिल-ज़रूर शुरू से ठहराई गई और किसी और तरह से नहीं हो सकती थी। तब मा’लूम हो कि इस तरह की तक़्दीर के ज़रीये से ना ख़याल करने ना तमीज़ करने ना पसंद करने की ताक़त मौक़ूफ़ होती है। और ना इन्सान उस के सबब से रोके जाते हैं बल्कि वो अपना काम अपने इरादे और मक़्सद के मुताबिक़ कर सकते हैं क्योंकि हम हर वक़्त ये हाल देखते और मा’लूम करते हैं कि उन बातों में तक़्दीर नहीं होती है। पस साबित है कि तक़्दीर आप मख़्लूक़ात के वजूद और क़ाएम होने का सबब नहीं हो सकती। और उस की बाबत सिर्फ यही बात कही जा सकती है कि उस ज़रीये से मख़्लूक़ात के तरीक़े और किसी तरह से नहीं हो सकते थे।

          अगर दर्याफ़्त किया जाये कि क्या मख़्लूक़ात का कोई आलिम ख़ालिक़ है या नहीं और इस के जवाब में कोई कहे कि सब चीज़ें तक़्दीर के मुताबिक़ हैं तो ये इस सवाल का जवाब नहीं हुआ बल्कि इस सवाल का जवाब होगा कि क्या सब चीज़ें तक़्दीर के मुताबिक़ हैं या आज़ादगी के तरीक़ों पर हैं। अगर एक तक़्दीर का मानने वाला और एक ख़ुद-मुख्तारी का मुक़िर (इक़रारी) दोनों इत्तिफ़ाक़न एक घर में आएं तो दोनों इक़रार करेंगे कि वो घर किसी से बनाया गया है। और वह फ़र्क़ जो उन की राय में होगा तो इस सवाल की बाबत होगा कि क्या उस के बानी ने उस को बसबब तक़्दीर से मज्बूर होने के बनाया या ख़ुद-मुख़्तार हो के ता’मीर किया। इसी तरह अगर वो ख़ल्क़त के बनाने की बाबत बात करें तो वो सवाल जो उनके दरमियान होगा सो यह है कि क्या मख़्लूक़ात तक़्दीर के तरीक़ या ख़ुद-मुख्तारी के तरीक़ों पर पैदा होती है। तब दोनों ज़रूर कहेंगे कि बनाने वाला है क्योंकि ख़याली बातों से कुछ चीज़ पैदा नहीं होती है।

          हासिल कलाम ये है कि तक़्दीर की ता’लीम से भी साबित है कि एक आज़ाद व अलीम पैदा कनिंदा है जो सब चीज़ों का मालिक भी है। और जब कि ये है तो तक़्दीर कुछ नहीं है।

          और इन बातों से ये नताइज निकलते हैं। पहले, जब कोई क़ाइल तक़्दीर शख़्स कहे कि सब चीज़ें तक़्दीर के वसीले से मौजूद होती हैं तो ज़रूर उस के ये म’अनी हैं कि वो एक ख़ालिक़ से जो तक़्दीर से मज्बूर हुआ है पैदा की गईं हैं। और फिर वो तक़्दीर जिस से बनाने वाले ने मज्बूर हो कर काम किया अक़्ल और मन्सूबे से ख़ाली नहीं है।

          पस अगर ता’लीम तक़्दीर तस्लीम की जाये तो वो ख़ालिक़ के वजूद होने का सबब नहीं हो सकती है जिस तरह कि वो किसी घर का बानी नहीं हो सकती है। अगर हम इक़रार भी करें कि तक़्दीर हो सकती है तो भी हम मख़्लूक़ात के बनाने और उस के तरीक़ों में ऐसी तदबीर देखते हैं कि हम ज़रूर इक़रार करेंगे कि इस का कोई आलिम ख़ालिक़ व मालिक है।

          और अब हमने देखा है कि तक़्दीर की ता’लीम उन दलीलों को रद्द नहीं करती है कि जिनसे एक ख़ालिक़ व मालिक का वजूद होना साबित है।

          अब एक और सवाल ये है कि क्या ता’लीम मज़्कूर इस यक़ीन को बातिल ठहराती है कि हम मज़्हब के फ़राइज़ के तहत में हैं और क्या ता’लीम तक़्दीर मज़्हब और उस की दलीलों से कुछ निस्बत या मुवाफ़िक़त रखती है या नहीं।

          अब ख़याल करो कि कोई शख़्स अपने बेटे को उस के बचपन से जबरन तक़्दीर की ता’लीम सिखाए और वो लड़का उस ता’लीम मज़्कूर पर ग़ौर करे और ये सहीह नतीजा निकाले कि अब मैं बसबब तक़्दीर के मज्बूर हूँ और अगर कोशिश भी करूँ तो भी अपना चाल-चलन नहीं बदल सकता क्योंकि मेरी तक़्दीर में ऐसा ही लिखा है इस सबब से कोई मुझे मुल्ज़िम नहीं ठहरा सकता और ना मेरी ता’रीफ़ कर सकता है और मैं ना अज्र, ना सज़ा, ना जज़ा पाने के क़ाबिल हों। जो कुछ तक़्दीर ने मुझसे करवाया सो हुआ। और ये भी ख़याल करो कि वो लड़का इस ता’लीम के सबब अपने दिल और ख़याल से भी इल्ज़ाम या ता’रीफ़ और सज़ा व जज़ा की फ़िक्र बिल्कुल बाहर और दूर कर दे तो जब वो लड़का जवान होगा और लोगों के साथ मिलेगा तो वो उन से किस तरह का सुलूक पाने का मुंतज़िर होगा और वो अपने ख़ालिक़ व मालिक से कौनसा सुलूक पाने का इंतिज़ार करेगा।

          मैं कहता हूँ कि कोई आक़िल इन्सान हरगिज़ ना कहेगा कि कोई लड़का ऐसे दरिया-ए-फ़िक्र में महफ़ूज़ रह सकता है। तो ऐसी ता’लीम हरगिज़ ना देना क्यों कि अगर हम ऐसी ता’लीम पर यक़ीन लाएं तो इसी तरह के ख़याल करेंगे। लेकिन जब वो लड़का अपने तईं ख़ौफ़ और शर्मिंदगी से जिनसे और आदमी कुछ-कुछ बाज़ रहते हैं आज़ाद देखेगा तो ज़रूर ख़ुश व मग़रूर भी होगा और मग़रूरी से और भी बुरे नतीजा बा सबब इस ता’लीम के उस को मिलेंगे। अगर वो अपनी मग़रूरी से और बद-फ़े’ली की सज़ा पाए तो वो औरों को दिक करेगा और अपनी भी हलाकत करेगा। लेकिन वो ज़रूर तम्बीह और कभी-कभी सज़ाए शदीद पाएगा और इसी तरह से मा’लूम करेगा कि अपनी तक़्दीर पर कुछ इल्ज़ाम और सज़ा आइद नहीं कर सकता है बल्कि जिस बात को वो बातिल जानता था उस को सच्चा समझेगा या’नी कि वो अपने काम का बदला पाता है। तो ज़रूर वो सज़ा जो कि वो तर्बियत और ता’लीम में पाता है उस को क़ाइल करेगी कि अगर ता’लीम तक़्दीर बातिल नहीं है तो भी वो इस ज़िंदगी के काम में नहीं आती है और हर एक क़ाइल तक़्दीर को (अगर ख़याल करेगा) मा’लूम होगा कि हमारा राज़िक़ जब कि अपने तरीक़ों के मुताबिक़ गुनेहगारों को सज़ा और नेकोकारों को ख़ुशी व तरक्क़ी देता है तो वो तक़्दीर के मुताबिक़ या तक़्दीर के तरीक़ों पर नहीं चलता है। हासिल कलाम ये है कि ता’लीम मज़्कूर मज़्हब के फ़राइज़ और हुक़ूक़ में काम आती।

          और अगर वो लड़का उस ता’लीम को मानता रहे तो अग़्लब (मुम्किन) है कि कभी उस से ऐसा बुरा काम होगा कि जिसके बा’इस लोग उस पर नालिश (फ़र्याद, गिर्ये वज़ारी) करके उसे क़ैदख़ाना में डलवाएंगे। और तब उसे मा’लूम होगा कि इस दुनिया के लोग तक़्दीर को नहीं मानते बल्कि बदकारों को सज़ा देते हैं जैसा कि मालिक अपनी हुकूमत में करता है।

          और अगर हम इस ता’लीम तक़्दीर को ज़िंदगी और आलम के तरीक़ों में शामिल करें तो सरीह मा’लूम होता है कि वो बिल्कुल नामाक़ूल है। मसलन अगर किसी की तक़्दीर में लिखा है कि वो फ़ुलाने सन तक जियेगा तो अगरचे वो अपनी ख़बरदारी और तंदरुस्ती की फ़िक्र करे या ना करे वो उस सन तक ज़रूर ज़िंदा रहेगा। और अगर तक़्दीर में लिखा हो कि वो उस सन से पेश्तर मर जायेगा तो उस की सारी ख़बरदारी बेफ़ाइदा है। पस अगरचे बा’ज़ अपने तरीक़ों और दस्तूरों में तक़्दीर को मानते ताहम सब अपनी ख़बरदारी करते हैं।

          और अगर हम उस दूसरी ता’लीम की तरफ़ ख़याल करें या’नी सोचें कि सब आदमी फ़े’ल (काम, अमल) मुख़्तार हैं तो ये बहबूदगी मा’लूम नहीं होती है क्योंकि हर एक आदमी अपनी बेहतरी के लिए सोचता और इरादा करता और काम करता है गोया कि वो आज़ाद या फ़े’ल मुख्तार है।

          और जो बात कि हम इस मुक़ाम पर ताकीदन कहते हैं सो ये है कि ख़ालिक़ हमारे साथ ऐसा करता है कि जैसे हम फ़े’ल मुख़्तार हैं। पस साफ़ साबित है कि दुनिया के तरीक़े और ख़ालिक़ अपनी हुकूमत में ता’लीम तक़्दीर को बातिल करते हैं।

          और अगर तक़्दीर की ता’लीम इन बातों में काम नहीं आती है तो हम क्योंकर साबित कर सकते हैं कि वो मज़्हब में काम आएगी क्योंकि मज़्हब एक मामूली शय है। हाँ सब लोग कहते हैं कि जैसा करोगे वैसा पाओगे तो तक़्दीर कहाँ रही। अगर हो तो बेफ़ाइदा है क्योंकि हर एक फ़र्ज़ को रद्द करती और हर एक मामूली बात को बातिल करती है। पस अग़्लब (मुम्किन) है कि वो ही नहीं। अब जो कोई इन बातों पर ग़ौर करे वो बख़ूबी मा’लूम कर लेगा कि अगर मज़्हब की दलीलें आज़ादगी के मुताबिक़ सच्ची ठहरीं वैसे ही तक़्दीर के तौर से भी रास्त ठहरती हैं। क्यों कि तक़्दीर हमारे फ़राइज़ में काम नहीं आती है और मज़्हब ईस्वी अक़्ल के ख़िलाफ़ नहीं है बल्कि जहालत के ख़िलाफ़ है। क्योंकि जब हम इन ता’लीमात के जो मख़्लूक़ात के तरीक़ों से ख़ालिक़ ने हमारी रहनुमाई के वास्ते मुक़र्रर की है बर-ख़िलाफ़ चलें और दा’वा ये करें कि अक़्ल के मुताबिक़ चलते हैं तो ये मह्ज़ बुतलान बल्कि बेवकूफ़ी है।

          एक और बात ये है कि हम एक मर्ज़ी और एक ख़सलत रखते हैं और अगर ये तक़्दीर उन के लायक़ हो तो वो ख़ालिक़ के भी लायक़ हो और अलावा अज़ीं जब हम इक़रार करें कि हुकूमत और काम और हरकत के कुछ नताइज होते हैं तो हमें इक़रार करना पड़ता है कि ख़ालिक़ व मालिक में भी एक मर्ज़ी और एक ख़सलत है जिनके मुताबिक़ और बज़रीये जिनके वो हुकूमत करता है।

          तो ये सच है कि ख़ालिक़ किसी ना किसी तरह की ख़ासियत और मर्ज़ी रखता है और अगर तक़्दीर उन्हीं सिफ़तों से जो ख़ुदा की हैं और जो कि मज़्हब ईस्वी की बुनियाद हैं या’नी रहम व दियानतदारी और इन्साफ़ मुवाफ़िक़त नहीं रखती है तो वो किसी तरह की सिफ़तों से मुवाफ़िक़त नहीं रख सकती है क्यों कि जैसा तक़्दीर इन्सान को रहम दिल व सच्चा व दियानतदार होने से नहीं रोकती वैसे ही वो उन को बेरहम व बे-ईमान और नारास्त होने से नहीं रोकती है। सो तक़्दीर काम में नहीं आती। और कहा गया है कि जो आज़ादगी की राह में गुनाह का ठीक बदला है सो अज़रूए तक़्दीर बिल्कुल बे-इंसाफ़ी है क्योंकि वो सज़ा उस काम के सबब से उस को मिली जो उस ने तक़्दीर से मज्बूर हो कर किया। मसलन तक़्दीर की जिहत (कोशिश) से क़त्ल का गुनाह मौक़ूफ़ किया गया तो गोया क़ातिल के गुनाह की सज़ा को भी वो मौक़ूफ़ करती है। पस देखो इन्साफ़ और बे-इंसाफ़ी की पहचान किस क़द्र दिल में रहती है अगरचे हम ख़याल करें कि तक़्दीर के ज़रीये से वो सब मौक़ूफ़ (ख़त्म) हो गई।

          और अगरचे वाज़ेह हुआ कि अगर तक़्दीर किसी बात से मुवाफ़िक़त या इलाक़ा रखती हो तो वो ख़ालिक़ की उस ख़ासियत से जो मज़्हब ईस्वी की बुनियाद है मुवाफ़िक़त और इलाक़ा रखती तो भी क्या ता’लीम तक़्दीर ख़ालिक़ की उस ख़ासियत को और ईस्वी मज़्हब और उस दलीलों को रद्द नहीं करती। हरगिज़ नहीं क्योंकि हम देखते हैं कि अगर ख़ुशी और तक्लीफ़ हमारी तक़्दीर या क़िस्मत में लिखी हुई हों तो भी वो ऐसी नहीं लिखी हैं कि हमारे कामों के नतीजे उस तक़्दीर से रोके जाएं बल्कि ऐसी है कि हमारी ख़ुशी या तक्लीफ़ हमारे कामों के नतीजे हैं। क्योंकि जैसे बाप अपने लड़कों पर और हाकिम अपनी रि’आया पर हुकूमत करता है उसी तरह ख़ुदा हम सभों पर हुकूमत करता है।

          अल-हासिल ख़्वाह कहें कि इन्सान आज़ाद हैं ख़्वाह तस्लीम करें कि वो तक़्दीर के पाबंद हैं तो भी तजुर्बे कारी से अयाँ है कि मालिक रास्तबाज़ और आदिल है और इन्सान को उस के कामों के मुवाफ़िक़ बदला देता है और शायद ये ज़रूर है कि हम ईस्वी मज़्हब के फ़राइज़ की ख़ास दलीलों को बयान करें जो कि तक़्दीर से रद्द नहीं होती हैं अगरचे तक़्दीर तमाम बेईमानी की जड़ है।

          और अगर तक़्दीर की ता’लीम साबित हो सकती तो भी ख़ालिक़ आलम के वजूद होने की दलीलें जो कि उस के कामों के नतीजों से निकलती हैं रद्द नहीं होती हैं। और ये बख़ूबी मा’लूम है कि वो दुनिया की हुकूमत बज़रीया सज़ा व जज़ा देने के करता है और उस ने हमको एक ताक़त या सिफ़त दी है कि जिसकी मदद से हम कामों के बीच में तमीज़ करते हैं और बा’ज़ों को बुरे और बा’ज़ों को नेक जानते हैं और ये भी जानते हैं कि बदकामों से बुरा और नेक कामों से अच्छा नतीजा निकलता है। अब ये नेक व बद की तमीज़ जो ख़ासियत से हमारे वास्ते एक क़ानून है हक़ीक़तन ख़ुदा की शरी’अत या’नी मर्ज़ी है। क्योंकि जब हम उस के मुताबिक़ चलते हैं तो बे-ख़ौफ़ रहते हैं और जब उस के बर-अक्स करते हैं तो ख़ौफ़ खाते हैं। पस यक़ीन ग़ालिब है कि मालिक-ए-हक़ीक़ी जिसने ये तमीज़ करने की ताक़त बख़्शी और जो ये ख़ौफ़ व खूशी देता है वो अपनी शरी’अत के मुवाफ़िक़ जो उस ने हमारे दिलों में और अपने कलाम में भी लिखी है हमारा इन्साफ़ करेगा जैसा कि वो अक्सर अब करता है कि नेकोकारों को ख़ुशी और बदकारों को अज़ाब देता है। और अब मैं कहता हूँ कि मसीही मज़्हब के इन आम दलीलों के बर-ख़िलाफ़ कोई बज़रीया ता’लीम तक़्दीर एतराज़ नहीं कर सकता है। और इस बात से कि हम नेक व बद की तमीज़ करने की ताक़त रखते हैं कोई इन्कार नहीं कर सकता है क्योंकि हमारी तजुर्बे कारी से साबित है और ना उस के इस नतीजे से कि ख़ुदा कियामत के बाद नेकोकारों को जज़ा और शरीरों (बुरों) को सज़ा देगा इन्कार हो सकता है। क्योंकि हमने नहीं कहा कि ख़ुदा इसलिए इन्साफ़ करेगा कि हमारी समझ में ये मुनासिब मा’लूम होता है कि बल्कि सबूत इस बात का कि वो इन्साफ़ करेगा ये है कि उस ने हमको यक़ीन दिलाया है कि वो ऐसा ही करेगा।

          पस अगरचे हम ख़याल करें कि तक़्दीर की ता’लीम सच है तो भी मज़्हब ईस्वी की बुनियाद की बातें बरहक़ ठहरती हैं। और अलावा अज़ीं ता’लीम मज़्हब जो कि ख़ुदा के कामों पर ग़ौर करने से हमको हासिल होती है ऐसी मज़्बूत दलीलें रखता है कि अगर ता’लीम तक़्दीर सच्ची होती तो भी उस को रद्द नहीं कर सकती और ना उस से किसी तरह की तब्दीली पाती है।

          और जब हम ये बात सच्ची पाते हैं कि यही मज़्हब हर ज़माने और मुल्क में जिनसे हमको वाक़फ़ियत मिली मक़्बूल हुआ और तवारीख़ से पेश्तर साबिक़ व कदीम ज़माने के लोग इक़रार करते और सच मानते थे कि एक ही ख़ुदा है जो हर चीज़ का ख़ालिक़ और हर इन्सान का मालिक है। और जब हम ख़याल और याद भी करते हैं कि मज़्हब की ता’लीम इन्सान की अक़्ल या मुबाहिसा करने से नहीं बनाई गई बल्कि ख़ुदा ने उसे इल्हाम से दी है तब हमें इक़रार करना पड़ता है कि मज़्हब ईस्वी की ता’लीम बरहक़ है और वो ता’लीम तक़्दीर से ख़्वाह झूटी हो ख़्वाह सच्ची कुछ ख़लल नहीं पाती है। और अब बख़ूबी मा’लूम हुआ कि ता’लीम तक़्दीर और इन्सान की आज़माईश का हाल बिल्कुल बर-ख़िलाफ़ है और हमने ये बात सच पाई कि इन्सान हाल-ए-आज़माईश में हैं और नेक व बद की तमीज़ कर सकते और फ़े’ल मुख़्तार हैं। पस साफ़ साबित है कि ता’लीम तक़्दीर जो उस के बर-अक्स है हरगिज़ सच नहीं हो सकती है और किसी तरह मज़्हब को रद्द कर सकती है।

          पिछली बात ये है कि ता’लीम तक़्दीर से किसी क़द्र नुक़्सान होता। क्योंकि ख़राब आदमी उस को सच्ची समझ कर अपने बुरे कामों में तसल्ली व तरक़्क़ी पाते और औरों के सामने अपने गुनाहों और बेदीनी का उज्र भी करते हैं और अलावा इस के ये ता’लीम ख़ल्क़त के तरीक़ों और ख़ालिक़ व मालिक ख़ुदा की हुकूमत के भी बर-ख़िलाफ़ है।



सातवाँ बाब

ख़ुदा की हुकूमत एक तदबीर है जिसको हम
लोग साफ़ व सहीह नहीं समझते हैं

          अगर कोई बेदीन आदमी ख़ुदा की हुकूमत के बर-ख़िलाफ़ एतराज़ करके कहे कि उस की हुकूमत व इन्साफ और नेकी कुतुब इलाही में साफ़ मा’लूम नहीं होती है तो शायद सभों का जवाब मख़्लूक़ात की हुकूमत की मुशाबहत में नहीं मिलेगा मगर तो भी इस से हमें बहुत मदद मिलेगी मसलन इस से मा’लूम होता है कि हुकूमत की तदबीर हमारी अक़्ल व फ़हम से बाहर और ब’ईद है।

          जिस तरह कि ख़ल्क़त बेहद और अपने मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बेशुमार है कि उस का कुल बयान और तरीक़ जिससे ख़ालिक़ उस से वास्ता रखता और उस पर हुकूमत करता है हमारी अक़्ल व फ़हम में नहीं आ सकते हैं वैसे ही अग़्लब (मुम्किन) है कि ख़ुदा की हुकूमत जिसमें करोबीन व सराफीन और फ़रिश्तगान और कुल इन्सान हर मुल़्क व ज़माने और दुनिया के या’नी तमाम मख़्लूक़ात एक ही ख़ुदा की हुकूमत व बंदोबस्त से हुक्म किए जाते हैं हमारी समझ से बाहर और ब’ईद है। और कोई इन्सान जब तक कि मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ नहीं बोलता तब तक इस बात का इन्कार नहीं करता है। और जब कि कोई आदमी ख़ालिक़ की मेहरबानी व इंसाफ़ और नेकी के बर-ख़िलाफ़ कहे कि हुकूमत जिस का बयान मज़्हब ईस्वी में पाया जाता है कामिल नहीं है तो इस का माक़ूल जवाब ये है कि हम लोग इन बातों का जिसको हम नहीं जानते हैं इन्फ़िसाल (अलग) नहीं कर सकते हैं। और हम देखते हैं कि बग़ैर वसीले या वास्ते के कोई मक़्सद व मुराद पूरी नहीं होती है और ख़ल्क़त में हम देखते हैं कि वो वैसे जिन्हें हम लायक़ नहीं जानते नेक अंजाम पहुंचते हैं। वैसे ही हुकूमत में शायद वो बातें जो हमें बुरी और बिल्कुल नालायक़ मा’लूम होती हैं बाज़ औक़ात दुनिया में नेक अंजाम को पहुँचती हैं। मसलन कभी ऐसा होता है कि बुख़ार या बाई (तशंनुज) की बीमारी से या कि टूटे हुए उज़ू के ज़रीये से किसी की जान बच जाती और उस की उम्र रदराज़ होती है और बा’ज़ वक़्त ऐसा भी होता है कि बीमारी की हालत तंदरुस्ती की हालत से अच्छी होती है या’नी बीमार आदमी कभी गुनाह करने से बचा रहता है।

          जहान की हुकूमत आम क़वानीन के मुताबिक़ की जाती है और अगरचे कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी क़द्र बे-तर्तीबी और बे-इंतिज़ामी होती है तो भी शायद ऐसा है कि सभों के वास्ते बेहतरीन अंजाम होता है। और शायद किसी और तरह की हुकूमत इस से बेहतर नहीं हो सकती है।

          ख़ालिक़ की हुकूमत भी इसी तरह की है और ऐसा होता है कि जो कुछ कभी-कभी हम पाते हैं सो इन आम क़वानीन के मुताबिक़ किसी ना किसी तरह से अपने कामों के सबब पाते हैं। और अग़्लब (मुम्किन) है कि अगर हम लोग किसी तरीक़े के बर-अक्स करें तो बहुत ख़ूबी को रोक दें और बहुत बुराई अपने और औरों के ऊपर खींच लाएं।

          लेकिन शायद एतराज़ करने वाला कहेगा कि हमारी ना-वाक़फ़ियत मज़्हब की दलीलों के बर-ख़िलाफ़ भी है और अगर हम अपनी बेवक़ूफ़ी के सबब से मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ नहीं कह सकते तो हम उस के सबूत में क्यूँ कर बातें करें। तो उस के तीन जवाब हो सकते हैं :-

          पहला : अगर हम किसी आदमी की ख़ासियत से वाक़िफ़ हों कि वो बहुत रहम दिल है और किसी का नुक़्सान नहीं चाहता है तो हम बिल्कुल नावाक़िफ़ नहीं होगे कि उस ने किसी का नुक़्सान नहीं किया। और हम किसी वक़्त उस से एक काम करते देखें जिसका अंजाम हम नहीं जानते हैं तो अगरचे वो काम हमें बुरा मा’लूम हो तो भी ना कहना चाहिए कि वो बुरा है जब तक कि उस का अंजाम बुरा ना निकले। पस इसी तरह मज़्हब ईस्वी की दलीलें ख़ुदा की हुकूमत को साबित करती हैं या’नी हर एक आदमी अपने कामों के मुताबिक़ बदला पाएगा। पस अगर हम इस में कुछ बात देखें जो हमें बे-तर्तीब मा’लूम हो तो वो बे-तर्तीबी मज़्हब की दलीलों के बर-ख़िलाफ़ नहीं है। जब तक कि बिल्कुल साबित ना हो ले कि वो हक़ीक़तन बे-तर्तीबी है बल्कि वो सिर्फ ये बात साबित करती है कि हम उन बातों का अंजाम नहीं जानते हैं।

          दूसरा : अगर हम इक़रार करें कि वो बातें और वो त’अल्लुक़ात जिनको हम नहीं जानते और ना जान सकते हैं मज़्हब ईस्वी की दलीलों के बर-ख़िलाफ़ और उस के एतराज़ों के भी बर-ख़िलाफ़ होती हैं। जिससे हम उस को ना साबित कर सकते और ना रद्द कर सकते हैं तो भी उस के फ़राइज़ हमारे ऊपर ठहरते हैं। क्योंकि अगर हम उन को ना मानें तो हमारा दिल हमें मुल्ज़िम करता है।

          और अगरचे हम कहें कि मज़्हब ईस्वी के फ़राइज़ ना मानने से हमारा कुछ नुक़्सान ना होगा या कुछ सज़ा या जज़ा ना होगी। तो भी ये फ़राइज़ हमारे दिलों पर लिखे हुए हैं और जब हम उन को पूरा करते तो हम ख़ुश रहते हैं।

          तीसरा : हमारी ना वाक़फ़ियत इस मज़्हब की दलीलों को रद्द नहीं कर सकती बल्कि साबित करती है जब कि हम याद रखते हैं कि अक्सर वो बातें जिन्हें हम बे-तर्तीबी समझे थे जब उन की ज़्यादा वाक़फ़ियत करते हैं तब वो हमें बहुत दुरुस्त मा’लूम देती हैं। पस अग़्लब (मुम्किन) है कि अगर हम सब कुछ जान सकते तो हमें सब कुछ बेहतर मा’लूम होता। आख़िरी बात हम बेशक मख़्लूक़ात के तरीक़ों और हुकूमत से बहुत नावाक़िफ़ हैं और इस सबब नहीं कह सकते कि आया वो दुरुस्त है या नहीं तो कितना ज़्यादा हमारी ना-वाक़फ़ियत हमको ख़ुदा की हुकूमत पर जो निहायत बुलंद और बे-दर्याफ़्त और अबदी है ठीक इन्फ़िसाल (जुदा) करने से रोकती है।

ततिम्मा हिस्सा अव़्वल

          अब पिछले बाब के मज़्मून से मा’लूम हुआ कि ये दुनिया और उस की हुकूमत का बंदो-बस्त किसी ना किसी तरह से और कोई तदबीर के साथ जो इस से निहायत किसी ना किसी तरह से और कोई तदबीर के साथ जो इस से निहायत बुलंद और बड़ी है कुछ ता’अल्लुक़ रखता है और ये नुमाइश जिसमें हम रहते हैं तरक़्क़ी पज़ीर है। जिसको हम नहीं समझ सकते हैं ना उस का आग़ाज़ और ना अब का और इस्तिक़बाल का हाल जान सकते हैं और ये हुकूमत एक ऐसी नुमाइश है कि वो मज़्हब की ता’लीम से भी अजीब है। अगर कोई कहे कि ये मख़्लूक़ात बग़ैर ख़ालिक़ के वजूद में आई तो वो अपने तईं (अपने आपको) जल्द दरिया-ए-मुश्किलात में डुबोता है बनिस्बत उस के जो मुक़िर (इक़रार करने वाला) है कि ख़ालिक़ ने पैदा किए और वही उस का मालिक है।

          और इस किताब के पहले अबवाब से साफ़ साबित है कि एक ही ज़िंदा ख़ालिक़ व मालिक है जिससे मुदल्लल (साबित) है कि वो अपनी ही मर्ज़ी और ख़ासियत के मुताबिक़ अपनी जमी’अ् (तमाम) मख़्लूक़ात पर हुकूमत करता है और इन्सान ज़रूर उस के इख़्तियार में है और अज़रूए मुशाबहत निहायत अग़्लब (मुम्किन) मा’लूम हुआ कि हम अपनी मौत के बाद रुहानी ज़िंदगी पाएँगे। या ये कि हमारी रूह ना मरेगी। और किताब-ए-मुक़द्दस की ता’लीम के मुताबिक़ उस ज़िंदगी में हम अपने अफ़’आल की पूरी जज़ा व सज़ा पाएँगे और हमारे काम जो हम इस क़लील ज़िंदगी और फ़ानी दुनिया में करते हैं हमारी हमेशा की बेहतरी या नुक़्सान के बा’इस होंगे।

          ख़ुलासा अल-कलाम : हमको ग़ौर और सोच करना चाहिए कि हमारा क्या हाल है और हम क्या करें ताकि हमारी हमेशा की ख़ुशी हो। और किसी को ये ख़याल करना चाहिए कि जब तक हम गुनाह करते रहते हैं तो हम बे-ख़ौफ़ व ख़तर रह सकते हैं। हरगिज़ नहीं। बल्कि जब तक हम गुनाह किया करते हैं तो हम बड़े ख़तरे में हैं। अगर हम बेफ़िक्र व सोच रहें या कहें कि जब तक ये बात दिल तक ना पहुंचे कुछ डर नहीं तो ये भी बड़ा गुनाह है और हम उस के बा’इस बहुत डर में हैं।

          और किसी तरह का उज़्र (बहाना) ना लाना चाहिए क्योंकि अगर कोई कहे कि मेरी तक़्दीर में ऐसा लिखा है और मैं उस के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कर सकता तो ये बात बातिल है क्योंकि ख़ुदा ने किसी की तक़्दीर में ना तो कुछ नेकी और ना कुछ बदी लिखी है बल्कि उस ने इन्सान को फ़े’ल मुख़्तार (अमल करने में आज़ाद) बनाया ताकि वो नेकी करके अच्छा अज्र पाए या बदी करके सज़ा उठाए। अगर कोई कहे कि मैं बहुत आज़माईशों में पड़ता हूँ तो यक़ीन जाने कि ख़ुदा से मदद पाकर वो अपनी सारी आज़माईश पर ग़ालिब हो सकता है। अगर कहो कि हमारी बद ख़्वाहिशें ग़ालिब हैं तो सच जानो कि तुमको तुम्हारी बुरी ख़्वाहिशों पर फ़त्ह पाना चाहिए। क्योंकि बहुतेरी बातों में तुम ऐसा करते हो। पस हमेशा नेकी सीखो और करो इसलिए कि दिल कहता है कि ये सबसे बेहतर हैं। और इन्जील की रोशनी में चलो तो तुम हमेशा की ज़िंदगी पाओगे और अगर ऐसा ना करोगे तो याद रखो कि ख़ुदा का ग़ज़ब आदमी की तमाम बेदीनी और नारास्ती पर आस्मान से ज़ाहिर है फ़क़त।

हिस्सा अव़्वल तमाम शुद



मिल्लत-ए-तश्बीही

दूसरा हिस्सा

इल्हामी मज़्हब का बयान

पहला बाब

मज़्हब ईस्वी की ज़रूरत का बयान

           बा’ज़ आदमी नेचर या’नी तरीक़ा ख़ल्क़त की रोशनी अपनी हिदायत के लिए काफ़ी व वाफ़ी जान कर और ख़ुदा के इल्हामी कलाम को सिर्फ क़िस्सा और कहावत समझ कर इल्हामी मज़्हब को नामंज़ूर करते हैं।

          और अगर आलम (दुनिया) की रोशनी हमारी रहनुमाई के लिए काफ़ी होती तो बिला-शक व शुब्हा ख़ुदा हमारे वास्ते किसी और तरह का कलाम हरगिज़ नाज़िल ना करता लेकिन कोई दानिशमंद आदमी जो ग़ैर क़ौमों और वहशी आदमियों की हालत पर लिहाज़ करेगा कभी ना कहेगा कि इल्हामी मज़्हब फ़ुज़ूल है क्योंकि सबसे आलिम लोग भी बग़ैर किताब-ए-मुक़द्दस के ना सिर्फ मज़्हब की बाबत बल्कि तरीक़ा मख़्लूक़ात की बाबत भी बहुत शक और ग़लती करते रहे और किसी तरह मुम्किन नहीं कि वो मज़्हब को ठीक दर्याफ़्त करते अगर इल्हामी मज़्हब ना होता पस जो कोई किताब-ए-मुक़द्दस को फ़ुज़ूल जानता है वो बिल्कुल नारास्ती पर है।

          बा’ज़ और लोग कहते हैं कि इल्हामी मज़्हब का फ़क़त इतना ही मतलब है कि ख़लक़ी मज़्हब का बयान करे और वो तो ना कुतब मुक़द्दसा की परवाह करते और ना उस पर एतराज़ करने वालों की बात मानते हैं।

          अब ख़याल करो कि अगर ख़ुदा ने इन्सान के लिए अपना कलाम नाज़िल किया है तो ये सहल बात नहीं हो सकती है कि क्या हम उसे मानें या ना मानें।

          और ईस्वी मज़्हब की ज़रूरत ज़ेल की बातों पर-ख़याल करने से ज़्यादा साफ़ मा’लूम होगी :-

          अव़्वल : मज़्हब ईस्वी तो ख़लक़ी मज़्हब का इज़्हार सानी है वो इन्सान को दुनिया की हुकूमत और बंदो-बस्त से आगाही व वाकफियत व होशियारी बख़्शता है। या’नी कि दुनिया का इंतिज़ाम एक निहायत आलिम व कामिल ख़ालिक़ का काम है और उस की हुकूमत में है और उस का ख़ास क़ानून नेकी है और वो आख़िरी दिन रास्ती से आदमियों का अदल करेगा और हर एक को उस के कामों के मुताबिक़ आइंदा ज़िंदगी में बदला देगा। और अलावा अज़ीं वो ख़लक़ी मज़्हब को कामिल तौर से बयान करता है। इल्हामी कलाम ख़लक़ी मज़्हब को इख़्तियार के साथ ज़ाहिर करता है। और इसी तरह उस को भी साबित करता है।

          मो’जिज़े और पेश गोईयां जो किताब अक़्दस में मुबय्यन (बयान) हैं इस मतलब पर मर्क़ूम हुईं कि साबित करें कि ख़ुदा की मर्ज़ी है कि मसीह सभों का कफ़्फ़ारा है और मासिवाए इस के वो साबित करते हैं कि ख़ुदा हमारा हाफ़िज़ व मालिक और मुंसिफ़ भी है। यही बातें कुतब मुक़द्दसा में अज़हर-मिन-श्शम्स (अयाँ) हैं। वो सब जिन्हों ने मो’जिज़े दिखलाए और पेश गोईयां कीं यही सिखाते थे कि ख़ालिक़ अर्ज़ व समा आदमियों का राज़िक़ व हाफिज़ और मुंसिफ़ है और अगर बाइबल का मक़्सद ये होता तो ज़्यादा साफ़ इन बातों को नहीं बता सकते।

          अगर कोई एतराज़ करके कहे कि मो’जिज़े ख़लक़ी मज़्हब के दलील नहीं हो सकते तो उस के जवाब में ये बात आती है कि अगर कोई आदमी एक ऐसी क़ौम के पास जो कि ख़लक़ी मज़्हब को ना जानती हो या उस से वाकिफ़ होकर ना मानती हो जाये और उस से कहे कि ख़ुदा ने मुझे तुम्हारे पास तुम्हें ख़लक़ी मज़्हब सिखलाने को भेजा है और अपनी रिसालत के सबूत में पेशगोई की ऐसी बात कही जिससे कोई आदमी आपसे वाक़िफ़ नहीं हो सकता है और उस की पेशगोई पूरी हो जाए फिर वो मो’जिज़े दिखलाए मसलन समुंद्र को एक बात से तक़्सीम कर दे जमा’अतों को आस्मानी रोटी से खिलाए हर तरह की बीमारी को चंगा करे मुर्दों को जिलाए और आप ही मारा जाके फिर ज़िंदा हो जाए, तो क्या ये काम उस की बातों और ता’लीम और फ़सीहत (शीरीं कलाम, ख़ुश-बयान) के सबूत ना ठहरेंगे? हाँ अलबत्ता ये उस की रिसालत और ता’लीम की मज़्बूत दलीलें हैं। इसी तरह मूसा की तौरेत और मसीह की इन्जील ख़लक़ी मज़्हब के इख्तियारी इज़्हार सानी हैं वो ख़ुदा-ए-मालिक के राज़िक़ होने की दलीलें हैं और साबित भी करती हैं कि ख़ुदा जैसा उन में मुबय्यन (बयान किया हुआ) है इन्सान की नजात के वास्ते बंदो-बस्त कर चुका है। वो इस बात की एक ही दलील और सबूत हैं और उस की माक़ूल गवाही हैं।


1.खुदा की मर्ज़ी और सिफात जो मख्लूक़ात के तरीक़ों से ज़ाहिर होती है, खलक़ी मज़हब से मुराद है।

          एक और मिसाल सुनों एक आदमी था जिसने कभी कलाम इलाही की ख़बर नहीं सुनी और वो इक़रार करता था कि ये दुनिया बावजूद ये कि उस में कुछ इख़्तिलाफ़ मा’लूम होता है ताहम एक निहायत कामिल मालिक की हुकूमत में है। और वो आदमी बा’ज़ नापाक लोगों के बुरे चाल-चलन के सबब जो ख़ुदा को बिल्कुल नहीं मानते उस हाकिम कामिल की बाबत शक में पड़ा और उन के गुनाह में गिरने को था। इत्तफ़ाकन उस को मा’लूम हुआ कि उस मालिक ने जिस पर वो ईमान रखता था अपनी हुकूमत का इंतिज़ाम इल्हाम से ज़ाहिर किया है और वो जो उस का इल्हामी कलाम सुनाते हैं वो अपनी रिसालत को मख़्लूक़ात के तरीक़ों के बदल करने या रोकने से साबित करते हैं तो क्या वो उस इल्हाम के सबब से मख़्लूक़ात के तरीक़ों और दुनिया की हुकूमत के इंतिज़ाम पर ज़्यादा मज़बूती से ईमान ना रखेगा। और इस निहायत ज़रूरी बात को क़लम अंदाज़ ना करना चाहिए कि मसीह ने मौत को नेस्त किया और ज़िंदगी व बक़ा और नजात अबदी को इन्जील से रोशन कर दिया। और यह बड़ी व भारी ता’लीमात कि रूह को बक़ा होगी और बुरा काम करने से बुरा अंजाम होगा और तौबा करना निहायत तासीर पज़ीर है सब इन्जील में ना सिर्फ साबित की गईं बल्कि ऐसी रोशनी के साथ सिखलाई गई हैं कि गोया उस रोशनी में मख़्लूक़ात की रोशनी तारीक हो गई है। और जैसा कि मज़्हब ईस्वी में ये बातें सिखलाई गईं और मो’जिज़े और पेश गोइयों से उन की सनद हुई वैसे ही ठहराया गया कि ये काम ज़ाहिर कलीसिया के ज़रीये से अमल में लाए जाएं या’नी मसीह की कलीसिया और सब दीगर मज्लिस व पंचायतों से मुख़्तलिफ़ हो कर अपनी ता’लीमात व तर्बियत और रस्मियात से क़ियामत तक उन भारी ता’लीमात मज़्कूर को सिखाती और बताती रहे।

          मो’जिज़े दिखलाने की ताक़त और इख़्तियार दीन ईस्वी के पहले मुनादी करने वालों को इस वास्ते दिया गया कि वो उस मज़्हब को दुनिया में जारी करें। और ज़ाहिरी कलीसिया इस मक़्सद से मुक़र्रर की गई कि मज़्हब ईस्वी उस के वसीले से क़ाएम रहे और सिलसिलेवार हर ज़माने में दुनिया के आख़िर तक तरक़्क़ी पाता रहे।

          अगर मूसा और अम्बिया और मसीह और उस के हवारइन (हवारी की जमा, शागिर्द, पैरौ) आप ही अपने ज़माने में लोगों को मज़्हब की ता’लीम देते और उस को मो’जिज़ों से साबित भी करते तो उन की ता’लीम व तर्बियत के फ़वाइद थोड़े लोगों के सिवा और दिन तक ना पहुंचते और थोड़े ज़माने में मज़्हब ईस्वी फ़रामोश हो कर जाता रहता। पस ज़ाहिरी कलीसिया उस को अंजाम के लिए क़ाएम व बरकरार रखती है क्योंकि वो एक शहर की मानिंद है जो पहाड़ पर बना हुआ है। और एक क़वी निशान ये है कि दुनिया के सब लोग ख़ालिक़ के फ़राइज़ के तहत में हैं और कलीसिया अपनी ता’लीम और नमूने से आदमियों को मज़्हब के तरीक़ों में बुलाती और उन को उस की हक़ीक़ी बातें सिखलाती है। वो ख़ुदा के नविश्तों का ख़ज़ाना है कि वो इल्हाम की रोशनी को आलम के लिए ज़हूर में लाए। और जिस क़द्र मसीही मज़्हब दुनिया में माना जाता और सिखलाया जाता है उसी क़द्र ख़लक़ी या ज़रूरी मज़्हब सफ़ाई और फ़ाइदे मन्दी से आदमी के ख़याल में क़ाएम होता है। ज़ाहिरी कलीसिया ख़ासकर अपने शरीकों को ता’लीम व तर्बियत देती है और उसी तरह से ख़लक़ी मज़्हब को तरक़्क़ी पज़ीर करती है क्योंकि उस के क़ाएम करने से एक मतलब ये है कि मज़्हब के तरीक़ों और रस्मों के ज़रीये से सिलसिले के तौर पर तर्बियत व तहज़ीब दी जाये ताकि मसीह का बदन या’नी कलीसिया बनता और बढ़ता रहे और तरक़्क़ी पाकर अच्छी और उम्दा हालत के वास्ते आस्मान में तैयार हो। पस साबित है कि इल्हामी मज़्हब से कलीसिया के वसीले ख़लक़ी मज़्हब को बहुत ही फ़ायदा हुआ। अगर कोई एतराज़ करके कहे कि ईस्वी मज़्हब से बुरे नतीजे निकलते हैं तो ये सच बात नहीं है क्यों कि वो नतीजे मज़्हब ईस्वी के नहीं हैं बल्कि बा’ज़ औक़ात बुरे लोग फ़रेब से अपने तईं (अपने आपको) मसीही कह कर बुरे काम करते हैं और ये मज़्हब और कलीसिया का कुछ क़सूर नहीं है।

          क्योंकि ना ख़लक़ी मज़्हब ना इल्हामी मज़्हब इन्सान पर ज़बरदस्ती करके उस को नेक करता है। इस से साफ़ मा’लूम होता है कि मसीही मज़्हब बहुत क़वी और ज़रूरी है क्योंकि जैसा ऊपर मज़्कूर हुआ वो ख़ल्क़त मज़्हब को शौहरत देता और उस को नई रोशनी से इन्सान के बड़े फ़ायदे के लिए सनद और सबूत और तासीर के साथ ज़ाहिर करता है।

          एक और बात क़ाबिल बयान है कि सब मसीहियों को हुक्म हुआ कि उस मज़्हब को क़ुबूल करके और दुनिया में इक़रार करके उस को क़ाएम करें और शौहरत दें। क्योंकि इन्जील की तदबीर और बंदो-बस्त ऐसा है कि हर एक मसीही आदमी अपनी ताक़त व लियाक़त के मुताबिक़ कलीसिया और मज़्हब की तरक़्क़ी करे। और सब अपने कारोबार में और ईस्वी मज़्हब के सारे अहकाम और तरीक़े और रस्मों के मानने में नमूना बनें और लोगों को ता’लीम दें। और कलीसिया में बा’ज़ों को निगहबानी का इख़्तियार भी दिया गया है। इस से ज़ाहिर है कि वो मज़्हब क़बूलियत के लायक़ है और जो उसे ना माने वो बड़े ख़तरे में है।

          दुवम : ईस्वी मज़्हब की एक और सिफ़त है कि उस में एक तदबीर का बयान है जो अक़्ल से मा’लूम नहीं होती और जिसमें कई ख़ास हुक्म हमको दीए गए तदबीर मज़्कूर ख़ुदा का बंदो-बस्त है जिससे वो अपने बेटे और रूह-उल-क़ुद्स के वसीले से इन्सान को जो बमूजब पाक नविश्तों के अबतरी (बुरी हालत) में हैं बुलाता और बचाता है। और उन नविश्तों में हमको हुक्म मिला कि बपतिस्मा पाएं ना सिर्फ बाप ही के बल्कि मसीह और रूह-उल-क़ुद्स के नाम से भी। और मसीह व रूह-उल-क़ुद्स के और दीगर फ़राइज़ जिनको हम पेश्तर ना जानते थे नोश्तों (सहीफों) की रू से हम पर साबित हुए। और इन फ़राइज़ का तक़ाज़ा इस से मा’लूम हुआ कि वो ना सिर्फ फ़रमाए गए बल्कि इस बा’इस और भारी हैं कि इन इलाही अक़ानीम ने हमारे वास्ते इन्जील के मुताबिक़ क्या-क्या किया और हम उन से क्या-क्या ता’अल्लुक़ रखते हैं। अक़्ल से वो इलाक़ा जो हम ख़ुदा बाप से रखते हैं मा’लूम होता है जिससे उस के फ़राइज़ हमारे ऊपर हैं। पाक नविश्तों में वो इलाक़ा जो हम बेटे और रूह-उल-क़ुद्स से रखते हैं मज़्कूर है जिससे उन के फ़राइज़ हमारे ऊपर हैं। या’नी अक़्ल की गवाही से ख़ुदा बाप दुनिया का मालिक है। बाइबल की गवाही से मसीह ख़ुदा और आदमियों के बीच दर्मियानी है और रूह-उल-क़ुद्स हमारा हादी और हमारा मुक़द्दस करने वाला है अगर कोई शख़्स मज़्कूर बात का इक़रार करे तो जिस तरह हम पर बाप के नाम से बपतिस्मा पाना फ़र्ज़ है वैसे ही बेटे और रूह-उल-क़ुद्स के नाम से भी बपतिस्मा पाना फ़र्ज़ है। ज़्यादा साफ़ कहूँगा याद करना लाज़िम है कि मज़्हब की दो सिफ़तें हैं या’नी ज़ाहिरी और बातिनी और जैसे पहली सिफ़त सच्चे मज़्हब के लिए ज़रूर है वैसे ही दूसरी भी है मज़्हब की पहली सिफ़त का ये मतलब है कि हम ज़हन और दिल के ख़याल और ख़्वाहिश से उस को मानें। दूसरी सिफ़त के ये म’अनी हैं कि हम ख़ुदा कादिर मुतलक़ बाप की परस्तिश करें। ये पिछली सिफ़त ख़लक़ी मज़्हब कहलाता है। और पहली सिफ़त इल्हामी मज़्हब कहलाता है जिसके मुताबिक़ हम बेटे और रूह-उल-क़ुद्स को प्यार करके उन की परस्तिश करते हैं। हम इन तीनों इलाही अक़ानीम के एक एक से इलाक़ा रखते हैं जिस इलाक़े के ज़रीये से हम पर फ़र्ज़ है कि एक एक को प्यार करें और एक एक की परस्तिश करें। और वो तरीक़ा जिससे फ़र्ज़ मा’लूम हुआ इस फ़र्ज़ को रद्द नहीं करता क्यों कि हमारा फ़र्ज़ हमारे इलाक़े पर मौक़ूफ़ है ना इलाक़ा और फ़र्ज़ के ज़ाहिर करने के तरीक़े पर।

          बेटा और रूह-उल-क़ुद्स एक एक अपना ख़ास काम उस बड़ी इलाही तदबीर में जिससे दुनिया की नजात होती है करता है। बेटा हमारे गुनाहों का बदला और वसीला और नजात-दहिंदा है और रूह-उल-क़ुद्स हमारा रहनुमा और पाक कनिंदा है। अब क्या हम पर फ़र्ज़ नहीं है कि इन दोनों की परस्तिश करें क्यों कि हम ऐसा इलाक़ा दोनों से रखते हैं जैसे कि हम अपने हम-जिंसों को उस इलाक़े के सबब से जो हम उन से रखते हैं उल्फ़त करते हैं। लेकिन ज़रूर पूछा जाएगा कि बेटे व रूह-उल-क़ूद्स की वो बातिनी परस्तिश और प्यार जो बाइबल के हुक्म के मुताबिक़ और उन इलाक़ों से हम पर फ़र्ज़ हुई क्या-क्या है। जवाब ये है, उन की तकरीम करना ता’ज़ीम व इज्ज़त देना, प्यार करना, उन पर भरोसा रखना, शुक्रगुज़ारी करना उनका ख़ौफ़ रखना, उन पर उम्मीद रखना और इस बातिनी परस्तिश के ज़ाहिरी तरीक़े इल्हामी अहकाम से ज़ाहिर हैं। वैसे ही ख़ुदा बाप की ज़ाहिरी परस्तिश के तरीक़े हुक्मों की रू से मा’लूम हुए। लेकिन बेटे और रूह-उल-क़ुद्स की वो बातिनी परस्तिश जो हम पर फ़र्ज़ है सिर्फ उन इलाक़ों से निकलती है जो हम उन से रखते हैं या’नी जब हमको किसी तरह से मा’लूम हुआ कि बेटा हमारा बदला और कफ़्फ़ारा और दर्मियानी है और रूह-उल-क़ुद्स हमारा हादी और पाक कनिंदा है तब अक़्ल कहती है कि हम पर उन की दिली परस्तिश करना फ़र्ज़ है और ये ना सिर्फ इल्हाम की बल्कि अक़्ल की बात है।

          और अगर ये इलाक़ा जो हम बेटे और रूह-उल-क़ुद्स के साथ रखते हैं किसी तरह हम पर ज़ाहिर हो तो वो फ़राइज़ जो उस इलाक़े रखने के नतीजे हैं हम पर ज़रूर वाजिब-उल-अदा (जिसका अदा करना ज़रूरी हो) होंगे। और वह इलाक़ा इल्हाम से मा’लूम होता है सो अगर हम उस को दानिस्ता ना मानें तो कौन उस सज़ा की हद को जो हम पर पड़ेगी बतला सकता है। पस अगर मसीह फ़िल-हक़ीक़त ख़ुदा और आदमियों के बीच में दर्मियानी है या’नी अगर मसीही मज़्हब बरहक़ है अगर मसीह हमारा ख़ुदावन्द और नजात दहिंदा और ख़ुदा है और हम उस को उन इलाक़ों में भूल जाएं या ना मानें तो कौन कह सकता कि हम पर क्या-क्या आफ़तें पड़ेंगी। अगर गुनाह का नतीजा इस ज़िंदगी में निहायत बुरा है तो अगर हम उन इलाक़ों को ना मानें और अपने फ़राइज़ बनिस्बत बेटे और रूह-उल-क़ुद्स के पूरी ना करें तो कैसा होगा।

          फिर अगर इन्सान की रुहानी तबी’अत बिगड़ गई और तबाह हो गई और इस बा’इस से वो उस जगह में जाने के जो मसीह अपने शागिर्दों के वास्ते तैयार करने को गया है लायक़ नहीं हैं और अगर रूह-उल-क़ुद्स की ताक़त और मदद उन जगह के लायक़ करने के लिए दरकार है। और जैसा लिखा है कि अगर कोई आदमी रूह से पैदा ना हो वो ख़ुदा की बादशाहत में दाख़िल ना होगा। तो उनका क्या हाल होगा जो उन इलाही वसीलों को नहीं मानते और ना कुछ पर्वा करते हैं।

          मख़्लूक़ात के तरीक़ों की मुशाबहत से हम सिखते हैं कि अगर हम उन वसीलों को जिनसे बरकतें नाज़िल होती हैं इस्तिमाल ना करें तो हम उन बरकतों को ना पाएँगे।

          अब हम अक़्ल से मा’लूम नहीं कर सकते कि हमें रुहानी बरकतें किस तरीक़े से मिलेंगी। ये तरीक़ा अगर इल्हाम से मा’लूम ना हो तो किसी तरह से मा’लूम ना होगा। पस अगर ये तरीक़ा मज़्हब ईस्वी में मुबय्यन है तो वो आदमी जो मसीही मज़्हब को हल्का और हक़ीर जानता है तावक़्त ये कि उस को झूटा साबित ना करे अपना बड़ा नुक़्सान करता है। पस हम पर निहायत फ़र्ज़ है कि आज़माऐं और अगर वो बरहक़ साबित हो तो उसे क़ुबूल करें।

          अब दो नताइज निकालते हैं ताकि पहली बातें ज़्यादा साफ़ मा’लूम हों। और हम मज़्हब में दो तरह के फ़राइज़ देखते हैं एक तो नक़्ली और दूसरा अक़्ली। नक़्ली फ़र्ज़ वो है जो हुक्म के ज़रीये से हमारे ऊपर है ख़्वाह हम उस का सबब और फ़ायदा देखें या नहीं और अक़्ली फ़र्ज़ वो है जिसका सबब और फ़ायदा हम देखते हैं और ख़्वाह उस के पूरा करने का हुक्म हमको मिला या नहीं तो भी वो फ़र्ज़ है। नक़्ली फ़र्ज़ हालत से नहीं निकलता है बल्कि हुक्म के ज़रीये से हमारे ऊपर है और अगर मालिक हुक्म ना देता तो वो हम पर फ़र्ज़ भी ना होता। अक़्ल से मा’लूम हुआ कि ख़ुदा बाप हमसे ता’अल्लुक़ रखता है और इल्हाम से मा’लूम हुआ कि ख़ुदा बेटा हम से ता’अल्लुक़ रखता है मगर बाप के नाम से बपतिस्मा लेना और बेटे के नाम से बपतिस्मा लेना दोनों नक़्ली फ़राइज़ हैं क्योंकि दोनों की बाबत हुक्म हुआ। पस अगर हम इक़रार करें कि इन्जील बरहक़ है तो फ़ौरन हम पर फ़र्ज़ होता है कि मसीह को प्यार करें क्योंकि वो इस नजात की तदबीर का वसीला और कफ़्फ़ारा है जैसा कि ख़ुदा-ए-ख़ालिक़ को प्यार करना फ़र्ज़ है क्योंकि वो सब नेकी और ख़ूबी का चशमा है।

          और नक़्ली अहकाम भी दो क़िस्म के हैं पहले व है जो ख़लक़ी मज़्हब की बाबत हैं और दूसरे वो जो इल्हामी मज़्हब की बाबत हैं और हमें उनका मुक़ाबला करने में बहुत ही होशियारी और ख़बरदारी करनी चाहिए। अगर वो हुक्म एक ही इख़्तियार से फ़रमाए जाएं और ऐसा मौक़ा हो कि हम दोनों को ना मान सकें और उन में एक हुक्म अक़्ली हो या’नी हम उस का सबब जान सकते हों और दूसरा हुक्म नक़्ली हो या’नी फ़र्मान से हो और हम उस का सबब ना जानते हों तो हम पर फ़र्ज़ है कि अक़्ली हुक्म को मानें। और अगर हम ख़ूब कोशिश व गौर करें तो मा’लूम करेंगे कि कोई नक़्ली हुक्म ऐसा नहीं है कि वो किसी अक़्ली क़ानून के बर-ख़िलाफ़ हो। लेकिन बात ये है कि अक़्ली क़ानून वो है जो कि ख़ुदा ने दिल पर लिखा है और नक़्ली क़ानून वो है जो ख़ुदा ने अपने कलाम में फ़रमाया है। और सब कुछ दिल में नहीं लिखा गया है लेकिन सब कुछ कलाम इलाही में है। इस सबब से सभों पर निहायत फ़र्ज़ और वाजिब है कि किताब-ए-मुक़द्दस को पढ़ें और ख़ुदा की मर्ज़ी पहचानने के जोयायाँ (तलाश करने वाले) हों क्योंकि जब हमने मा’लूम कर लिया कि उसी ने अहकाम दीए तो वो अहकाम नक़्ली भी हैं और अक़्ली भी हैं और दोनों हम पर फ़र्ज़ और वाजिब-उल-अदा (जिसका अदा करना ज़रूरी हो) हैं।



दूसरा बाब

मो’जिज़ों के बर-ख़िलाफ़ क़ियास करने का बयान

           बा’ज़ आदमी क़ियास करते हैं कि ख़ल्क़त के तरीक़े मज़्हब ईस्वी के तरीक़ों से मुशाबहत नहीं रखते हैं बल्कि बर-ख़िलाफ़ हो कर उस को रद्द करते हैं। ख़ास कर वो कहते हैं कि मख़्लूक़ात के तरीक़े मो’जिज़ों के बर-ख़िलाफ़ हैं और जैसे और बातें गवाहों से साबित होती हैं वैसी ही मो’जिज़े से साबित नहीं हो सकते हैं बल्कि उनका सबूत पहुंचाने के लिए ज़्यादा मज़्बूत गवाही दरकार है। इस बात का जवाब आसान है :-

          अव़्वल : मेरे नज़्दीक मुशाबहत किसी तरह से ईस्वी तदबीर के या’नी इस बात के बर-ख़िलाफ़ नहीं है कि ख़ुदा ने येसू मसीह की मा’रिफ़त दुनिया को पैदा किया और उसी की मा’रिफ़त दुनिया की हुकूमत करता है और क़ियामत के दिन उसी की मा’रिफ़त दुनिया का इन्साफ़ करेगा या’नी हर एक को उस के कामों के मुवाफ़िक़ सज़ा या जज़ा देगा और नेक आदमी उस की रूह की तासीर से हिदायत किए जाते हैं। अगर मुशाबहत इन बातों के बर-ख़िलाफ़ है तो इस का सबब ये है कि ये बातें अक़्ल और तजुर्बे कारी से दर्याफ़्त नहीं होती हैं या इस सबब से कि वो मख़्लूक़ात के तरीक़ों से जो हम अक़्ल और तजुर्बे से दर्याफ़्त कर सकते हैं बर-ख़िलाफ़ हैं।

          पहले : ईस्वी मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ ये बात नहीं है या’नी वो अक़्ल और तजुर्बे से दर्याफ़्त नहीं होता है मसलन एक आदमी से जिसने हमारे मज़्हब की ख़बर नहीं सुनी और वह बहुत अक़्लमंद और आलिम है और फ़ैलसूफ़ (दानिशमंद, आलिम) भी है या’नी मख़्लूक़ात के सारे तरीक़ों से वाक़िफ़ है और ख़लक़ी मज़्हब को जानता है ऐसा आदमी ज़रूर इक़रार करेगा कि ख़ुदा-ए-रज़्ज़ाक़ (रोज़ी रसां, ख़ुदा त’आला का नाम) की हुकूमत में माज़ी व हाल और इस्तिक़बाल का बहुत सा भेद है कि जो इन्सान की अक़्ल व फ़हम से दर्याफ़्त नहीं हो सकता है और अगर इल्हाम ना हो तो वो भेद हमेशा पोशीदा रहेगा क्योंकि अगर आलम बेहद ना हो तो भी वो हमारी नाक़िस अक़्ल से पहचाना नहीं जाता है और हक़ीक़त में वो जो हम देखते और पहचानते हैं सो आलम का एक छोटा जुज़ (हिस्सा) है और अगर ख़ल्क़त के तरीक़ों और हुकूमत में बहुत सी बातें हमारी अक़्ल व फ़हम से बाहर और ब’ईद हैं तो क्या त’अज्जुब कि मज़्हब में भी ऐसी बातें हों जिनके सबब को हम नहीं पहचान सकते हैं ये बात उन बातों को मौक़ूफ़ और रद्द नहीं करती है।

          दूसरे : अगर मज़्हब में ऐसी बातें हैं जो मख़्लूक़ात के तरीक़ों से मुवाफ़िक़त नहीं रखती हैं तो भी इस वजह से साबित नहीं होता कि नविश्ते बातिल हैं। क्योंकि ये ज़रूर नहीं कि हर एक बात जो हम नहीं जानते उन बातों से जो हम जानते हैं हक़ीक़ी मुवाफ़िक़त रखे। हम ख़ल्क़त के तरीक़ों में कभी-कभी बातें देखते हैं जोकि मुतफ़र्रिक़ (अलग) हैं लेकिन मज़्हब और मख़्लूक़ात के तरीक़े सब बातों में मुतफ़र्रिक़ (अलग) नहीं हैं बल्कि हम साबित करेंगे कि उन में बहुत सी मुशाबहत है।

          मो’जिज़ों का बयान और किताबों में बहुत साफ़ है इस सबब से हम बहुत बयान इस किताब में नहीं करते हैं। लेकिन एक बात याद करने के लायक़ है या’नी मो’जिज़े दो क़िस्म के हैं ज़ाहिरी और बातिनी। मो’जिज़ों को साबित करने के लिए ज़ाहिरी मो’जिज़े ज़रूर और दरकार हैं। मसलन मसीह का मुजस्सम होना या’नी उस की उलूहियत और इन्सानियत का मिलना और एक होना एक बातिनी मो’जिज़ा है और अगर कोई मो’जिज़ा उस के सबूत के लिए नज़िर (मिसाल) में अदा ना किया जाता तो कोई उस का यक़ीन नहीं करता और इल्हाम से कलाम करना या लिखना एक ऐसा मो’जिज़ा है कि अगर उस के साबित करने में और मो’जिज़े ना हों तो वो झूट और बातिल ठहरता है। पस अगर कोई दा’वा-ए-नुबूव्वत का करे और इस तरह कहे (कि वो एक निशान मांगते हैं और कहते हैं कि जब तक हम मो’जिज़े ना देखें हम यक़ीन ना करेंगे) उन से कह कि ख़ुदा ने अपने पिछले नबी को बग़ैर मो’जिज़े के भेजा है तो वो नबी बातिल बात कहता है और कोई अक़्लमंद आदमी उसे नबी ना मानेगा।

          दोम : कई बातें हैं जिनको हम अब मो’जिज़ा कहते हैं और जिनके बर-ख़िलाफ़ ख़ल्क़त से कोई तश्बीह नहीं निकलती और ख़ासकर इस बात के बर-ख़िलाफ़ कि दुनिया के शुरू में ख़ुदा से कलाम नाज़िल हुआ मुशाबहत के तौर पर कोई दलील उस के बर-ख़िलाफ़ नहीं हो सकती, क्योंकि मो’जिज़े से ये बात साबित होती है कि मख़्लूक़ात के तरीक़े हैं और ये मो’जिज़ा उस तरीक़े के बर-ख़िलाफ़ है। लेकिन शुरू में कोई तरीक़ा मा’लूम नहीं हुआ पस कोई बात क्यों ना हो ग़ैर तरीक़े की नहीं हो सकती थी। पस ये सवाल कि क्या शुरू में इल्हामी कलाम था मो’जिज़ों से ता’अल्लुक़ नहीं रखता। बल्कि इस बात के मुत’अल्लिक़ है कि आया इस बात पर काफ़ी व वाफ़ी गवाही है या नहीं। अगर काफ़ी गवाही साबित है कि शुरू में इल्हामी कलाम हुआ तो हमको इस का क़ुबूल करना वाजिब होता है। जैसे तवारीख़ों की बातें गवाही से साबित होती हैं वैसे ही इल्हाम से कलाम होना अगर दुनिया के शुरू का ज़िक्र है गवाही से साबित हो सकता है। जब पहला इन्सान बनाया गया तब वो उस तरीक़े से नहीं पैदा हुआ कि जिससे अब इन्सान पैदा होता है। तो वो ताक़त जिससे इन्सान मिट्टी से पैदा हुआ आगे को उस इन्सान के साथ इल्हाम से कलाम कर सकती थी अगर वो ऐसा करते तो ये मो’जिज़ा नहीं समझा जाता क्यों कि मख़्लूक़ात का कोई तरीक़ा मा’लूम नहीं था और तरीक़े के ना होने के सबब से कोई बात ख़िलाफ़ तरीक़े के नहीं हो सकती थी। अगर इक़रार करें कि दुनिया की पैदाइश एक मो’जिज़ा है तो इस से इल्हामी बात और दलाईल में कुछ ख़लल नहीं होता मसलन इक़रार किया गया कि मसीह बरसों तक मो’जिज़े दिखाता रहा तो कौन कहेगा कि उस का कोई मो’जिज़ा किसी और मो’जिज़े से बड़ा और अजीब नहीं हो सकता है। अब याद रखना चाहिए कि ना तवारीख़ में और ना किसी रिवायत में ज़िक्र है कि मज़्हब ईस्वी अक़्ल के वसीले से मौजूद हुआ लेकिन बर-अक्स इस के उन दोनों में मज़्कूर है कि मज़्हब इल्हाम से हुआ और ये मज़्कूर बात कुतुब इलाही में भी मुबय्यन (बयान) है। और ये बात ख़लक़ी मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ नहीं है। पस ग़ालिब है कि जैसा शुरू में कलाम नाज़िल हुआ वैसा ही उस के बाद भी नाज़िल हो सकता है।

          सोम : अगर कोई एतराज़ करके कहे कि पैदाइश के बाद जब तरीक़ा मुक़र्रर हुआ तब इल्हाम से कलाम नाज़िल करना तरीक़े के बर-ख़िलाफ़ है और तरीक़ों से उस का ग़ैर मुम्किन होना साबित होता है तो इस का जवाब ये है कि पहले तो हम नहीं जानते कि हमारी दुनिया और आलमों से कौनसी मुशाबहत रखती है पस साबित नहीं होता कि उन की तश्बीह इल्हाम से कलाम दीनी के बर-ख़िलाफ़ है या नहीं।

          दूसरे : हम इस दुनिया के तरीक़ों और तश्बीहों से ऐसे नावाक़िफ़ हैं कि हक़ीक़त में किसी बात को उन से साबित नहीं कर सकते हैं फिर जब हम मज़्हब की बातों की तश्बीह ढूंढें तो मख़्लूक़ात के आम माजरों में ना ढूँढना चाहिए बल्कि उस के अजाइबात में तलाश करना वाजिब है। मसलन तूफान व काल व ज़लज़ला वग़ैरह में। अगर कोई गर्म मुल्क में बयान करे कि उत्तर के मुल्क में दरिया बिल्कुल सख़्त हो जाते हैं ऐसा कि उन पर गाड़ी वग़ैरह इस तरह से चलती हैं जिस तरह यहां ख़ुशकी पर तो गर्म मुल्कों के लोग जिन्हों ने ऐसा हाल कभी नहीं देखा और ना सुना ज़रूर कहेंगे कि ये बात सच नहीं है बल्कि मख़्लूक़ात के तरीक़ों के बर-ख़िलाफ़ है क्योंकि यहां पानी सख़्त नहीं हो जाता है और इस का जवाब जैसा ऊपर बयान हुआ ये है कि हम मख़्लूक़ात के तरीक़ों से कमा-हक़्क़ा (जैसा उस का हक़ है) वाक़िफ़ नहीं हैं।

          पस साफ़ साबित है कि मख़्लूक़ात के तरीक़ों में कोई मुशाबहत या दलील मो’जिज़ों के बर-ख़िलाफ़ नहीं पाई जाती है।



तीसरा बाब

इस बात के बयान में कि हम इस क़ाबिल नहीं हैं कि
इल्हामी कलाम पर ठीक इन्साफ़ करके बतला सकें कि उन
में कौन-कौन सी बातें होनी चाहिए लेकिन मुशाबहत पर
लिहाज़ करने से ग़ालिब मा’लूम होता है ख़ुदा के कलाम में
बहुत सी बातें होनी चाहिए जिनको हम नहीं समझते

          बा’ज़ आदमी ना सिर्फ मसीही मज़्हब की दलीलों पर बल्कि उस की अस्लियत पर भी एतराज़ करते हैं। उस के नाज़िल होने और ज़मीन पर जारी होने के तरीक़ों पर एतराज़ करते और कहते हैं कि किताब-ए-मुक़द्दस कई बातों में नाक़िस है और उस की अक्सर बातें बेवक़ूफ़ी मा’लूम होती हैं और बहुत सी बातें जिनके बा’इस इन्सान ठोकर खाते हैं और बातिल बातों को सरगर्मी से मानते और ज़बरदस्ती भी करते हैं। और वह आम किताब मज़्हब नहीं है और उस की दलीलें ऐसी मज़्बूत और तासीर पज़ीर नहीं हैं जैसी चाहिए। फ़ुर्सत नहीं कि सभों के एतराज़ जो अपने-अपने ख़याल के मुताबिक़ करते हैं बयान करें। बा’ज़ आदमी किताब अक़्दस पर इसलिए एतराज़ करते हैं कि वो इल्मी फ़साहत और बलाग़त के क़वाइद के मुवाफ़िक़ नहीं लिखी गई। और बा’ज़ लोग सहाइफ़ अम्बिया से बिल्कुल नफ़रत करते हैं इसलिए कि उन में तम्सीलें हैं जो समझ में जल्दी नहीं आतीं। अगले बाबों में ये बातें मज़्कूर खुल जाएँगी। लेकिन इस तरह के एतराज़ात की बाबत अब ये कहते हैं कि हम इस किताब और मज़्हब पर एतराज़ करने के क़ाबिल नहीं हैं।

          पस अगरचे मज़्हब ईस्वी की दलीलों को दर्याफ़्त करना अच्छा है ताहम वो एतराज़ जो ऊपर मज़्कूर हुए बातिल हैं। हम अपनी अक़्ल को नाचीज़ नहीं जानते हैं इसलिए अगर किसी मज़्हबी किताब में इख़्तिलाफ़ पाए जाएं और बुरे कामों की मुमानिअत मज़्कूर ना हो तो अक़्ल कहती है कि वो किताब ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल नहीं हुई। अब हम मसीही मज़्हब की दलीलों पर नहीं बल्कि एतराज़ात मज़्कूर बाला पर लिहाज़ करके उन को मुशाबहत की मदद से रद्द करेंगे।

          जैसा ख़ुदा जहान की हुकूमत करता और अपनी मख़्लूक़ को उन आईन और क़वानीन के मुताबिक़ जो उन अक़्ल और तजुर्बे कारी से मा’लूम हो सकते हैं ता’लीम देता है वैसा ही नविश्ते हम को एक और इलाही तदबीर की ख़बर देते हैं और उन्हें नविश्तों में मज़्कूर है कि ख़ुदा ने बा’ज़ आदमियों को इल्हाम से अपनी हुकूमत की बाबत ऐसी ख़बर दी जैसे कि वो और तरह से हासिल नहीं कर सकते थे और उन को ऐसी बातें याद दिलाईं जैसे कि वो और तरह से नहीं सीख सकते थे और अपने तमाम कलाम को मो’जिज़ों से बिल्कुल सबूत को पहुंचा दिया है। अगर अक़्ली और इल्हामी तदबीर और हुकूमत दोनों ख़ुदा से हैं और वो आपस में मुवाफ़िक़त रखते हैं और हम एक को मसलन अक़्ली तदबीर को साफ़ नहीं समझ सकते हैं तो ग़ालिब बल्कि अग़्लब (मुम्किन) है कि हम इल्हामी तदबीर को भी साफ़ ना समझ सकें।

          मख़्लूक़ात के क़ा’एदे और तरीक़े अक्सर मख़्फ़ी (छिपी) और मुख़्तलिफ़ और हमारी अक़्ल के बर-ख़िलाफ़ भी मा’लूम देते हैं और अक्सर लोग सोचते हैं कि वो एतराज़ के क़ाबिल हैं तो क्या त’अज्जुब है कि इन्सान कभी-कभी इल्हामी मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ और ख़ासकर उन मो’जिज़ों और तरीक़ों के बर-ख़िलाफ़ जिनसे वो मुक़र्रर और साबित किया गया देखें। मसलन अगर कोई बादशाह अपने मुल्क की हुकूमत मिस्ल दीगर मशहूर क़ौमों के अच्छी और बेहतरीन तरह से करता है और उस मुल्क का कोई बाशिंदा जो हुकूमत के क़वानीन से वाक़फ़ियत ना रखता हो तो उस आदमी को मुतलक़ मा’लूम नहीं हो सकता कि किस हालत में और कहाँ तक वो क़वानीन मन्सूख़ या मुबद्दल (तब्दील शूदा, बदला हुआ) होने चाहिऐं।

          अगर वो मुरव्वजा हाल की हुकूमत से वाक़िफ़ नहीं है तो कौन कह सकता है कि वो अजीबो-गरीब हाल की हुकूमत पर ठीक इन्साफ़ कर सकता है। अगर वो पहली हालत की हुकूमत पर एतराज़ करे तो पिछली हालत की हुकूमत पर भी ज़रूर एतराज़ करेगा। वैसे ही अगर वो दुनिया के तरीक़ों की बाबत ग़लती करता है तो क्यूँ-कर इल्हामी कलाम पर इल्ज़ाम ना लगाएगा।

          और ये मज़्कूर बातें जो मसीही मज़्हब से इलाक़ा रखती हैं इल्हाम के हक़ में निहायत मुफ़ीद हैं। जैसा हम पहले से नहीं जानते कि ख़ुदा किस तरीक़े से या किस दर्जे पर या किस वसीले से हमारी तर्बियत करे वैसा ही अगर मा’लूम हो कि वो बज़रीया इल्हाम हमको वो बातें जो हम इल्म व अक़्ल की रू से नहीं सीख सकते हैं सिखलाए तो हम किसी तरह से ये नहीं बतला सकते कि वो ये रोशनी और ता’लीम हमको किस क़द्र दे। लेकिन शायद कोई कहे कि इल्हाम जो लिखा ना जाता तो ख़ुदा के मक़्सद के लायक़ ना होता मैं पूछता हूँ कि कौन मक़्सद के लायक़। हर एक मुराद जो वो पूरी करनी चाहता है तो उस से पूरी होती है पस और भी उस से पूरी होती अगर इल्हाम लिखा ना जाता। और हम आगे से नहीं बतला सकते कि उस का क्या मक़्सद है और वो क्या चाहता है। और अगर हम आगे से नहीं जान सकते थे कि कौनसा कलाम ज़रूर है या वो किस तरह से नाज़िल किया जाये तो उस के ऊपर जो नाज़िल हुआ है एतराज़ करना बिल्कुल बातिल है और हम नहीं कह सकते कि ये कलाम और ये मज़्हब कौनसे इंतिज़ाम के बर-ख़िलाफ़ है क्योंकि हम किसी तरह से ख़याल नहीं कर सकते कि कौनसा मज़्हब ज़रुर है।

          इन बातों से मा’लूम होता है कि मज़्हब ईस्वी के बर-ख़िलाफ़ सिर्फ यही एक एतराज़ है कि आया वो फ़िल-हक़ीक़त इल्हाम से दिया गया या नहीं और क्या वो ऐसा ही है जैसा वो दा’वा करता है या नहीं। पस अगर कोई शख़्स साबित ना करे कि उस के अख़्लाक़ी क़वानीन नाक़िस हैं और मज़्हब ईस्वी के सबूत में मो’जिज़े दिखलाए नहीं गए और उस का फैल जाना और अज्र पाना ख़ुद मो’जिज़ा नहीं है और जो पेश गोईयां उस में मज़्कूर हैं वो पेश गोईयां नहीं हैं तो इक़रार करना पड़ेगा कि ये मज़्हब ख़ुदा की तरफ़ से है और सभों पर फ़र्ज़ है कि उस को क़ुबूल करें। और जैसा कि हम और किताबों पर इन्साफ़ करते हैं वैसा कुतुब इलाही पर इन्साफ़ नहीं कर सकते। मसलन जब बाइबल में कोई बात भेद की मा’लूम होती है तो हम नहीं कह सकते कि उस के म’अनी फ़ुलां नहीं हैं अगर होते तो ज़्यादा साफ़ लिखा जाता बल्कि सिर्फ ये सवाल होता है कि फ़ुलां म’अनी के क्या-क्या सबूत हैं।

          सवाल : क्या ये ख़ुद मा’लूम नहीं होता है कि हर एक बात जो किसी किताब में ग़ैर मुहतमल (ग़ैर मशुक़ूक़, जिस पर शक ना हो) हो उस किताब की अगली दलीलों को कमज़ोर करती है हाँ अलबत्ता लेकिन हमें ये कहना ना चाहिए कि ये बात या वो बात ग़ैर मुहतमल है क्यों कि ख़ुदा से सब कुछ मुम्किन है तो भी हमने पेश्तर साबित किया कि जो बात सच्चे गवाहों से साबित हो दुरुस्त है।

          मज़्कूर बातों से मा’लूम होता है कि हम इलाही ता’लीम पाने से पेश्तर नहीं कह सकते कि किस तरह की इलाही ता’लीम ज़रूर है जैसा कि हम मख़्लूक़ात के तरीक़ों की पहचान में ग़लती किया करते हैं वैसे ही इलाही बातों में ग़लती करते हैं। मसलन कैसी त’अज्जुब की बात है बल्कि ब’ईद-उल-क़यास (क़ियास के ख़िलाफ़) है कि इन्सान इल्म नुजूम में ज़्यादा होशियार और वाक़िफ़-कार हों बनिस्बत इल्म तबाबत के जिस पर बहुत से बीमारों की ज़िंदगी मौक़ूफ़ है और ये भी ब’ईद-उल-क़यास (क़ियास के ख़िलाफ़) बात है कि कई एक बात में हैवान इन्सान से होशियार हों। लेकिन जब ये मज़्कूर बातें साबित हों तो हम शक नहीं करते हैं। पस अगर मज़्हब में ब’ईद-उल-क़यास (क़ियास के ख़िलाफ़) बातें हों तो भी जब गवाही और मो’जिज़ों और तजुर्बे-कारी से साबित हों तो क़ुबूल करना लाज़िम आता है। अब हम इन बातों को एक ख़ास मतलब पर लगा के एक एतराज़ को रद्द करेंगे। नविश्तों से मा’लूम होता है कि हवारियों के ज़माने में अक्सर मसीही हो कर तरह-तरह की अजीब ताक़त और लियाक़त पाते थे और कभी-कभी बा’ज़ अपनी अजीब ताक़त को बुरे काम में लाते थे। अब मो’तरिज़ कहते हैं कि इस से साबित होता है कि वो अजीब ताक़त व लियाक़त मो’जिज़ों की सूरत नहीं रखते हैं क्यों कि उन से बुरे नतीजे निकलते थे।

          अब यहां ख़याल करो कि अगर कोई शख़्स लियाक़तें रखता हो मसलन ग़ैर ज़बानें बोलना तो वो शख़्स इस लियाक़त के ऊपर जो उसे बख़्शिश से मिली ऐसा इख़्तियार रखता है जैसे वो शख़्स जिसने ऐसी लियाक़त पढ़ने और सीखने से या और किसी तरह से हासिल की। पस वो उस को अपनी अक़्ल के मुवाफ़िक़ जैसे और लियाक़त को अपने काम में लाता है लाता रहेगा और शायद कभी अच्छा होगा और कभी अच्छा ना होगा तो एतराज़ कहाँ रहा। कोई ना कहे कि ख़ुदा को चाहिए था कि और बड़ा मो’जिज़ा करके इन्सान को पहले अक़्ल देने की और तरह से कामिलियत अता करके मो’जिज़ा दिखलाने की ताक़त दे। क्योंकि हम कभी नहीं देखते हैं कि सबसे लायक़ आदमियों को सबसे उम्दा लियाक़तें दी गई हों। मसलन अक्सर बहुत बुरे आदमियों को अच्छी लियाक़तें जैसे तेज़ फ़हमी व हाफ़िज़ा और फ़साहत वग़ैरह दी हैं।

          कई और बातें हैं जिनसे हमको मा’लूम होता है कि इल्हाम और मख़्लूक़ात की रोशनी में मुशाबहत है। मुस्त’अमल मसीही मज़्हब या वो ईमान और आमाल जिसके ज़रीये से आदमी मसीही समझा जाता है बहुत और ज़ाहिर है और उन क़वानीन के मुवाफ़िक़ है कि जिनसे हमारे दुनियावी काम और आदतें दुरुस्त की जाती हैं। लेकिन उस रुहानी इल्म की ज़ाहिरी बातों को साफ़ और सहीह जानना जिसको पौलूस रसूल कामिलियत तक बढ़ जाना कहता है और पेश गोइयों के भेद का समझना मिस्ल इल्म नातिक़ा (ताक़त-ए-गोयाई, बोलने की क़ुव्वत) और इल्म इंतिज़ाम माद्दा के निहायत मुश्किल है और बग़ैर कमाल कोशिश के हमको हासिल ना होगा। और जिस्मानी और आस्मानी इल्म की रोक भी एक ही तरह की हैं।

          इस बात का इक़रार किया गया कि मज़्हब के सब तरीक़े और तदबीरें अब तक कमा-हक़्क़ा (जैसा उस का हक़ है) समझ में नहीं आती हैं और अगर वो क़ियामत से पहले बग़ैर मो’जिज़े की मदद के साफ़ मा’लूम हों तो जैसा और इल्म हमको बज़रीये कोशिश के हासिल होते हैं वैसे ही ये रुहानी और मज़्हबी इल्म हमको कोशिश से हासिल होगा कि इल्म और आज़ादगी की तरक़्क़ी होती रहेंगी और बा’ज़ आदमी कोशिश से उन बातों को जो पोशीदा और इन्सान से छिपी हुई हैं तश्बीहें लाके दर्याफ़्त करेंगे इसी तरह से आदमी और इल्मों को पढ़ाते हैं। और ग़ालिब है कि बाइबल अगरचे बहुत बरसों से इन्सान की समझ और फ़हम में नहीं आएं हैं। उन्हें पिछले ज़मानों में और इल्मों में नए-नए माजरे और बातें दर्याफ़्त हुईं और ये बातें नई भी नहीं हैं। (क्योंकि शुरू से मौजूद हैं लेकिन इन ज़मानों में दर्याफ़्त की गईं वैसे ही शायद वाक़े’अ् होते हुए माजरे कुतुब इलाही के किसी हिस्से का भेद खोल देंगे।

          शायद मो’तरिज़ कहे कि नविश्ते (सहीफे) बतलाते हैं कि दुनिया हलाकत की हालत में है और कि मसीही मज़्हब एक तदबीर है कि जिससे दुनिया समझ जाये और कि वो जिस क़द्र मख़्लूक़ात की रोशनी कम है उस क़द्र रोशनी को बढ़ा के पूरा करे। तो क्या ये क़ाबिल यक़ीन के है कि ऐसी अच्छी तदबीर इतने बहुत ज़मानों तक इन्सान से पोशीदा रहे और वह सिर्फ थोड़े लोगों पर ज़ाहिर हो और क्या अग़्लब (मुम्किन) है कि उस में इतनी बहुत बातें बाक़ी रहें और इतनी और बातें शक व शुब्हा के बादलों से ढकी हुई हों। और लोग उन में भूल चूक करें और उन पर हर तरह का एतराज़ कर सकें जैसा कि वो मख़्लूक़ात की रोशनी पर एतराज़ करते हैं।

          मैं नहीं कहता हूँ कि मज़्कूर बातें किस क़द्र सच्ची हैं लेकिन जवाब देता हूँ कि वो मुम्किन हैं और ख़ास कर अगर मख़्लूक़ात और इल्हाम दोनों की रोशनी का बानी एक ही है तो अग़्लब (मुम्किन) है कि वो दोनों एक ही नमूने पर होंगे।

          तरह-तरह की बीमारियां होती हैं और ख़ुदा ने ख़ल्क़त की बहुत अश्या उन्हीं बीमारियों के ईलाज के लिए पैदा किए हैं तो भी ज़मानों तक उन इलाजों की ख़बर पोशीदा रही और अब तक सिर्फ थोड़े आदमी उन को जानते हैं और शायद और बहुत से ईलाज हैं जो अब तक किसी को मा’लूम नहीं हैं और उन दवाओं की तासीर पहचानना और उनका इस्तिमाल करना निहायत मुश्किल है यहां तक उनका देना अक्सर बहुत दुशवार है क्योंकि जो सबसे मुफ़ीद हैं अगर बे-मौक़ा और बेवक़्त दी जाएं तो और बीमारियां उन से पैदा होती हैं और मौत भी पेश आती है इसलिए आदमी उन को नहीं खाते क्योंकि सोचते हैं कि दवा का खाना बीमारी से भी ख़राब होगा और लोग उन को नहीं जान सकते हैं। मुख़्तसरन ईलाज की वो अश्या जो ख़ल्क़त में पैदा होती हैं हमेशा चंगा नहीं करती हैं और वो कामिल नहीं और सभों को चंगा नहीं करती हैं। क्या कोई कहेगा कि किसी बीमारी का ईलाज नहीं है। हरगिज़ नहीं। वैसे ही हरगिज़ ना कहना चाहिए कि इल्हामी कलाम नहीं है।

          और अब इन तमाम बातों का क्या नतीजा है क्या ये अक़्ल इल्हाम इलाही पर किसी तरह से इन्साफ़ नहीं कर सकती है। नहीं। इन्सान की अक़्ल क़ाबिल है बल्कि उस का काम यही है कि नविश्तों के म’अनी और और अक़्ली दलीलों पर इन्साफ़ और इम्तियाज़ करे। और तमीज़ करे कि आया नविश्तों में दानिश और इन्साफ़ और नेकी के बर-ख़िलाफ़ कुछ मज़्कूर है या नहीं। पर कलाम इलाही में ऐसी बात कोई नहीं है। और किसी ने कभी नहीं कहा कि उस में ऐसी बात है जो दानिश या इन्साफ़ और नेकी के ख़िलाफ़ है हाँ अलबत्ता बाइबल में कई हुक्म मज़्कूर हैं जिनमें बेरहमी या बे-इंसाफ़ी मा’लूम होती है लेकिन जब उन हुक्मों का सबब मा’लूम हुआ तो कोई उन पर एतराज़ नहीं कर सकता है। पस साबित है कि कोई एतराज़ मज़्हब ईस्वी की तदबीर के बर-ख़िलाफ़ नहीं रह सकता है और अगर कोई एतराज़ करे तो वो उस की दलीलों पर एतराज़ करके उन को रद्द करे वर्ना उस को क़ुबूल करके माने।



चौथा बाब

इस बयान में कि मसीही मज़्हब एक तदबीर है कि जिसको
हम लोग साफ़ व सहीह नहीं समझ सकते हैं

          हम लोग मसीही तदबीर को साफ़ व सहीह नहीं समझ सकते हैं लेकिन ये कुछ बात नहीं है क्योंकि मख़्लूक़ात की तदबीरें और तरीक़े हमारी नाक़िस अक़्ल और फ़हम से साफ़ मा’लूम नहीं हो सकते हैं। पस उन की मुशाबहत से बख़ूबी साफ़ साबित होता है कि अगर इल्हामी कलाम हो उसी में बहुत सी बातें ज़रूर हमारी समझ में नहीं आ सकेंगी।

          अव़्वल : मसीही मज़्हब या’नी कलाम इलाही एक तदबीर है जो हमारी समझ में साफ़ नहीं आती है। ख़ुदा की हुकूमत इसी तरह से जारी रहती है कि ख़ुदा-ए-रज़्ज़ाक़ के हुक्म से मख़्लूक़ात की मदद से हर एक आदमी अक्सर आख़िरकार अपने कुल काम का बदला पाता है। और ना फ़रेब ना ज़बरदस्ती बल्कि सच्चाई और दियानतदारी ग़लबा है।

          मसीही मज़्हब इस हुकूमत में एक तदबीर है कि जिसकी मदद से राज़िक़ की हुकूमत इन्सान की बाबत पूरी और कामिल होती है और इस ख़ास तदबीर या’नी मज़्हब ईस्वी में तरह-तरह की जज़ा और तदबीरें हैं जो कि इन्सान की पस्त हाली के शुरू से अब तक उस के बचाने के वास्ते काम आती हैं इलाही वजूद या’नी मसीह के वसीले से ख़ुदा के फ़रज़न्दों को जो परागंदा हुए बाहम जमा करेगा और एक अबदी बादशाहत को जिसमें रास्त-बाज़ी बस्ती है क़ाएम करेगा।

          और राज़िक़ की तदबीर के पूरा करने के लिए बहुत ज़मानों के अर्से में तरह-तरह के मो’जिज़े और करामात व अजायबात ज़हूर में आए क्यों कि मसीह की रूह जो उन में (या’नी नबियों में) थी जब मसीह के दुखों की और उस के बाद उसके जलाल की गवाही आगे देती थी सो उन पर ये ज़ाहिर हुआ कि वो ना अपने बल्कि हमारी ख़िदमत के लिए वो बातें कहते थे जिनकी ख़बर तुमको उन की मा’रिफ़त मिली जिन्हों ने रूह-उल-क़ुद्स की क़ुद्रत से जो आस्मान से नाज़िल हुई तुम्हें इन्जील की ख़ुशख़बरी दी और इन बातों को दर्याफ़्त करने के फ़रिश्ते मुश्ताक़ हैं। (1 पतरस 1:11-12)

          और कई इल्हामों के बाद जिन्हों ने इस नजात की पेश ख़बरी देकर उस की तैयारी भी की जब वक़्त पूरा हुआ तब आलिमुल-गैब ने मुनासिब जाना “उस ने ख़ुदा की सूरत में होके ख़ुदा के बराबर होना ग़नीमत ना जाना लेकिन उस ने आपको नीचा (छोटा) किया और ख़ादिम की सूरत इख़्तियार की और आदमी बना और आदमी की सूरत में ज़ाहिर हो कर (अपने) आपको पस्त किया और मरने तक बल्कि सलीबी मौत तक फ़रमांबर्दार रहा इस वास्ते ख़ुदा ने उसे बहुत सर्फ़राज़ किया और उस को ऐसा नाम जो सब नामों से बुज़ुर्ग है बख़्शा ताकि येसू के नाम पर हर एक क्या आस्मानी क्या ज़मीनी क्या वो जो ज़मीन के तले हैं घुटना टेके और हर एक ज़बान इक़रार करे कि येसू मसीह ख़ुदावन्द है ताकि ख़ुदा बाप का जलाल हो।” (फिलिप्पीयों 2:6-11) और इस तदबीर के हिस्से और जुज़ में ज़ेल की बातें भी शामिल हैं कि रूह-उल-क़ुद्स के करामाती काम और वो मदद जो वो नेक आदमियों को रोज़ बरोज़ देता है और वो ग़ैबी हुकूमत को जिससे आज तक मसीह अपनी कलीसिया को बतर्तीब रखता है और जो उस ने कहा कि “मेरे बाप के घर में बहुत मकान हैं” और उस के दूसरी दफ़ा’अ् आने का जब वो रास्त-बाज़ी से दुनिया का इन्साफ़ करेगा और ख़ुदा की बादशाहत को क़ाएम करेगा क्योंकि बाप किसी शख़्स की अदालत नहीं करता बल्कि उस ने सारी अदालत बेटे को सौंप दी है ताकि सब बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह से कि बाप की इज़्ज़त करते हैं।” (यूहन्ना 5:22-23) “येसू ने कहा कि “आस्मान और ज़मीन का सारा इख़्तियार मुझे दिया गया।” (मत्ती 28:18) “क्योंकि जब तक कि वो सारे दुश्मनों को अपने पांव तले ना लाए ज़रूर है कि सल्तनत करे बाद इस के आख़िरत है तब वो बादशाहत ख़ुदा की जो बाप है सपुर्द करेगा और सारी हुकूमत और सारे इख़्तियार और क़ुद्रत को नेस्त कर देगा और जब सब कुछ उस के ताबे में आएगा तब बेटा आप ही उस का ता’बेदार हो जाएगा जिसने सब चीज़ें उस के ताबे कर दीं ताकि ख़ुदा सब में से सब कुछ हो।” (1 कुरिन्थियों 15:24) ये सब उस तदबीर की जुज़्वों (हिस्सों) में शामिल है और बिला-शक कुछ कहना ज़रूर नहीं कि जिससे साबित हो कि ऐसा तदबीर हमारी नाक़िस अक़्ल से ब’ईद और बाहर है और हम उसे साफ़ नहीं समझते हैं और बाइबल में भी ये बात मज़्कूर है और बिल-इत्तिफ़ाक़ दीनदारी का बड़ा भेद है। और हर एक बाब और आयत में कोई बात होगी जिसको हम नहीं समझते हैं जैसा कि मख़्लूक़ात की हर एक बात में भेद है जो समझ में नहीं आता है। और जो कोई ग़ौर करके मसीही मज़्हब को जो ज़ाहिर किया गया कलाम इलाही में मा’लूम करेगा कि बनिस्बत उन बातों के जो ज़ाहिर की गई हैं बहुत सी बातें हैं जिनका बयान और ज़िक्र भी नहीं किया गया ताकि जैसा हम अपनी नादानी के सबब मख़्लूक़ात के तरीक़ों पर एतराज़ नहीं कर सकते ऐसा ही हम अपनी कम अक़्ली के बा’इस इल्हामी मज़्हब पर भी एतराज़ नहीं कर सकते हैं।

          दोम : और ज़ाहिर है कि जैसा मख़्लूक़ात के तरीक़ों में वैसा ही मसीही मज़्हब में वसीले इस्तिमाल होते हैं ताकि नताइज निकलें और मुतालिब पूरे हों और इसी तरह से हम उस को जो मसीही मज़्हब की कामिलियत पर एतराज़ करे जवाब दे सकते हैं इस बात से मा’लूम होता है कि शायद वही बात जिससे मो’तरिज़ ठोकर खाता है एक सबसे अच्छा वसीला है जिससे अच्छा नतीजा निकलता है और अगरचे कोई बात बेवक़ूफ़ी मा’लूम हो तो भी अग़्लब (मुम्किन) है कि वो बड़ी हिक्मत है क्यों कि ये तमाम तदबीर जो हमारी समझ से बाहर है हिक्मत से बनी है।

          सोम : अग़्लब (मुम्किन) है कि मसीही तदबीर शुरू से आम क़वानीन और तरीक़ों के मुताबिक़ जारी है। लेकिन इस बात को हम कुछ मुख़्तसरन बयान करेंगे। ख़याल करो जब हम कहें कि मख़्लूक़ात फ़ुलांने आम तरीक़ों के मुताबिक़ चलती है तो हमारा क्या मतलब है। या’नी एक चीज़ दूसरी शए पर असर करके कुछ नतीजा और तब्दील पैदा करती है हम माद्दे के चंद आम क़वानीन को जानते हैं और जानदारों की अक्सर हरकतें भी आम क़वानीन के मुताबिक़ होती हैं। लेकिन हम बिल्कुल नहीं जानते कि तूफ़ान व आंधी विव भोंचाल व काल व वबा और मरी किस तरीक़े के मुताबिक़ लोगों को हलाक करते हैं और हम नहीं जानते कि किस क़ानून के मुताबिक़ ऐसा होता है कि लड़के जो फ़ुलां जगह और फ़ुलां वक़्त पर पैदा होते हैं फ़ुलां ताक़त और लियाक़त रखते हैं। और हम इस से बिल्कुल नावाक़िफ़ हैं कि किस तरह से ख़यालात हमारे दिलों में आते हैं। ऐसी ऐसी बातें अगरचे बहुत ही तासीर पज़ीर हों ताहम उन के क़ानून और तरीक़े हमको नामा’लूम हैं यहां तक कि ऐसी बातें इत्तिफ़ाक़िया या क़िस्मती कहलाती हैं लेकिन आक़िल व फ़ाज़िल आदमी जानते हैं कि क़िस्मत नहीं है तो अग़्लब (मुम्किन) है कि ऐसी बातें किसी नामा’लूम क़ानून के मुताबिक़ होती हैं। अब हम मख़्लूक़ात के सिर्फ थोड़े तरीक़ों और आम क़वानीन को दर्याफ़्त कर सकते हैं और सिर्फ मुशाबहत की मदद से मा’लूम कर सकते हैं कि कुछ क़ानून और तरीक़े ज़ाहिर हैं तो अग़्लब (मुम्किन) है कि सब माजरे आम क़वानीन के मुताबिक़ चलते हों। वैसे ही जब हम देखते हैं कि मज़्हब ईस्वी में कई बातें हैं जो हम क़ानून के मुताबिक़ चलते हैं तो हम कह सकते हैं कि अग़्लब (मुम्किन) है कि सब मो’जिज़े व करामात और सब बातें जिनका मतलब और पूरा अंजाम हम अब तक नहीं पहचानते आम क़वानीन और दस्तूरों के मुताबिक़ जो पेश्तर मुक़र्रर हुए चलते होंगे और अगरचे ये क़वानीन और दस्तूर हमको मा’लूम नहीं तो वैसे ही हमको वो सब नामा’लूम है कि जिससे बा’ज़ आदमी पैदा होने के वक़्त मर जाते हैं और बा’ज़ आदमी उम्र दराज़ी तक ज़िंदा रहते हैं और बा’ज़ आदमी अक़्लमंद और हिक्मत अंगेज़ हैं और बा’ज़ अनक़रीब ख़बती और अहमक़ होते हैं अला-हाज़-उल-क़यास मख़्लूक़ात में नुक़्स और ख़िलाफ़-ए-दस्तूर और बे-तर्तीबी इस सबब से मा’लूम होती है कि हम उस के सब तरीक़ों और दस्तूरों और तर्तीबों से वाक़िफ़ नहीं हैं पस अग़्लब (मुम्किन) है कि जो नुक़्स और बे-तर्तीबी या ख़िलाफ़ दस्तूरी मसीही मज़्हब में मा’लूम हो उस का बा’इस ये है कि हम लोग उस की कुल तर्तीब से वाक़िफ़ नहीं हैं लेकिन इस तमाम मुबाहिसे में याद रखना चाहिए कि जो मतलब और ज़रूरत मज़्हब की हम रखते हैं सब मसीही मज़्हब में पाई जाती है कि हम लोग जीते जी उस के ज़रीये से अपनी सारी बदी और गुनाह और लाचारी से और शैतान के फ़रेब और जाल से बच कर मरते ही जन्नत में दाख़िल हो सकते हैं और बस फिर हमने अबवाब साबिक़ में सब एतराज़ों को जो मसीही मज़्हब की तदबीर के बर-ख़िलाफ़ किए जाते हैं बिल्कुल रद्द किया है और जो कुछ उस की हिक्मत और भलाई के बर-ख़िलाफ़ कहा गया वो भी रद्द हुआ लेकिन एक और बात जो उस के कुल बंदो-बस्त के मुख़ालिफ़त में कही जाती है हम इसी बाब में रद्द करेंगे और कोई और बाब उस के रद्द के लिए मुक़र्रर ना करेंगे वो बात ये है कि कहते हैं कि मसीही मज़्हब से मा’लूम हुआ कि जिस तरह इन्सान अपनी कम अक़्ली के बा’इस अपने तमाम मुतालिब को तदबीरों और वसीलों की मदद से पहचानता है वैसे ही ख़ुदा अपने मतलब को बे-तदबीर और बे-वसीला ज़ाहिर नहीं कर सकता है मगर ऐसा एतराज़ मह्ज़ बेवक़ूफ़ी है जैसा ज़ेल की बातों से मा’लूम होगा हम अपनी बाबत जानते हैं कि हम कौन से वसीले फ़ुलां मतलब के हासिल करने के वास्ते इस्तिमाल करते हैं लेकिन ख़ुदा की बाबत हम नहीं जानते हैं अलबत्ता हम सोचते हैं कि वो फ़ुलां वसीलों से फ़ुलां नतीजे निकालता है लेकिन ये हमको नहीं मा’लूम कि इस के कामों में कौन-कौन बातें वसीले हैं और कौन सी बातें नतीजे हैं पस इस बात को छोड़कर याद रखना चाहिए कि वही हिक्मत जो कि मख़्लूक़ात की तरीक़ों में पाई जाती है मज़्हब ईस्वी में भी ज़ाहिर है कि अगरचे इन्सान बेसबर होते हैं और जो हो सकता तो जल्द बे-सोचे और बग़ैर तदबीर बर आने और नतीजा निकालने के अपने अंजाम तक पहुंचते तो भी ख़ुदा ऐसा नहीं है बल्कि ऐसी तदबीरें काम में लाता है कि सब कुछ तफ़्सील-वार होता जाता है मसलन मौसमों का बदलना और अनाज का पकना एक भूल का तज़्किरा और इन्सान की ज़िंदगी इस बात को साबित करती हैं नबातात और हैवानात के अज्साम शायद एक दम से पैदा होते हैं लेकिन दर्जा बदर्जा कामिलियत तक पहुंचते हैं और हैवान-ए-नातिक़ भी हर एक अपने दस्तूर और चाल-चलन के तरीक़े इल्म के सीखते और बरसों इस्तिमाल में लाने से जानते हैं। हमारी ज़िंदगी का एक वक़्त दूसरे वक़्त की तैयारी की फ़ुर्सत है कि बचपन से आलम जवानी तक और आलम जवानी से बुढ़ापे तक इन्सान सिलसिले-वार बढ़ता जाता है और इसी तरह मसीही मज़्हब में ज़रीये और वसीले और नतीजे हैं और बस।



पांचवां बाब

मसीही मज़्हब की ख़ास तदबीर का बयान

          या’नी शफ़ी (शफ़ा’अत करने वाले) का मुक़र्रर होना और उस के वसीले से दुनिया का बचाया जाना मसीह की शफ़ा’अत के बारे में। मसीही मज़्हब की कोई और बात नहीं है कि जिस पर इतने एतराज़ किए गए हैं तो भी हमारे नज़्दीक कोई और बात उस की निस्बत कम एतराज़ के लायक़ नहीं है।

          अव़्वल : मख़्लूक़ात की कुल मुशाबहत के देखने से हमें हर सूरत से अग़्लब (मुम्किन) मा’लूम होता है कि ख़ुदा और आदमियों के बीच में एक दर्मियानी है क्यों कि हम देखते हैं कि सब जानदारों के बच्चे पैदा होते और बचपन में रिज़्क़ पाते हैं और उन की ज़िंदगी की हर एक ज़रूरत ऐसे वसीले से उन को मिलती है ऐसा कि वो ज़ाहिरी हुकूमत जो ख़ुदा दुनिया के ऊपर करता है सब किसी वसीलों से की जाती है और जिस क़द्र उस की अनदेखी हुकूमत वसीलों से है हम लोग अक़्ल से दर्याफ़्त नहीं कर सकते हैं और अगर हम कहें कि उस का एक हिस्सा वसीलों से है तो ये ज़रूर क़ाबिल यक़ीन है बनिस्बत उस के बर-अक्स कहते कि पस मख़्लूक़ात की रोशनी से किसी तरह का इन्जील की इस बात पर कि ख़ुदा और आदमियों के बीच में वसीला है नहीं निकलता है क्योंकि हम अपने तजुर्बे में मा’लूम करते हैं कि ख़ुदा हमको भलाई व बुराई सज़ा व जज़ा और इन्साफ़ व रहमत वसीलों की मा’रिफ़त पहुँचाता है।

          दोम : इस इल्हामी ता’लीम का मुबाहिसा या’नी मसीह की मा’रिफ़त दुनिया की नजात से पहले हमें यक़ीन करना पड़ता है कि ये दुनिया ख़ुदा की हुकूमत में या’नी मज़्हब की हालत में है अब ख़ुदा की हुकूमत जो मसीही मज़्हब में मुबय्यन (बयान किया हुआ) है सिखाती है कि ख़ुदा के नेक इन्साफ़ से गुनाह का नतीजा किसी आइन्दा हाल में दुख व तकलीफ़ होगा और अगरचे हम किसी तरह से मा’लूम नहीं कर सकते हैं कि किस सबब से या किस मतलब पर ज़रूर है कि आइन्दा की सज़ा दी जाये या किस तरह वो दुख गुनाह का नतीजा है और कि वो सज़ा किस के वसीले से या किस तरह से किसी पर आएगी तो भी इस बात का कहना बेवक़ूफ़ी नहीं है कि जैसा हाल में बा’ज़ बा’ज़ बुरे कामों का नतीजा बीमारी, दुख, रंज, तंगी, बदनामी और बीमारी से या सरकार के हुक्म से मौत है इसी तरह बड़े कामों का नतीजा आगे को बुरा होगा अगर हम कहें कि ख़ुदा की असली हुकूमत और बंदो-बस्त के बमूजब गुनाह का बुरा नतीजा असलियतन गुनेहगार पर पड़ेगा जैसा कि कोई आदमी ज़िद से कंगुरे के ऊपर बेफ़िक्र खड़ा हो तो उस की बेफ़िक्री और ज़िद का नतीजा ये होगा कि वो गिर पड़ेगा और उस की टांगें टूट जाएँगी और वो बे-मदद होके मर जायेगा। शायद बा’ज़ अच्छे और नेक आदमी कहें कि अगर गुनाह की सज़ा नतीजों और वसीलों से होती है तो गोया ख़ुदा के हाथ से इन्साफ़ करने का इख़्तियार जाता रहा है। लेकिन ऐसों को याद रखना चाहिए कि नतीजे के ज़रीये से इन्साफ़ करने का इख़्तियार जाता नहीं रहता क्योंकि ख़ुदा मुंसिफ़ नतीजों का और मख़्लूक़ात का भी मालिक है और जो कुछ मख़्लूक़ात के तरीक़ों में और कामों के नतीजों में है सब ख़ुदा के हुक्म से है कि जिनसे उस का इन्साफ़ मा’लूम हो और गुनेहगारों को सज़ा और नेकोकारों को जज़ा मिले क्योंकि आइंदा की सज़ा ज़बरदस्ती से नहीं है बल्कि इन्साफ़ से है इसलिए अग़्लब (मुम्किन) है कि इस दुनिया में जो सज़ा अज़ रुए इंसाफ़ के दी जाती है उस सज़ा की जो आगे को दी जाएगी ठीक मिसाल है।

          सोम : हम मख़्लूक़ात के तरीक़ों या’नी राज़िक़ के इंतिज़ाम में ये बात देखते हैं कि बुरे आदमियों के बदकामों के तमाम बुरे नतीजे व तासीरें मुतवातिर नहीं होती हैं बल्कि बाज़ औक़ात इन्सान की ख़बरदारी और हिक्मत से कम होती है और कभी-कभी बिल्कुल रोकी जाती है मसलन जब एक आदमी बे-सोचे किसी ऊंची जगह पर लहू ल’अब करे तो इस का नतीजा जैसा ऊपर मज़्कूर हुआ ये है कि वो शायद गिर जायेगा उस के आज़ा टूटेंगे और शायद वो बिल्कुल जान से हलाक होगा लेकिन अगर कोई आदमी उसे देखकर फ़ौरन पकड़ ले और बचाए तो वो बुरा नतीजा रोका जाएगा और बा’ज़ वक़्त आदमी बदफ़े’ली करके बीमार हो जाते हैं ऐसी बीमारी कि जो मौत को पहुंचाती है लेकिन वो होशियार हकीम के पास जाके दवा लेते और ख़ाके चंगे हो जाते हैं और आदमी तरह-तरह के बुरे नतीजे अपनी होशियारी से रोक सकते हैं। मख़्लूक़ात के तरीक़े यही हैं और हम नहीं जानते कि ये सबसे अच्छे हैं या नहीं ख़ालिक़ ने अपनी मेहरबानी के मुताबिक़ ऐसा इंतिज़ाम शुरू से लगाया है हालाँकि वो ऐसा इंतिज़ाम कर सकता था कि जिससे हर वक़्त और हर हाल में और सब गुनेहगारों पर उन के गुनाह के बुरे नतीजे बिल-इत्तिफ़ाक इस दुनिया में जल्द उन पर मुतवातिर पड़ते लेकिन हाल के इंतिज़ाम में उस का रहम ज़ाहिर है जिससे उम्मीद पैदा होती है कि मसीही मज़्हब में मु’आफ़ी का बंदो-बस्त मुम्किन है।

          चहारुम : और अग़्लब (मुम्किन) नहीं है कि हम किसी काम से या किसी तरह से अपने गुनाहों की सज़ा को महरूम रखें हम किसी तरह नहीं कह सकते हैं कि हम उस को रोक सकते हैं और ना सारे सबबों (वजूहात) को जानते हैं कि जिनसे आइन्दा की सज़ा देना दुरुस्त और वाजिबी ठहराया गया पस हम किसी तरह से नहीं जान सकते कि हमारे किसी काम के सबब से दुरुस्त और वाजिबी किया गया ताकि सज़ा मौक़ूफ़ हो जाए हम गुनाह के तमाम नतीजे और अंजाम नहीं जानते हैं तो हम क्यूँ-कर कहें कि वो अगर रोके ना जाएं तो कैसे निकलेंगे पस किसी तरह से नहीं कह सकते कि हम उन को रोक सकते हैं ऐसी बातों से हम नावाक़िफ़ हैं इसलिए मुशाबहत की रु से दलील ला सकते हैं कि इल्हाम इलाही की बात अक़्ल से मौक़ूफ़ नहीं हो सकती है मसलन ख़याल करो कि लोग बेपर्वाई से अपने माल को उड़ा के अपनी मीरास को नेस्त (बर्बाद) करते हैं और बद-परहेज़ी से अपने जिस्मों पर बीमारियां ले आते हैं और मुल्क के क़वानीन को तोड़ के सज़ा पाते हैं क्या वो तौबा करने और आगे को नेकी करने से अपने इन बुरे कामों के बदले रोक सकते हैं हरगिज़ नहीं बर-ख़िलाफ़ इस के वो लाचार होके और दिन को अपने मु’आफ़ी करवाने और बचाने के वसीले ठहराते हैं पस अगर हम तौबा करने और नए चाल-चलन दिखलाने से इस ज़िंदगी के गुनाहों की सज़ा को नहीं रोक सकते हैं तो अग़्लब (मुम्किन) है कि जब हम ख़ुदा-ए-क़ादिर व ख़ालिक व मालिक के सामने गुनेहगार हो गए हैं तो उस गुनाह की सज़ा को तौबा और नेक-चलनी से नहीं रोक सकेंगे तौबा करना और नेक होना बहुत अच्छा है लेकिन वो गुनाह की सज़ा को रोकने के क़ाबिल नहीं हैं इन्सान की अक़्ल भी कहती है कि वो नाक़ाबिल हैं क्योंकि हर मुल्क में जहां लोग इन्जील मुअज़्ज़म को नहीं मानते क़ुर्बानियां गुज़राँते हैं ताकि उन से कुछ मदद हो ऐसी बातों से एक शफ़ी’अ् की ज़रूरत मा’लूम होती है और निहायत अग़्लब (मुम्किन) है कि हमारा एक शफ़ी’अ् (शफा’अंत करने वाला) गया ठहराया है।

          पंजुम : अब ख़ुदा का कलाम यही बात सिखलाता है और इन्सान की हर एक दिली शक और डर को रफ़ा (दूर) करता है क्योंकि वो बतलाता है कि आगे को गुनाह की सज़ा और नतीजे मौक़ूफ़ हो सकते हैं और ये भी बतलाता है कि ये दुनिया हलाकत की हालत में है और कि इलाही हुकूमत ऐसी है कि तौबा करने के सबब और वसीले से मु’आफ़ी नहीं होती है लेकिन मसीह के वसीले से जब आदमी तौबा करेगा तो मु’आफ़ी पाएगा और इसी तरह से गुनाह के बुरे नताइज मौक़ूफ़ किए जाते हैं और कलाम ये भी सिखलाता है कि ख़ुदा की आम और ख़ास दोनों हुकूमत रहमत की राह से होती हैं ताकि वो इन्सान की हलाकत को रोके कि “ख़ुदा ने दुनिया को ऐसा प्यार किया कि उस ने अपना इकलौता बेटा बख़्शा ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए वो हलाक ना हो बल्कि हयात-ए-अबदी पाए।” (यूहन्ना 3:16) उस ने मुहर और मुहब्बत की राह से अपना बेटा बख़्शा। और ख़ुदा के बेटे ने हमको प्यार किया और अपने तईं हमारे एवज़ (बदले) में दिया और उस ने हमारी शफ़ा’अत और हमारा दर्मियानी होने का काम ऐसा किया ताकि वो सज़ा जो ख़ुदा के क़ानून में मुक़र्रर हुई हम पर ना पड़े।

          शशुम : वो ख़ास तरीक़ा जिससे मसीह ख़ुदा और इन्सान के बीच दर्मियानी होके हमारा शाफ़ी हो गया मुक़द्दस नविश्तों में यूं मुबय्यन (बयान) है कि वो दुनिया का नूर है। (यूहन्ना 1:8, 12) या’नी वो कामिल तौर पर ख़ुदा की मर्ज़ी का ज़ाहिर करने वाला है। वो मेहरबानी साज़ कफ़्फ़ारा है जैसा रोमियों 3:25, 5:14 और 1 कुरिन्थियों 5:17, इफ़िसियों 5:2, 1 यूहन्ना 2:2, मत्ती 26:28 में मज़्कूर है और वो यूहन्ना 1:29 और किताब मुकाशफ़ात में ख़ुदा का बर्रा (मेमना) कहलाता है। और उस ने अपने तईं (अपने आपको) ख़ुशी से हम सभों के वास्ते कफ़्फ़ारे में दिया इसलिए वो नामा इब्रानियों में सरदार काहिन कहलाता है और जो कि एक ख़ास और भारी दलील है वो पेशगोई की रु से यस’अयाह 53 बाब और दानीएल 9:24, ज़बूर 110:4 में काहिन और क़ुर्बानी दोनों कहलाता है और अगर कोई कहे कि ये मूसवी रस्मों से निस्बत रखता उस का जवाब पौलूस रसूल नामा इब्रानियों 10:1 आयत में यूं देता है कि शरी’अत जो आने वाली ने’अमतों की परछाईयां है और उन चीज़ों की हक़ीक़ी सूरत नहीं इन क़ुर्बानियों से जो वो हर साल हमेशा गुज़रानते उन को जो वहां आती है कभी कामिल नहीं कर सकते और 8 बाब 4, 5, आयत काहिन तो हैं जो शरी’अत के मुवाफ़िक़ क़ुर्बानियां गुज़रानते हैं जो आस्मानी चीज़ों के नमूने और सज़ा पर ख़िदमत करते हैं चुनान्चे मूसा ने जब वो ख़ेमा बनाने पर था इल्हाम से हुक्म पाया कि देख वो फ़रमाता है कि इस नक़्शे के मुताबिक़ जो तुझे उस पहाड़ पर दिखलाया गया सब चीज़ें बना। मतलब इस का ये है कि जैसा वो ख़ेमा जो मूसा ने बनाया ठीक उस नमूने के मानिंद था जो ख़ुदा ने उस को पहाड़ पर दिखलाया वैसी ही मसीह की इमारत लावियों की इमारत के मानिंद थी लावियों की इमारत मसीह की इमारत का साया है। इसी ख़त इब्रानियों की ता’लीम ये है कि वो क़ानूनी क़ुर्बानियां इस कफ़्फ़ारे से निस्बत रखती हैं जो मसीह ने अपने ख़ून से चढ़ाया और इस बात से और साफ़ बात नहीं। (इब्रानियों 10:4, 5, 7, 9, 10) क्योंकि हो नहीं सकता कि बैलों और बकरों का लहू गुनाहों को मिटा दे। इसलिए वो दुनिया में आते हुए कहता है कि क़ुर्बानी और नज्र या’नी बैलों और बकरियों को तूने ना चाहा पर मेरे लिए एक बदन तैयार किया। देख मैं आता हूँ ताकि ऐ ख़ुदा तेरी मर्ज़ी बजा लाऊँ इसी मर्ज़ी से हम येसू मसीह के बदन के एक बार गुज़रानने के सबब पाक हुए हैं। एक और आयत नामा इब्रानियों 9:28 है मसीह ने एक बार सभों के गुनाहों का बोझ उठाने के लिए (अपने) आपको गुज़रान के दूसरी बार बग़ैर गुनाह के या’नी बग़ैर गुनाह की क़ुर्बानी चढ़ाने के ज़ाहिर होगा ताकि उन को जो उस की राह देखते हैं नजात दे। और रावी (मुसन्निफ़) हर तरह बयान करते हैं कि वो फ़वाइद जो मसीह की क़ुर्बानी से हैं सभों के वास्ते हैं और बयान से बिल्कुल बाहर हैं। (यूहन्ना 11:51, 52) येसू उस क़ौम या’नी यहूद के वास्ते मरेगा और ना फ़क़त उस क़ौम के लिए बल्कि उस वास्ते भी कि वो ख़ुदा के फ़रज़न्दों को जो परागंदा होई (बिखर गए) बाहम जमा करे (1 पतरस 3:18) मसीह ने एक बार गुनाहों के वास्ते दुख उठाया या’नी रास्त-बाज़ ने नारास्तों के लिए। और (मत्ती 20:28, मर्क़ुस 10:45, 1 तीमुथियुस 2:16) उस ने अपने तईं (अपने आपको) कफ़्फ़ारे या’नी फ़िद्ये में दिया और 2 पतरस 2:1, मुकाशफ़ा 14:4, 1 कुरिन्थियों 6:20 के मुताबिक़ हम दामों से ख़रीदे गए हैं और 1 पतरस 1:19, मुकाशफ़ा 5:19, ग़लतियों 3:13 बमूजब उस ने हमको अपने ख़ून की बदौलत मोल लिया और इब्रानियों 7:25, 1 यूहन्ना 2:1, 2 बमूजब वो हमारा शाफ़ी व मुन्जी (नजात देने वाला) और कफ़्फ़ारा है और इब्रानियों 2:10, 5:9 बमूजब वो कामिल होने के सबब से नजात का बानी बन गया। (2 कुरिन्थियों 5:19, रोमियों 5:10, इफ़िसियों 2:16 ख़ुदा ने मसीह में होके दुनिया को अपने साथ यूं मिला लिया कि उस ने मसीह की मौत के वसीले उन की तक़सीरों को मु’आफ़ करके उन पर हिसाब ना किया। (इब्रानियों 2:14) और अजीब आयत (अय्यूब 33:24) ताकि मौत के वसीले से उस को जिसके पास मौत का ज़ोर था या’नी शैतान को बर्बाद करे।

          (फिलिप्पियों 2:8, 9, यूहन्ना 3:35, 5:23, 24) मसीह ने इन्सान की सूरत में होके (अपने) आपको पस्त किया और मरने तक बल्कि सलीबी मौत तक फ़रमांबर्दार रहा इस वास्ते ख़ुदा ने उसे बहुत सर्फ़राज़ किया और उस को ऐसा नाम जो सब नामों से बुज़ुर्ग है बख़्शा और उस के हाथों में सब कुछ कर दिया और सारी अदालत बेटे को सौंप दी है ताकि सब बेटे की इज़्ज़त करें जिस तरह बाप की इज़्ज़त करते हैं। और मुकाशफ़ा 5:12, 13 बर्रा जो ज़ब्ह हुआ इस लायक़ है कि क़ुद्रत व दौलत और अक़्ल व ताक़त और इज्ज़त व जलाल और बरकत पाए और मैं ने हर एक मख़्लूक़ को जो आस्मान पर और ज़मीन पर और ज़मीन के नीचे है और उन को जो समुंद्र में हैं ये कहते सुना कि उस के लिए जो तख़्त पर बैठा है और बर्रे के लिए बरकत व इज्ज़त व जलाल और क़ुव्वत अबद तक है। इन आयात मज़्कूर में मसीह की इमामत मुबय्यन (बयान) है कि जिस क़द्र ज़ाहिर होती उसी क़द्र उन में उस का बयान है और पादरी लोग अक्सर उस को तीन बाबों में बयान करते हैं कि मसीह के इस काम में तीन दर्जे हैं

          अव़्वल : येसू मसीह इज़्ज़त के तौर पर वो नबी कहलाता है। और यूहन्ना 6:14 में मसीह के हक़ में लिखा है कि फ़िल-हक़ीक़त वो नबी जो जहान में आने वाला था यही है कि वो इलाही मर्ज़ी को ज़ाहिर करे उस ने इस तब’ई आईन को जिसको इन्सान ने बिगाड़ दिया था और जिसकी पहचान भी उन में से जाती रही थी फिर नया किया। उस ने आदमियों को इक़्तिदार से सिखलाया कि आइंदा अदालत की इंतिज़ारी करके होशियारी व रास्ती व दीनदारी से ज़िंदगानी गुज़रें। उस ने वो तरीक़ा जिससे ख़ुदा की इबादत की जाये और तौबा करने का फ़ायदा और आइन्दा हाल की सज़ा व जज़ा को साफ़-साफ़ बतलाया और बयान किया। इस सबब से वो ऐसा नबी था कि जैसा कोई और शख़्स कभी नहीं हुआ और अलावा इस के उस ने हमें नमूना दिखलाया ताकि हम उस के नक़्शे क़दम पर चलें।

          दोम : वो बादशाह है वो एक बादशाहत रखता है जो इस दुनिया की नहीं है। उस ने एक कलीसिया मुक़र्रर की जो दीन का दाइमी निशान और बुलाने वाला है जिसके साथ उस ने आख़िर तक रहने का वा’दा किया है। वो उस पर अपनी रूह के वसीले से एक अनदेखी हुकूमत रखता है। कलीसिया के उस हिस्से के ऊपर जो ज़मीन पर है वो एक तर्तीबी हुकूमत करता है। ताकि मुक़द्दस लोग ख़िदमत के काम में आरास्ता होते जाएं और मसीह का बदन बनता जाये जब तक कि हम सब के सब ईमान और ख़ुदा के बेटे की पहचान की यगानगी तक और कामिल इन्सानियत या’नी मसीह के क़द के पूरे अंदाज़े तक पहुंचें (इफ़िसियों 4:12, 13) तमाम दुनिया में सब आदमी जो उस के हुक्मों के मुताबिक़ चलते हैं उस कलीसिया के शरीक हैं उन के वास्ते वो एक जगह तैयार करने को गया है और फिर आएगा और उन को आप में क़ुबूल करेगा ताकि जहां वो है वहां वो भी हों और वो उस के साथ अबद तक सल्तनत करेंगे। लेकिन वो उन से जो ख़ुदा को नहीं पहचानते और उस की इन्जील को नहीं मानते इंतिक़ाम लेगा।

          सोम : वो कफ़्फ़ारा है। मसीह ने अपने तईं मेहरबानी साज़ क़ुर्बानी में दिया और इसी तरह से तमाम दुनिया के गुनाहों का कफ़्फ़ारा हो गया। यहूदियों को हुक्म दिया गया था कि क़ुर्बानियां गुज़राने। और और क़ौमों में भी ये दस्तूर फैल गया अग़्लब (मुम्किन) है कि उन्हों ने ये दस्तूर यहूदियों से पाया। और वो क़ुर्बानियां बहुत दफ़ा’अ् गुज़रानी जाती और इन्सान के बाहरी मज़्हब का एक बड़ा हिस्सा होती थीं। लेकिन इब्रानियों 9:26 में मर्क़ूम है कि मसीह अब आख़िरी ज़माने में एक बार ज़ाहिर हुआ ताकि अपने तईं क़ुर्बानी करने से गुनाह को नेस्त करे और उस की क़ुर्बानी उम्दा दर्जे पर हर तरह से और हर आदमी के गुनाह मु’आफ़ करने के क़ाबिल है जैसा कि ग़ैर क़ौम सोचते थे कि उन की क़ुर्बानियां क़ाबिल नहीं और कि वो क़ुर्बानियां जो यहूदी लोग गुज़रानते थे ईमानदारों के हक़ में किसी ना किसी तरह से क़ाबिल नहीं। हमको किसी तरह से मा’लूम नहीं कि मसीह की क़ुर्बानियां किस तरीक़े से और किस सबब से ऐसी तासीर पज़ीर हैं लेकिन नविश्ते साफ़ बतलाते हैं कि उस में दर-हक़ीक़त ये ताक़त है बा’ज़ लोगों ने इस का बयान ना पाकर ये कहा कि उस की कोई क़ुर्बानी नहीं थी बल्कि उस की ता’लीम से और उस की नमूने पर चलने से हमारी नजात होगी। पर इन्जील की ता’लीम ये है कि जो मसीह ने सिखलाई कि तौबा करना बहुत फ़ाइदेमंद है और उस का फ़ायदा व तासीर मसीह के काम और मुसीबतों पर मौक़ूफ़ है या’नी उस के काम और अज़िय्यत के सबब से हमारी तौबा हमेशा की ज़िंदगी तक मक़्बूल होगी और अब हमें मुनासिब है कि शुक्रगुज़ारी के साथ उस को यक़ीन करके क़ुबूल करें और एतराज़ ना करें कि वो कफ़्फ़ारा किस तरह से ऐसा तासीर पज़ीर हो सकता है।

          हफ़्तुम : हम नहीं जानते कि अगली सज़ा किस तरह से हाल के गुनाह का बदला होती है और किस तरह से वो सज़ा दी जाती अगर रूह की नजात और हम उस ख़ुशी का हाल जो मसीह हमारे लिए तैयार कर चुका है नहीं जानते हैं कि हमारे काम किस क़द्र गुनाह को रोकते और आस्मानी ख़ुशी को हासिल करते हैं। पस हम कलाम इलाही बग़ैर बिल्कुल नहीं बतला सकते कि क्या कोई ईलाज उन मुतालिब के पूरा करने के लिए ज़रूर था या नहीं। और इसी तरह अगर कलाम इलाही ना होता तो हम किसी तरह से मा’लूम ना कर सकते कि शफ़ी’अ् का काम और ओहदा क्या-क्या होगा और किस तरह से वो ख़ालिक़ व मालिक की मर्ज़ी को पूरा करेगा। और अगर हम बग़ैर इल्हामी कलाम के उस ओहदे पर किसी तरह का इन्साफ़ नहीं कर सकते हैं तो क्यूँ-कर उस कलाम पर एतराज़ करें।

          फिर लोगों ने मसीह के कफ़्फ़ारा होने पर एक और एतराज़ किया है या’नी अगर मसीह जो बेगुनाह था गुनेहगारों के बदले मारा गया तो क्या ख़ुदा बे-इंसाफ़ी से ख़ुश होता है। अब हमको बिल्कुल मा’लूम नहीं कि आया ये बे-इंसाफ़ी है या नहीं ख़ुदा की अख़्लाक़ी हुकूमत में जैसा हमने शुरू में कहा बहुत सी बातें हैं जो हम नहीं समझते हम रोज़ बरोज़ ख़ुदा की हुकूमत और मुल्कों की हुकूमत दोनों में ये हाल देखते हैं कि गुनेहगारों के बदले बेगुनाह सज़ा पाते हैं। कभी माँ बाप के गुनाह के सबब से लड़के उम्र भर बीमार रहते हैं और मर भी जाते हैं और कभी माँ बाप या भाई की ग़फ़लत से बेटे या भाई लावारिस होके उम्र भर ग़रीब और तंग हाल रहते हैं और अगर किसी को फांसी या जिलावतनी या क़ैद होती है तो उस के सारे रिश्तेदार उम्र भर शर्म खाते हैं वग़ैरह पस ऐसे एतराज़ ना सिर्फ मसीही मज़्हब के बल्कि मालिक की तमाम हुकूमत और मख़्लूक़ात के सारे तरीक़ों के बर-ख़िलाफ़ हैं और मो’तरिज़ इस बात को याद नहीं करता कि मसीह ने अपने तईं (अपने आपको) अपनी ख़ुशी से दिया और उस के कफ़्फ़ारे में हम ये फ़ायदा देखते हैं कि उस में ये तासीर है कि ख़ुदा का इख़्तियार उस के ज़रीये से क़ाएम रहता और गुनाह रोका जाता है और उस का जवाब कभी नहीं हुआ पस इन बातों से ज़ाहिर है कि वो एतराज़ माक़ूल नहीं। अगर कोई बात कफ़्फ़ारा होने में अक़्ल के ख़िलाफ़ है तो नविश्तों को छोड़ देना बेहतर है पर ऐसा नहीं है।

          आख़िरी बात : अक़्ल और मख़्लूक़ात के तमाम तरीक़े सिखलाते हैं कि ख़ुदा हम पर अपनी ज़ात और काम का बयान थोड़ा ज़ाहिर करे पर हमारे काम और फ़राइज़ का पूरा और कामिल बयान करेगा और ज़ाहिर है कि ऐसा ही है। ख़ुदा के कलाम में साफ़-साफ़ लिखा है कि हम उस कफ़्फ़ारे के सबब क्या करें और क्या पाएं और किन बातों के वास्ते उम्मीद रखें पस हम अपने काम और फ़राइज़ की बाबत किसी तरह के शक में नहीं छोड़े गए जिस तरह ख़ुदा ने हमें मख़्लूक़ात में ज़िंदगी बसर करने की तमाम चीज़ें दी हैं इसी तरह इन्जील में सब बातें जो नेकी व दीनदारी व हमेशा की ज़िंदगी के वास्ते ज़रूर और दरकार हैं मौजूद और साफ़-साफ़ ज़ाहिर की गई हैं और हम कह सकते हैं मसीही नविश्तों में कोई नसीहत या हुक्म मुश्किल या शक का नहीं है सब अख़्लाक़ी हुक्मों का मतलब और ज़रूरत भी ज़ाहिर है। रीत व रस्म ज़रूर हैं ताकि ये दीन क़ाएम होए और फैल जाये। और इसलिए हम पर फ़र्ज़ है कि मसीह की परस्तिश दिल से और रीत व रस्म के ज़रीये से भी करें इसलिए कि उस ने हमारे वास्ते अज़िय्यत बर्दाश्त की और अपने तईं (अपने आपको) कफ़्फ़ारे में दिया और कि वो हमारा शाफ़ी व दरमियानी है।



छटा बाब

इस बात के बयान में कि अवामुन्नास को इल्हाम नहीं और
उस के मिंजानिब-अल्लाह होने के दलाईल

          बा’ज़ों ने ख़याल किया है कि अगर कलाम इलाही की दलीलों में किसी तरह का शक है तो ये शक एक काफ़ी दलील है कि वो कलाम मिंजानिब-अल्लाह नहीं है। और बा’ज़ ये भी सोचते हैं कि बाइबल कलाम ख़ुदा नहीं है इस सबब से कि एक दम से सब आदमियों को तमाम दुनिया में नहीं दिया गया।

          अब ऐसे ख़यालों की कमज़ोरी यूं मा’लूम होती है कि जो ऐसे ख़याल करते गोया कि कहते हैं कि ख़ुदा हमारे ख़यालों के बर-ख़िलाफ़ हमको बरकत नहीं दे सकता है। और अगर वो सभों को वही बरकत ना दे तो वो किसी को बरकत नहीं दे सकता है। और यही बातें तमाम मख़्लूक़ात के तरीक़ों के बर-ख़िलाफ़ हैं जो ऐसे ख़याल करें याद नहीं रखते हैं कि अपने दुनियावी कामों में वो किस तरह की दलीलों पर एतबार रखते हैं। तमाम दुनियावी ख़ुशी के हुसूल में हर तरह के शक होते हैं ताहम सब लोग उसे तलाश करते हैं। कोई कहता है कि मैं दौलतमंद होके ख़ुश होऊंगा पस वो ऐसे काम को शुरू करता ताकि जिससे सोचता कि दौलत पैदा होगी। लेकिन साबित नहीं है कि दौलत पैदा होगी या नहीं। उस की तदबीरें सब कच्ची हैं तो भी वो करता है पर अपने मतलब को नहीं पहुंचता बाद-अज़ां वो और काम करता है और फिर कामयाब नहीं होता। कई एक काम की आज़माईश करने के बाद आख़िरकार वो कुछ काम पाता है जिससे उस के पास बहुत दौलत जमा हो। लेकिन वो ख़ुशी जिसकी उम्मीद रखता है उसे नहीं मिलती अगर मो’तरिज़ ख़याल करेगा कि कैसे-कैसे दलाईल पर एतबार रखकर आदमी अपने सब दुनियावी कामों को चलाते हैं तो वो कभी ना कहेगा कि इन्जील के मुवाफ़िक़ रुहानी काम की दलीलों में शक है।

          वो जो कहते हैं कि तौरेत और इन्जील सब आदमियों को नहीं दी गई ख़याल नहीं करते कि ख़ुदा अपनी बख़्शिश मुतफ़र्रिक़ आदमियों को देता है और किसी को देता और किसी से दरेग़ करता है। लेकिन कोई नहीं कह सकता है कि ख़ुदा ने नहीं दिया। सब लोग कहते हैं कि ख़ुदा सब चीज़ों का देने वाला है लेकिन किसी को बरकत मिलती है और किसी को नहीं मिलती।

          यहूदियों के पाक नविश्ते या’नी तौरेत व ज़बूर व सहाइफ़ अम्बिया और मसीही नविश्ते या’नी इन्जील एक दम से सब आदमियों को नहीं दी गई लेकिन हिस्सा हिस्सा वक़्त ब-वक़्त मिली और इन नविश्तों के सबूत मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) थे या’नी किसी ज़माने में क़वी सबूत और किसी में कमज़ोर थे। मसलन वो यहूदी जो नबियों के ज़माने में मूसा से लेकर बाबिल की असीरी (क़ैद) के वक़्त तक थे बहुत ज़्यादा रोशनी रखते थे बनिस्बत उन के जो उस वक़्त से ले के मसीह के आने तक ज़मीन पर थे और क़दीम मसीही लोग हमारी निस्बत मो’जिज़ों का बहुत ज़्यादा सबूत रखते थे लेकिन हमारे वास्ते ये मज़्बूत दलील रही है कि इन्जील की पेश गोईयां पूरी होती हुईं देखते हैं और मालिक अपने सब काम में और बरकतें देने में उसी तरीक़े पर चलता है कि कभी कम कभी ज़्यादा देता है पर कौन कह सकता कि देने वाला ख़ुदा नहीं।

          और अगरचे ऐसा है कि बा’ज़ क़ौमों ने इन्जील की ता’लीम नहीं पाई और बा’ज़ ने मिस्ल अहले-फ़ारस और मुहम्मदी झूट के साथ और फ़रेब आमेज़ ता’लीम को पाया और औरों ने ज़्यादा पाया तो भी इस में कोई त’अज्जुब की बात नहीं है क्यों कि ख़ुदा अपनी मेहरबानी से हर एक आदमी का इन्साफ़ उन्हीं सच्चाइयों के मुताबिक़ जो उस को पहुँचीं करेगा। जैसा 2 कुरिन्थियों 8:12 में है कि आदमी उस के मुवाफ़िक़ जो उस के पास है मक़्बूल होगा ना उस के मुवाफ़िक़ जो उस पास नहीं है। लेकिन क्या ये ख़याल करना चाहिए कि जो तारीकी में हैं वो बग़ैर सोचे उसी में पड़े रहें। नहीं, बल्कि हर एक रोशनी को ढ़ूंढ़े। हमारा मालिक व ख़ालिक आलिमुल-गैब है और उस की मेहरबानी बेहद भी है पस जब हम देखते हैं कि तमाम मख़्लूक़ात में मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) बातें हैं और कि इन्सान के हालात ऐसे मुतफ़र्रिक़ (जुदा-जुदा) हैं तो ख़याल करना चाहिए कि ख़ुदा ने हर एक के वास्ते वह हालत और कैफ़ियत जो उस की है तैयार की ताकि सब के सब अपनी-अपनी ताक़त व लियाक़त के मुवाफ़िक़ बे-कुड़-कुड़ाए उस की ता’रीफ़ करें। अब ज़ेल की बातों पर-ख़याल करो।

          पहली : वो शक जो ख़ुदा-ए-मालिक की हुकूमत की कई एक बातों पर है शायद इस हाल की आज़माईशों में एक ही है। ताकि मा’लूम हो कि क्या हम मज़्हबी दलीलों की तलाश करें या उन में सुस्ती करें और जैसा उस पर जो मज़्हब ईस्वी की दलीलों पर यक़ीन लाता है फ़र्ज़ है कि उस को दिलो-जान से क़ुबूल करके माने। वैसे ही उस शख़्स पर जो उस मज़्हब से नावाक़िफ़ है फ़र्ज़ है कि उस की दलीलों को तलाश करके सोचे और ख़ूब मा’लूम करे कि आया ये मज़्हब सच्चा है या नहीं।

          दूसरी : ये शक का हाल जो कि मज़्हब में है ज़रूर एक अख़्लाक़ी हाल आज़माईश है अगर मसीही मज़्हब की बाबत शक है तो मा’लूम हुआ कि उस की दलीलें भी हैं। अगर हम जानते हैं कि फ़ुलानी बात बिल्कुल बातिल है तो उस बात की बाबत शक नहीं रहा पस ये शक एक अच्छी आज़माईश है। और अगर हम इन दलीलों को ना आज़माऐं तो ये शक ज़्यादा होता रहेगा। पस ये हमारे फ़ायदे का बा’इस है ताकि मज़्हब ईस्वी की दलीलों से वाक़िफ़ हो जाएं और उन को जांच के क़ुबूल करें।

          तीसरी : और ये शक की हालत जिसमें बा’ज़ आदमी रखे गए हैं कुछ कुड़-कुड़ाने का सबब नहीं है। क्यों कि जैसे और लोग और तरह की आज़माईशों में होके रुहानी ताक़त हासिल करते हैं और उन से बहुत तरह के फ़ायदे पाते हैं वैसे ही जो इस शक के हाल में होते हैं उस के रद्द करने में तरह-तरह की कोशिशें और दलीलों को आज़माते हैं और क़िस्म क़िस्म के इल्म और तवारीख़ की सैर करके अक़्लमंद व ज़ी-इल्म और दानिशमंद भी बन जाते हैं। पस इस शक के हाल से उन को बहुत सा फ़ायदा हासिल है।

          और अगर इक़रार किया जाये कि मज़्हब के ख़याली मुश्किलात बा’ज़ आदमियों की ख़ास और आम आज़माईशें हैं तो भी इस में कुछ त’अज्जुब नहीं क्यों कि बा’ज़ आदमी ऐसे हैं कि अगर उन पर ऐसी आज़माईशें ना हुईं तो वो बे-इम्तिहान रहते। इस वास्ते कि उन के मिज़ाज ऐसे हैं कि अगर वो किसी बात पर यक़ीन रखते तो ज़रूर उसे क़ुबूल करके मानते हैं।

          लेकिन शायद ऐसा भी है कि वो जो मसीही मज़्हब पर शक करता है अपने आप में उस शक का सबब रखता है। वो जो दर्याफ़्त नहीं करते। या सिर्फ मुश्किलात पर ख़याल करते या मज़्हब की तमाम बातों पर ठट्ठा (हंसी) करते हैं। पस वो उन दलाईल को जिन पर वो क़ाएम और साबित है कभी ना देख सकेंगे।

          और नविश्ते भी ये बात साबित करते हैं कि देखो किताब (दानीएल 12:11, यस’अयाह 29:13, 14, मत्ती 6:23, 11:25, 13:11, 12, यूहन्ना 3:19, 5:44, 1 कुरिन्थियों 2:14, 2 कुरिन्थियों 4:4, 2 तीमुथियुस 3 13) और मुहब्बत की वो बात कि जिसके कान सुनने के हों सो सुन ले। फिर हम साफ़ कह सकते हैं कि मसीही मज़्हब की आम दलीलों को आम लोग समझ सकते हैं हाँ वो भी जिनका वक़्त बचपन से मौत तक ज़रूरत के कामों में सर्फ होता है जो कोई कुछ भी ख़याल करता वो समझ सकता है कि एक ख़ुदा है जो हमारा और सभों का मालिक है और कि वो हम पर हुकूमत करता है। और मसीही मज़्हब जो इन्सान की अक़्ल के मुवाफ़िक़ है समझ में आ सकता है। सब लोग बख़ूबी जान सकते हैं कि मसीही मज़्हब के सबूत में मो’जिज़े दिखलाए गए हैं कि उस की कई पेश गोईयां पूरी हो गई हैं।

          सब लोग इतनी समझ रखते हैं अगरचे वो उन एतराज़ों का जो उस के बर-ख़िलाफ़ किए जाते हैं जवाब ना दे सकें। और वो लोग जो इल्म-दार हैं साफ़-साफ़ जवाब दे सकेंगे और साबित कर सकेंगे कि इस मज़्हब की दलीलें क़ाएम हैं।

          शायद कोई एतराज़ करके कहेगा कि जैसा एक शाहज़ादा या मालिक अपने नौकर को साफ़-साफ़ हुक्म देता है वैसे ही ख़ुदा अगर हुक्म दे तो साफ़-साफ़ फ़र्मा के देगा ताकि किसी तरह का शक या भूल चूक ना हो सके मगर अब कौन ऐसी बात कह सकता है। ख़ुदा-ए-मालिक ने हमको बहुत सी दुनियावी बातों की बाबत जो बहुत भारी हैं शक व शुब्हा में छोड़ दिया है अब इस का ठीक जवाब ये है कि जब कोई शाहज़ादा या मख़दूम हुक्म देता है तो उस का मतलब सिर्फ इतना ही है कि फ़ुलां काम किया जाये और वो किसी तरह से फ़िक्र नहीं करता है कि करने वाला किस मतलब से उस को करे। लेकिन जब ख़ुदा हुक्म देता है तो वो दर्याफ़्त करता है कि आदमी जो उस का हुक्म माने तो किस मतलब से मानेगा क्यों कि जिसने बुरे मतलब से ख़ुदा का कोई हुक्म पूरा किया तो वो उस हुक्म को बजा नहीं लाया बल्कि टाल दिया है जो कोई प्यार से हुक्म मानता है वो मक़्बूल होता है और जो ख़ुदा को प्यार करता है सो कोशिश से दर्याफ़्त करेगा कि ऐ ख़ुदावन्द तू क्या चाहता है कि मैं करूँ और ऐसा आदमी ख़ुदा के अहकाम में भूल ना करेगा उस के वास्ते अहकाम इलाही ऐसे साफ़ हैं कि अगर वो दौड़े तो भी सके।

          पिछली बात : हमारी हालत दीन में होने से मा’लूम होता है कि हम आज़माईश के हाल में भी हैं। और अगर हम आज़माईश के हाल में हैं तो अग़्लब (मुम्किन) है कि वो शक जो मज़्हब की बा’ज़ दलीलों में है एक आज़माईश है क्यों कि मख़्लूक़ात के तरीक़ों पर ग़ौर करने से ज़ाहिर होता है कि और बहुत सी बातें भी हैं जिनकी बाबत शक होता है तो भी इन्सान ऐसी बातों को नहीं छोड़ते बल्कि दर्याफ़्त करके इंतिख़ाब कर लेते और सच्चाई पर अमल करते हैं। पस मज़्हबी भी ऐसा ही क्यों न करें।



सातवाँ बाब

मज़्हब ईस्वी के ख़ास दलाईल

          हमको अगली बातों से साफ़ मा’लूम हुआ कि मसीही मज़्हब की ख़ास व आम तदबीरों के बर-ख़िलाफ़ कोई दलील जो मख़्लूक़ात के तरीक़ों से तश्बीह देने से दी जाये ठहर नहीं सकती है। और कि कोई आदमी बग़ैर पुख़्ता व क़वी दलील के उस मज़्हब को बातिल नहीं जान सकता है। अब ये एक बात बाक़ी है कि हम मज़्हब की हक़ीक़ी व साफ़ दलीलों को जांचें ताकि ज़ाहिर व अयाँ हो कि आया वो मख़्लूक़ात के तरीक़ों से मुवाफ़िक़त रखते हैं या नहीं और कि जब इन्सान अपने दुनियावी कामों में उसी तरह के सबूत पाते हैं जिस तरह के मज़्हब के साफ़ सबूत हैं। और जब ऐसे एतराज़ उन दुनियावी इंतज़ामों के बर-ख़िलाफ़ किए जाएं जिस तरह के मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ किए जाते हैं तो वो क्या करते हैं आया उस को सबूत मानते या एतराज़ जानते हैं।

          मसीही मज़्हब की साफ़ हक़ीक़ी और बुनियादी दलीलें दो क़िस्म की हैं अव्वल मो’जिज़ा और दूसरी पेश गोइयों का पूरा होना और मासिवाए उन के बहुत सी और भी भारी बातें हैं जिनसे सिलसिले-वार दलीलें पैदाइश से लेकर अब तक मौजूद हुईं लेकिन उन को बग़ैर बुनियादी दलीलों के इस्तिमाल ना करना चाहिए। इसलिए हम मो’जिज़ों और पेश गोइयों पर ग़ौर करेंगे और दर्याफ़्त में लाएँगे कि मुशाबहत किस तरह से इन दलीलों को क़ाएम करती है और मन बाद हम इन सिलसिले-वार दलीलों की बाबत भी दर्याफ़्त करेंगे।

          अव़्वल : मो’जिज़े और पेश गोईयां पहले उन उन मो’जिज़ों की बाबत जो मज़्हब के सबूत में किए गए तवारीख़ी गवाही बहुत है जिसमें ये भारी बातें पाई जाती हैं।

          तौरेत में जिस क़द्र तवारीख़ी गवाही मूसा और इस्राईली बादशाहों के मुल्की इंतिक़ाम को सबूत करती है उसी क़द्र वो मूसा और अम्बिया के मो’जिज़ों को भी साबित करती है। और जिस क़द्र अनाजील व आमाल अल-रसुल की तवारीख़ आम बातों को साबित करती है उसी क़द्र वो मसीह और उस के रसूलों के मो’जिज़ात का सबूत पहुंचाती है। और ये किताब बतौर कहानियों के नहीं लिखी गई पस कोई नहीं कह सकता है कि जो मो’जिज़े इस में मुबय्यन (बयान हुए) हैं वो इस को दिलचस्प करने वास्ते नक़्ल किए गए बल्कि तमाम किताब साफ़ तवारीख़ के तौर पर लिखी है। और अगर हम उन हिस्सों को जिनको मोअर्रिखों ने सच मान के अपनी तवारीख़ों में इक़्तिबास और नक़्ल किया है मान लें तो हमने मसीह और उस के रसूलों के मो’जिज़ों को सच्चा मान लिया है। अब इन तफ़्सील ज़ेल पर-ख़याल करो :-

          दूसरी : पौलूस रसूल के ख़ुतूत जो किताब-ए-मुक़द्दस में शामिल हैं एक ख़ास तरह की तहरीरात हैं और इस सबब से ज़रूर है कि हम उन पर अलैहदा ग़ौर करें। वो ख़ुतूत हैं और उन में से बा’ज़ ख़ास शख्सों को लिखे गए और बा’ज़ ख़ास कलीसियाओं के वास्ते और बा’ज़ आम लोगों के लिए लिखे गए हैं और वो सब के सब आम लोगों के लिए फ़ाइदेमंद हैं और उन की असालत (अस्ल-पन, पैदाइशी) पर किसी तरह का शक व शुब्हा नहीं हो सकता है। इस के सबूत में ये बात भी है कि एक और इसकूफ़ (उस्क़ुफ़ की जमा, पादरियों का सरदार) कलीमस नामी ने भी कुरिन्थियों को एक ख़त लिखा है जिसमें उस ने उस का ज़िक्र किया जो पौलूस ने उन लोगों को लिखा था। पस साबित है कि पौलूस की गवाही मसीही मज़्हब पर और गवाहियों से अलग है और बहुत भारी और पुख़्ता भी है।

          पौलूस रसूल मौसूफ़ (ग़लतियों 1 बाब, 1 कुरिन्थियों 11:23, 15:18) में फ़रमाता है कि मैं ने इन्जील और अपनी रिसालत और ख़ासकर अशा-ए-रब्बानी साकरि मिंट को रसूलों और उन के रफ़ीक़ों से नहीं बल्कि मसीह से पाया जिसको मैंने उस के उरूज के बाद देखा जैसा रसूलों के आमाल में भी लिखा है। और वह अपनी बाबत लिखता है कि मैं मो’जिज़ों की ताक़त व लियाक़त रखता हूँ और उन कलीसियाओं के बा’ज़ आदमियों का ज़िक्र करता है जो यही ताक़त रखते थे। और उस ने उन की मानिंद नहीं लिखा जो इन बातों की पिछली ख़बर देते हैं बल्कि मिस्ल उस के जो किसी ज़ाहिर हुई बात की बाबत लिखता है कि उस ने उन को जो इस बड़ी ताक़त व लियाक़त को नालायक़ तौर से इस्तिमाल करते थे धमकाया और शर्माया और उस ताक़त को पाकीज़गी और मुहब्बत से नीचे दर्जे पर रखा देखो। (रोमियों 15:19, 1 कुरिन्थियों 12:8, 9, 10:28, 13:2, 8, 14 बाब, 2 कुरिन्थियों 12:13, ग़लतियों 3:2, 5) और ये मज़्कूर बातें मज़्हब ईस्वी की निहायत भारी दलील हैं और कोई उन के बर-ख़िलाफ़ सबूत नहीं ला सकता है।

          तीसरी : ये तवारीख़ी बात और सभों से क़रार की गई है कि जब मसीही मज़्हब मुश्तहिर व मुनादी और जारी किया गया तब उस के मुनादियों ने ज़ाहिर व आशकारा किया कि इस मज़्हब के ख़ास व क़वी सबूत और दलाईल मो’जिज़े हैं और जिन लोगों ने उसे क़ुबूल किया उन्हों ने मो’जिज़ों पर यक़ीन लाके क़ुबूल किया। और वो लोग उस ज़माने में बहुत थे। और दीन ईस्वी जिसमें अहदे-अतीक़ भी शामिल है इसी बात के सबब से दीगर मज़ाहिब से मुख़्तलिफ़ है। कोई और मज़्हब मो’जिज़ों से मुसबत होके जारी नहीं किया गया दीन मुहम्मदी ने मो’जिज़ों की दलीलों से अजरा नहीं पाया क्योंकि उस के बानी ने इक़रार किया कि मो’जिज़ों की ताक़त व लियाक़त मुझमें नहीं है।

          (देखो 13, 17 सूरत) और मशहूर बात है कि वो मज़्हब और ही वसीलों से जारी किया गया था अगर कोई और मज़्हब जारी हो जाये और उस में बहुत से लोग और बड़े-बड़े आदमी शामिल हो जाएं और तब वो ये बातें दिखला के कहने लगें कि ये इलाही मज़्हब है और ये अजीब बातें मो’जिज़े हैं और बहुत लोगों को अपने में शामिल करलें तो इस में कुछ त’अज्जुब नहीं। लेकिन मसीही मज़्हब का ये हाल ना था बल्कि शुरू में उस के जारी करने वास्ते चंद ग़रीब और ना ख़वांदह (अनपढ़) रसूलों ने मो’जिज़े दिखलाए और चंद अर्से में बहुत से लोग हर मुल्क और ज़ात और दर्जे के उन मो’जिज़ात पर यक़ीन लाके उन हक़ीर मसीहियों में शामिल हो गए।

          और जब हम याद करते हैं कि ये लोग कुछ दुनियावी फ़ायदा या आराम के लिए नहीं बल्कि इस दुनिया के बड़े-बड़े लोगों की सोहबत को और सब तरह ऐश व इशरत व तमाशे व खेल वग़ैरह को छोड़ के और अपने तमाम दस्तूरों को बदल के सभों से हक़ीर समझे गए ताकि वो इस मज़्हब के मुवाफ़िक़ रुहानी फ़ायदा हासिल करें तो हमको कामिल यक़ीन होता है कि उन्हों ने मो’जिज़ों पर यक़ीन किया। और उन की तब्दीली हमारे मज़्हब के तरीक़ों के सबब से पुख़्ता तवारीख़ी दलील है। अला हाज़-उल-क़यास तवारीख़ में ख़ास व आम दोनों क़िस्म की बहुत सी गवाहियाँ हैं कि मसीही मज़्हब के सबूत में मो’जिज़े दिखलाए गए और ये बस है। और जब तक कि मुन्किर इन बातों को रद्द ना करें तब तक मसीहियों पर फ़र्ज़ नहीं है कि कुछ और सबूत या दलाईल पेश लाएं। लेकिन हम उन एतराज़ों को जो कि बे-ईमान लोग उस गवाही पर करते हैं जांच के जवाब देंगे। अगरचे फ़र्ज़ नहीं है।

          मो’तरिज़ (एतराज़ करने वाले) कहते हैं कि पुर-जोश लोग मुख़्तलिफ़ ज़मानों और मुल्कों में अपने तईं ऐसी मुश्किलात और ख़तरों में डालते हैं जैसा कि पहले मसीहियों ने किया और सबसे बातिल कयासों के वास्ते अपनी जानें देने के लिए मुस्तइद (तैयार) हैं अब तमीज़ की जगह है कि क्या लोग ख़याल व क़ियास की बात पर यक़ीन करें या फ़े’ल (काम, अमल) व कार की बात पर। पहली बातों में लोग ग़लती कर सकते हैं लेकिन उन बातों और माजरों में जो अपनी आँखों से देखते और अपने कानों से सुनते हैं वो कम ग़लती करते हैं पस साबित है कि वो मो’जिज़े जो पहले मसीहियों ने देखे हक़ीक़ी मो’जिज़े थे क्यों कि उन्हों ने अपनी जानों को अपनी गवाही के सबूत में दिया।

          और उन मसीहियों की गवाही जिन्हों ने दूसरी व तीसरी सदी मसीही सदी में अपनी जानों को दिया या’नी शहीद हुए इतनी भारी नहीं है वो सच-मुच गुमराह ना थे पर उन के शहीद होने से साबित है कि वो ज़रूर पहली सदी वालों की गवाही के सबब से उन मो’जिज़ों पर यक़ीन लाते थे।

          फिर मो’तरिज़ कहते हैं कि मज़्हबी माजरे या’नी कार में पुर-जोश गवाही को बहुत कमज़ोर करती है और बा’ज़ ये भी कहते हैं कि उस के सबब से मज़्हबी कार में गुमराही उस को बिल्कुल बेफ़ाइदा करती है। और बेशक पुर-जोश और बीमारी की ताक़त भी चंद बातों में बहुत अजीब है। लेकिन जब कि बहुत लोग बीमार और कमज़ोर नहीं और पुर-जोश भी नहीं हैं कहें कि फ़ुलां बातें हमने अपने कानों से सुनीं और अपनी आँखों से देखीं और वो तक़य्युद से उन बातों पर गवाही दें तो ऐसी गवाही से और कोई गवाही ज़्यादा मज़्बूत और क़ाबिल यक़ीन नहीं हो सकती है। और ऐसी गवाहियाँ मो’जिज़ात मज़्हब ईस्वी पर बुहतेरी हैं।

          पर अगर ये बातें जिन पर ऐसी गवाहियाँ बय्न अदम एतिक़ाद हों तो शायद वो गवाही नाक़िस निकलेगी। लेकिन मा’लूम है कि वो मो’जिज़े जो किताब-ए-मुक़द्दस में मुबय्यन (बयान हुए) हैं सब क़ाबिल यक़ीन हैं। और अगर हम इक़रार करें कि मज़्हब की बातों में पुर-जोशी की बड़ी तासीर है ताहम आम बातों में भी पुर-जोशी और ज़्यादा रग़बत बेशुमार लोगों की गुमराही में ख़लल पहुंचा सकती है। लेकिन ताहम आदमियों की गवाही दुनियावी कारों में ली जाती काफ़ी व मुस्तहकाम समझी जाती है।

          (4) फिर कहते हैं (मो’तरिज़) अगर पुर-जोशी के सबब से नहीं तो शायद उस के और फ़रेब के सबब से मसीही मज़्हब के पहले गवाहों ने फ़रेब खा के और फ़रेब दे के झूटी गवाही दी है। इस का जवाब ये है कि अक्सर गवाही ली जाती और हक़ समझी जाती है पस हमें चाहिए कि मसीही मज़्हब के पहले गवाहों की गवाही को सच मानें वर्ना साबित करें कि वो या तो पुर-जोश थे या फ़रेबी थे।

          (5) क़ोलह : लोग बा’ज़ औक़ात झूटे मो’जिज़ों से फ़रेब ख़ाके उन को सच्चा मानते थे। जो अब और तरह की फ़रेब से इन्सान फंस गए हैं तो भी लोग अक्सर गवाही को सच जानते हैं।

          (6) बहुत मो’जिज़े जिनके ऊपर बहुत कुछ तवारीख़ी गवाही थे मन बाद झूटे निकले। हाँ ऐसा हुआ लेकिन किसी ने अब तक कभी साबित नहीं किया कि कोई एक भी मसीही मो’जिज़ा झूटा है।

          (7) पस जब से कि गवाही अक्सर सच्ची मानी जाती है पस ज़रूर है कि हम हवारियों की गवाही भी सच्ची जानें।

          (8) मसीही मज़्हब बहुत ज़रूरी है और उस के फ़राइज़ निहायत भारी हैं और उस में झूट बोलना बिल्कुल मना है इस से साबित है कि अगले गवाहों ने बहुत ख़बरदारी और होशियारी की ता ऐसा ना हो कि उन की गवाही में झूट या फ़रेब हो।

          (9) इन सब बातों से हर एक मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाला) आदमी सिर्फ ये नतीजा निकाल सकता है कि मसीही मज़्हब के मो’जिज़ों पर गवाहियाँ बहुत हैं अगरचे वो शबिया को बिल्कुल रद्द ना करे और उस के पास कोई गवाही या सबूत उन के बर-ख़िलाफ़ नहीं है। पस मज़्हब ईस्वी आप ही क़ाबिल यक़ीन के है इस सबब से ज़रूर है कि वो गवाही जो उस के मो’जिज़ों पर है काफ़ी व वाफ़ी समझी जाये।

          दोम : अब हम उन दलाईल को जो पेश गोइयों से निकले हैं दर्याफ़्त करेंगे कि वो किस तरह मख़्लूक़ात के तरीक़ों से मुशाबहत रखते हैं।

          पहले : किताब-ए-मुक़द्दस की पेश गोइयों में बहुत ऐसी हैं जो साफ़ मा’लूम हैं और सच-मुच पूरी हो गई हैं। और बा’ज़ हैं जो समझ में नहीं आतीं और मा’लूम नहीं कि क्या वो पूरी हुई या नहीं। लेकिन वो शबिया जो उन के कई एक हिस्सों में है उन साफ़ हिस्सों को नहीं झुटलाता है क्योंकि वो बातें भी ऐसी ही हैं जैसी वो समझ में नहीं आती थीं लिखी गईं। मसलन एक ख़त है कि जो निस्फ़ बतौर मुअम्मा (वो बात जो बतौर रम्ज़ बयान की जाये, पहेली, पोशीदा, बात) लिखा गया है और निस्फ़ साफ़ बातों में मर्क़ूम है और उस में कई बातों का बयान साफ़ है तो किसी के सोच में ना आएगा कि कहे कि इन मुअम्मों के सबब से जो इस ख़त में हैं वो साफ़ बातें भी बातिल हैं और लिखने वालों को मा’लूम नहीं हुईं। और अगर फिर कोई आदमी कम इल्मी या कम फ़ुर्सती के बा’इस या इस सबब कि उस ने ऐसी बातों पर ख़याल नहीं किया और दर्याफ़्त में ला सका कि आया फ़ुलानी पेशगोई बिल्कुल पूरी हुई है या नहीं लेकिन वो मा’लूम कर सकता है कि उस में बहुत सी बातें बिल्कुल पूरी हो गईं। पस वो इस से साफ़ जान सकता है कि इस पेशगोई का करने वाला फ़िल-हक़ीक़त इन बातों को जानता है। अब यही हाल हमारा है कि मोअर्रिखों की ग़लतियों और कम लिखने के सबब से हम नहीं जान सकते कि आया सब कुछ बिल्कुल पूरा हुआ या नहीं बल्कि हम देख सकते हैं कि जिन्हों ने उन पेश गोइयों को लिखा है वो उन बातों को पेश्तर से जानते थे या’नी वो ज़रूर इल्हाम से मा’मूर होके बोलते थे बस।

          दूसरे : अगर एक सिलसिला पेश गोइयों का हो जो कि फ़ुलां फ़ुलां माजरों में पूरा होता है तो साफ़-साफ़ ज़ाहिर है कि वो पेश गोईयां उन्हीं माजरों की पेश ख़बरी करने को दी गईं।

          अब दो तरह की तस्नीफ़ात हैं जो पेशगोई से कुछ मुवाफ़िक़त रखती हैं या’नी कहानी और हज्व बुराई अगर कोई आदमी कहानी या हज्व के तौर पर कुछ लिखे तो लोग समझेंगे कि उस की क्या राय है जब कि उस की कहानी गोई या हज्व गोई किसी बात या माजरे में मिल जाएगी। और अगर आधी बातें भी मिल जाएं तो भी लोग कहेंगे कि लिखने वाले का ज़रूर यही मतलब होगा। अब ख़याल करो कि मसीह की बाबत सब कुछ पेश्तर से लिखा गया यहां तक कि यहूदी लोग उस के आने से पहले उस की बाबत इस तरह से ज़िक्र करते थे जिस तरह से मसीही लोग उस के आने के बाद से अब तक करते हैं।

          अब हम बहुत सी ख़ास बातों से मज़्हब की दलीलों को निकालते हैं इसलिए कि और और बातों से दलाईल निकाले जाते हैं।

          (1) ख़ुदा ने हमको ख़लक़ी मज़्हब दिया है और हमको अक़्ल व समझ और तमीज़ भी अता की है कि जिससे हम अपने दस्तूरों को अपने फ़वाइद के लायक़ और मुवाफ़िक़ मुक़र्रर करें और उसे एक इल्हामी कलाम भी इनायत किया कि जिसमें उस का और उस की हुकूमत का बयान पाया जाता है जिसमें आइन्दा की सज़ा और जज़ा देने के तरीक़े ज़ाहिर हैं। ताकि हम अपना चाल व चलन उस हुकूमत के क़ानून के ज़रीये से दुरुस्त करें अगर वो ये ना देता तो हम कभी अपने चलन को ना सुधार सकते। और उस ने उस कलाम में एक ख़ास तदबीर बतलाई है कि जिससे कमबख़्त इन्सान अपनी पस्त हाली से बच कर कामिलियत तक पहुंचे और अपनी तबी’अत की अबदी ख़ुशी पाए।

          (2) ये कलाम जिसको हम इल्हामी कहते हैं हक़ीक़त में इस दुनिया की उस के शुरू से आख़िर तक की तवारीख़ है। पेशगोई माजरों के पेश्तर की तवारीख़ है और ता’लीमात सिर्फ़ हक़ीक़तें हैं और नसीहतें भी उसी दर्जे में हैं और कलाम का मक़्सद ये मा’लूम होता है कि इस दुनिया का हाल बदीं (इससे) लिहाज़ बयान करे कि वो ख़ुदा की है। और इसलिए ये कलाम सब किताबों से मुख़्तलिफ़ है। उस के शुरू में मख़्लूक़ात की पैदाइश के बयान में लिखा है कि ख़ुदा ने सब कुछ बनाया ताकि हमको मा’लूम हो कि किस की परस्तिश करें और कलाम इलाही में हर जगह अहकाम व धमकियां और वा’दे हैं ताकि हम याद रखें कि ख़ुदा-ए-राज़िक़ सँभालने वाला है और वह ख़ालिक़ व मालिक कहलाता है ताकि उस के और दीगर क़ौमों के बुतों के दरमियान फ़र्क़ मा’लूम हो।

          यूहन्ना ने अपनी इन्जील के शुरू में इस बात को याद दिलाया है जब कि उस ने मसीह की अज़लियत को साबित किया और पौलूस ने भी नामा (इफ़िसियों 3:9) में जतला दिया है।

          हमने मज़्कूर किया कि कलाम इलाही दुनिया की तवारीख़ है। लेकिन वो मुफ़स्सल तवारीख़ तवारीख़ नहीं बल्कि बा’ज़ मुल्कों और हुकूमतों का कुछ-कुछ बयान करती है पर जैसा ऊपर मुबय्यन (बयान) हुआ उस में लिखा है कि दुनिया ख़ुदा की हुकूमत में है पस जो कुछ बयान है इस मक़्सद पर है ता मालूम हो कि इलाही मज़्हब वाले किस तरह चलते हैं। सो हमें एतराज़ करना ना चाहिए कि उस में रोम और यूनान का मुफ़स्सल हाल क्यों नहीं है। उस में ज़रूर लिखा है कि सब आदमी और तमाम मुल्क पस्त हाली में हैं। और दीगर मुल्कों का हाल सिर्फ उसी क़द्र लिखा है जिससे मा’लूम हो कि ख़ुदा के लोगों का क्या हाल हुआ और है और होगा। जैसे अहदे-अतीक़ व जदीद के अक्सर मुक़ामों में उस वक़्त की बाबत कि जब सब बातें बहाल होंगी लिखा है। (आमाल 4:21) और आस्मान का बादशाह एक बादशाहत क़ाएम करेगा जो कभी नेस्त ना होगी और, और लोगों को दी ना जाएगी। (दानीएल 2:44) लेकिन इन्साफ़ करना मुक़द्दसों के हाथों में सौंपा जाएगा। (दानीएल 7:22) और सल्तनत व हुकूमत और तमाम आस्मान के नीचे बादशाहत की बड़ाई ख़ुदा के आलम बाला के मुक़द्दस लोगों को दी जाएगी। (दानीएल 7:27) ऐसे तूल तवील बयान में मो’तरिज़ों ने बहुत तकरार की है लेकिन इस से वो कलाम ज़्यादा तर क़ाएम होता है।

          और अलावा दुनिया की तदबीर की जो अहदे-अतीक़ में दुनिया के शुरू से सिलसिले-वार बयान है और बाद इस के इन्सान के नसब नामों का बहुत ज़मानों तक सब तरह की आम तवारीख़ के पेश्तर और बाद भी ऐसा कि क़रीब चार हजार के सिलसिले-वार तवारीख़ उसी किताब में है। उस में ये बयान भी है कि ख़ुदा ने एक ख़ास क़ौम के साथ अहद बाँधा ताकि वो खासतौर पर उस के लोग और वो उनका ख़ुदा हो। और उस ने मो’जिज़ाना तौर पर बारहा (बार-बार) उन की मदद की और उन से वा’दा किया और उस को पूरा करके एक ख़ास मुल्क उन्हें बख़्शा और ये भी वा’दा किया कि अगर वो सब बुतों को छोड़कर उस के हुक्मों पर चलेंगे तो उनका मुल्क हर तरह से मुबारक और सर-सब्ज़ होगा पर अगर सरकशी करके बुत-परस्त होंगे जैसे और क़ौम उस वक़्त थीं तो वो उन को निहायत सख़्त सज़ा देगा। पस वो तमाम क़ौमों में त’अज्जुब का बा’इस होंगे। और ये भी लिखा है कि वो सब मुल्कों में तितर-बितर होंगे पर जब ख़ुदा की तरफ़ फिरेंगे वो उन पर रहम करके सब क़ौमों में से इकट्ठा करेगा। और वसीला ये ठहराया गया कि उस के वास्ते एक शाहज़ादा और नजात-दहिंदा उठेगा।

          और उस नजात-दहिंदा या’नी मसीह का ऐसा साफ़ बयान लिखा है कि उस के आने के वक़्त वो उस के इंतिज़ार में थे। और ये इंतिज़ार एक पुख़्ता सबूत है कि वो पेश गोईयां सच-मुच पूरी हुईं। फिर पेश ख़बरी दी गई कि वो क़ौम बावजूद उसे बहुत चाहने और इंतिज़ार करने के क़ुबूल ना करेगी। और साफ़ बतलाया गया कि वो ग़ैर क़ौमों का नजात-दहिंदा होगा देखो (यसअयाह 8:14, 15, 49:5, 53 बाब, मलाकी 1:10, 11 आयत और मलाकी बाब 3)

          फिर लिखा है कि मसीही तदबीर बहुत बरूमंद होगी ऐसा कि उस के मुक़ाबले में यहूदी लोगों की फ़राहमी एक छोटी बात होगी। मसीह के हक़ में (यसअयाह 49:6) में फ़रमाया गया है ये तो कम है कि तू याक़ूब के फ़िर्क़ों को बरपा करने और इस्राईल के फिरा लाने के लिए मेरा बंदा हो बल्कि मैं तुझको ग़ैर क़ौमों के लिए नूर बख्शूंगा कि तुझसे मेरी नजात ज़मीन के सब किनारों तक पहुंचे।

          और नविश्तों में मुबय्यन (बयान) है कि जिस वक़्त यहूदी लोग मसीह का इंतिज़ार कर रहे थे एक शख़्स उस क़ौम का पैदा हुआ जिसने दा’वा किया कि मैं वही शख़्स हूँ जिसकी बाबत वो सब पेश गोईयां की गईं। और वह कई बरस तक मो’जिज़े करता रहा और अपने शागिर्दों को भी मो’जिज़ों की ताक़त व लियाक़त दी ताकि वो उस का मज़्हब फैलाएं और उस के सबूत में मो’जिज़े दिखलाएँ। और वो इस ताक़त व इख्तियार को रखकर दूर दूर मुल्कों में गए जहान कि बहुत लोग मसीही हो गए और इस तरह से मसीही मज़्हब दुनिया में जारी हुआ।

          और नविश्तों में उस मज़्हब का हाल दुनिया के आख़िर तक का पेश्तर बयान किया गया।

          अब ख़याल करो अगर कोई आदमी हो जो मज़्हब के फ़राइज़ बिल्कुल नहीं जानता। और उसे ये नविश्ता दिया जाये और बतलाया जाये कि उस के ज़रीये से अख़्लाक़ी मज़्हब साबित हुआ और अब कई कौमें इस मज़्हब को मानती हैं और वह हमारी हाली और आइन्दा की ख़ुशी के लिए निहायत ज़रूर है तो वो आदमी ज़रूर कहेगा कि ऐसा नविश्ता हक़ीक़तन क़ाबिल सोच और ग़ौर है। (2) और फिर उसे बतलाया जाये कि उस किताब का पहला हिस्सा निहायत पुराना है जिसमें पहले ज़मानों की तवारीख़ है जो और तवारीख़ों से ख़िलाफ़ नहीं बल्कि उन के साथ सब भारी बातों में मिलती है। और उस के तवारीख़ी तज़किरों में एक बात भी ग़ैर मुम्किन या ब’ईद अज़ अक़्ल नहीं है बल्कि सब बातें उन मुल्कों के दस्तूरों के मुवाफ़िक़ मा’लूम होती हैं। और वो तवारीख़ और तज़किरे क़यासी और कहानियों के मानिंद नहीं हैं बल्कि उस किताब की सब मुल्की और ख़ानदानी तवारीख़ बिल्कुल मुहतमल (मशकूक) है। और अगरचे कुछ-कुछ त’अज्जुब की और शायद बा’ज़ बा’ज़ ग़लत बातें हैं तो भी और किताबों में शायद ज़्यादा गलतियां हैं। और यह तवारीख़ और तज़किरे जो पैदाइश से चार हज़ार बरस का हाल बयान करते हैं बिल्कुल क़ाबिल-ए-यक़ीन हैं। और उस किताब का दूसरा हिस्सा या’नी अह्दे-जदीद किसी क़द्र तवारीख़ी है जिसको उस ज़माने की तस्नीफ़ की हुईं तवारीख़ें बिल्कुल साबित करती हैं तो वो आदमी ज़रूर कहेगा कि बहुत उम्दा और अजीब किताब है उस को पढ़ना चाहिए। (3) और उस आदमी से कहा जाये कि उस किताब में यहूदी क़ौम का हाल मुबय्यन (बयान) हुआ कि उन की हुकूमत उस किताब में यहूदी क़ौम का हाल मुबय्यन (बयान) हुआ कि उन की हुकूमत उस किताब की तौरेत के मुताबिक़ हुई। ख़ुदा उनका बादशाह था और वो ही सिर्फ जब कि और सब कौमें बुत-परस्त थीं ख़ुदा-ए-ख़ालिक़ व मालिक को मानते थे और इस बा’इस ख़ुदा के ख़ास लोग थे और अख़्लाक़ी मज़्हब का उन के बीच में क़ाएम होना और मूसा और नबियों के मो’जिज़ों को सबूत पहुंचता है।

          (4) फिर वो आदमी जो कि तवारीख़ से नावाक़िफ़ है सुने कि एक शख़्स जो मसीह होने का दा’वा करता है यहूदियों में उसी वक़्त पर जब कि वो अपनी किताब की पेश गोइयों के मुताबिक़ उस के आने के मुंतज़िर थे पैदा हुआ लेकिन उन से पेश गोइयों के मुताबिक़ इन्कार किया। और उसी किताब की पेश गोइयों के बमूजब और ग़ैर क़ौमों ने मो’जिज़ों के सबूत के सबब से उस को इक़रार करके क़ुबूल किया और रफ़्ता-रफ़्ता उस का मज़्हब बग़ैर मदद के बल्कि बादशाहों से तक्लीफ़ पाते हुए फैल गया यहां तक कि वो तमाम दुनिया का मज़्हब बन गया और इतने में यहूदी मुल्क और सल्तनत अजीब तरह से बिल्कुल नेस्त व नाबूद हो गई और वो लोग क़ैद हो कर दूर-दूर मुल्कों में परागंदा किए गए और डेढ़ हज़ार बरस से अब तक इस हाल में रहे हैं। और वो और सब लोगों से बिल्कुल अलैहदा हैं और अगरचे शुमार में बहुत हैं तो भी जैसे मूसा के वक़्त में शरी’अत को मान के अलग रहते थे वैसे ही अब तक उस को मान के अलग रहते हैं। और सब उन को हक़ीर जान कर ठट्ठों में उड़ाते हैं। उन के इस हाल का बयान हम उन्हीं बातों में जो उन के हक़ में पेशगोई के तौर पर उन के ग़ारत होने से बहुत मुद्दत पहले फ़रमाई गईं अच्छी तरह से बयान कर सकते हैं वो बातें किताब (इस्तिस्ना 28:37) में मज़्कूर हैं। और तू उन सब क़ौमों में जहां-जहां ख़ुदावन्द तुझे पहुंचाएगा हैरानी का बा’इस और ज़रब-उल-मसल और ल’अन त’अन का निशाना होगा।

          (5) ये क़ाएम मो’जिज़ा या’नी यहूदियों का परागंदा होना और इसी हालत में रहना जो पेश गोइयों से कमा-हक़्क़ा (जैसा उस का हक़ है) मिलता है किसी जवाब से रद्द नहीं हो सकता है।

          (6) और उस आदमी से कहो कि उस किताब की पेश गोइयों में से बहुत सी पूरी हुईं या’नी उन के मुताबिक़ यहूदी लोग तितर-बितर हुए और और बहुत सी बातें मसीह की बाबत पूरी हुईं तो वो आदमी ज़रूर कहेगा कि सब कुछ जो बाक़ी है पूरा होगा और मसीह की बादशाहत उन के और तमाम दुनिया के ऊपर फैलेगी।

          (7) वो आदमी कहेगा कि वो दलील जो कि पूरी हुई पेश गोइयों से निकली है और बिल्कुल दुरुस्त और सच्ची और क़ाएम है ऐसा कि कोई उस को रद्द नहीं कर सकता।

          (8) क्योंकि जो कोई उन पेश गोइयों को जिनकी तरफ़ से हमने इशारा किया उन माजरों के साथ जो तवारीख़ों में पाई जाती हैं मिलाएगा वो ज़रूर कहेगा कि ये माजरे वही हैं जो कि उन पेश गोइयों में मुबय्यन (बयान) हैं।

          (9) अगर कोई उनको बख़ूबी समझे तो ज़रूर है कि वो उन्हें यक-ब-यक बड़ी होशियारी और ख़बरदारी से दर्याफ़्त करेगा और जो ऐसा करेगा उसे मा’लूम होगा कि वो बहुत भारी दलीलें हैं।

          (10) अब मज़्हब ईस्वी पर इन्साफ़ करना है कि जैसा और बातों पर इन्साफ़ करना है या’नी तमाम दलीलों को ख़्वाह उस के सबूत में या उस के बर-ख़िलाफ़ हों ग़ौर से जाँचना और तब इन्साफ़ करना। और हर एक होशमंद आदमी पर फ़र्ज़ है और वाजिब है कि दिलो-जान से दर्याफ़्त करे कि मसीही मज़्हब के सबूत की दलीलें ज़्यादा हैं या उस के बर-ख़िलाफ़ हैं। और याद भी रखना चाहिए कि अगर कोई इस में ग़लती करेगा तो हमेशा के वास्ते नुक़्सान है।

          (11) बहुत लोग ऐसे हैं कि वो इस मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ बोलने में बहुत फ़सीह हैं लेकिन ऐसे सुस्त रहते हैं कि उस के दलाईल पर ज़रा भी ख़याल नहीं करते और ना तवारीख़ों को उन की तलाश के लिए मुताल’आ करते हैं।

          (12) आख़िरी बात : साबित हुआ कि मसीही मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ कोई माक़ूल एतराज़ नहीं हो सकता है और उस की आम तदबीर और ख़ास हिस्से मख़्लूक़ात के तरीक़ों से मुशाबहत रखते हैं और सब के सब अग़्लब (मुम्किन) हैं और वो ऐसा है कि अगरचे उस की ख़ास दलीलें कुछ-कुछ घट जाएं तो भी वो नेस्त नहीं हो सकेंगी और बावजूद उस के कि काफ़िर और मो’तरिज़ (एतराज़ करने वाला) अपनी सारी ताक़त से उस के रद्द करने की कोशिश कर चुके तो भी मसीही मज़्हब की बेशुमार काफ़ी व वाफ़ी दलीलें क़ाएम रहती हैं और बस।



आठवां बाब

उन एतराज़ों के बयान में जो कि इस तरह के
मुबाहिसा करने के बर-ख़िलाफ़ हैं

          वो लोग जो मसीही मज़्हब पर एतराज़ करते हैं अगर उस बात को जिसके बर-ख़िलाफ़ वो लिखते और बोलते हैं कोशिश करके दर्याफ़्त करते तो इस बात के लिखने की हाजत ना होती। लेकिन चूँकि वो ऐसा नहीं करते हैं इसलिए हम उन के एतराज़ों पर कुछ ख़याल करेंगे।

          वो मो’तरिज़ कहते हैं कि इस में कुछ तसल्ली नहीं है जो मज़्हब की मुश्किलात को रद्द करे और चूँकि मख़्लूक़ात के तरीक़ों में भी वैसी ही मुश्किलात हैं तो ज़रूर है कि वो दोनों की मुश्किलात को दूर करे।

          और मज़्हब के फ़राइज़ हम पर इस बात से साबित हैं कि हम अपने सब दुनियावी काम को शक व शुब्हों में चलाते हैं पर मज़्हब में शक की बात बिल्कुल आने नहीं देते हैं।

          अब ये सोचना ना चाहिए कि इन्सान मसीही मज़्हब को शुब्हों के साथ क़ुबूल करेंगे कि वो मज़्हब इन्सान के सारे काम और मन्सूबों और ख़्वाहिशों को तब्दील करता है। पस याद रखने की बात है कि अगर इन्सान अपने दुनियावी काम और ख़ुशी को मज़्हब के वास्ते छोड़ें तो ज़ाहिर है कि वो उस मज़्हब में किसी तरह का शक व शुब्हा नहीं करते।

          जो ऐसा करते हैं वो बेइल्म और क़ासिर होने के सबब से कहते हैं और उन के जवाब अब दीए जाते हैं।

          पहले : जो बात बाक़ी है और लोग चाहते हैं सो यह है कि हर तरह की मुश्किलात रद्द हो ताकि हम सब कुछ समझें लेकिन ये अनहोनी बात है। जब हम ख़ुदा की ज़ात को बिल्कुल समझ लें और अज़ल से अबद तक सब कुछ पहचानें या’नी जब हम आलिमुल-गैब हो जाएं तब हम दुनियावी और मज़्हबी मुश्किलात को भी रद्द कर सकेंगे।

          हम नादानों को हमेशा इजाज़त है कि उन बातों में से जो हम देखते और जानते हैं मुश्किल और मख़्फ़ी (छिपी) बातों को खोल कर बयान करें। सो जब हम देखते हैं कि ख़ुदा अपनी हुकूमत में फ़ुलां तरीक़े को इस्तिमाल करता है तो हम ज़रूर कहेंगे कि वो अपनी मज़्हबी हुकूमत में भी उसी तरीक़े को इस्तिमाल करेगा। और जब कि कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि मज़्हब में सिर्फ वही मुश्किलें नज़र आती हैं जो कि मख़्लूक़ात के तरीक़ों में पाई जाती हैं तो मुनासिब नहीं है कि अख़्लाक़ी मज़्हब पर यक़ीन ना लाएं और इल्हामी मज़्हब से किनारा करें।

          दूसरे : मज़्हब एक फ़ाइदेमंद शय है जिसका मतलब और म’अनी ख़ालिक़ के हुक्म के बमूजब चलना है ताकि हमारी ख़ुशी उस की हुकूमत में बहाल हो और बढ़ती भी जाये। पस अगर साबित है कि जिस तरह दुनियावी कामों में वफ़ादारी और होशियारी करने से फ़ायदा हासिल होता है इसी तरह मज़्हब के मानने से रुहानी फ़ायदा होगा। और मज़्हब के हक़ में बनिस्बत दुनियावी इंतज़ामों के ज़्यादा सबूत हैं और एतराज़ उस की निस्बत कम हैं। तो अक़्लमंद आदमी ज़रूर मज़्हब को सोच कर क़ुबूल भी करेंगे। और जब कि साबित है कि मज़्हब के मानने से बनिस्बत दुनियावी बातों की तलाश के निहायत ज़्यादा फ़ायदा होता है तो कौन कह सकता है कि मज़्हब के वास्ते बनिस्बत दुनियावी इंतज़ामों के ज़्यादा मज़्बूत दलीलें ज़रूर हैं।

          तीसरे : इस किताब का मक़्सद ये नहीं है कि ख़ुदा की हुकूमत को रास्त साबित करे बल्कि ये कि इन्सान के फ़राइज़ को ज़ाहिर करे। ये दो बातें हैं अगरचे वो कुछ-कुछ मिलती भी हैं। ताहम अगर मो’तरिज़ कहे कि मज़्हब की फ़ुलां-फ़ुलां बात ग़ैर-इंसाफ़ी की है और हम बता दें जैसा पहले बाबों में मज़्कूर है कि वही बातें ठीक-ठीक और बातों के मानिंद हैं जो कि उस की हुकूमत में सब लोग मानते हैं। और ये भी बतादें कि हम लोग ख़ुदा के इंतिज़ाम समझ नहीं सकते हैं और इस सबब से बे इंसाफ़ी मा’लूम होती है तो उस एतराज़ का ठीक-ठीक जवाब दिया गया है। मसलन मो’तरिज़ कहे कि आइन्दा की सज़ा या जज़ा देना ग़ैर इन्साफ़ और नेकी के है। और हमने साबित किया कि ख़ुदा इस दुनिया में सज़ा और जज़ा देता है तो क्यूँ-कर ग़ैर मुम्किन है कि वो आगे को भी देगा। तो मो’तरिज़ लाजवाब है।

          हम नहीं कहते हैं कि इस तरह की तश्बीह देने से हमने अपने मज़्हब को साबित किया या अपने ख़ालिक़ व मालिक को रास्त ज़ाहिर किया बल्कि हमने एतराज़ों को रद्द किया और ज़ाहिर किया कि जो मसीही मज़्हब पर एतराज़ करते हैं वो अपनी बातों को किसी तरह से साबित नहीं कर सकते हैं।

          चौथे : हम नहीं कहते हैं कि ये किताब कामिल है या कि वो उन बातों पर पूरे दलाईल पेश करती है लेकिन वो मुसन्निफ़ के मक़्सद को पूरा करती है। क्योंकि इस में साफ़ साबित है कि मसीही मज़्हब अपने मतलब को पूरा करता है। इस में ऐसे दलाईल नहीं हैं कि जिनके ज़रीये से इन्सान ख़्वाह-मख़्वाह बे मर्ज़ी क़ाइल किया और यक़ीन दिलाया जाये। वो मज़्हब ईमान और यक़ीन को तरक़्क़ी देता है। जो कोई ईमान से उस पर यक़ीन लाएगा वो उस की सच्चाई और फ़वाइद भी ख़ुद दिल में मा’लूम करेगा। और शक व शुब्हा से अलग रहेगा और बस।

          अगर मो’तरिज़ कहे कि लोग मज़्हब के सबूत कभी नहीं पाएँगे और अपनी चाल-चलन उस के मुताबिक़ ना सुधारेंगे। हम जवाब देते हैं कि इस से साबित नहीं है कि वो सबूत झूटे और वह मज़्हब बातिल है। क्योंकि हम रोज़ बरोज़ देखते हैं कि आदमी दुनियावी कामों में भी अपनी अक़्ल और तमीज़ के बर-ख़िलाफ़ चलते हैं।

          और याद रखना चाहिए कि इस किताब में सब आदमियों के हर तरह के एतराज़ों के जवाब दिए गए हैं और तब मज़्हब की दलीलें पेश की गईं हैं।

          और हम ने साबित किया कि बिल-फ़र्ज़ ता’लीम तक़्दीर सच्ची हो तो भी उस से साबित नहीं हो सकता कि मसीही मज़्हब झूटा है। अगर हम इस ता’लीम को रद्द करके कामिल आज़ादी और फ़े’ल (काम, अमल) मुख्तारी की न्यू (बुनियाद) पर मज़्हब के दलाईल पेश करते तो वो ज़्यादा मज़्बूत और क़ाइल करने वाले होते।

          इस किताब के ये फ़वाइद निकलेंगे कि जो मसीही मज़्हब को मानते हैं देखेंगे कि कोई पक्का और सच्चा एतराज़ इस मज़्हब के बर-ख़िलाफ़ नहीं हो सकता है। क्योंकि उन सब का जवाब मसीही लोग दे सकते हैं। और वह जो इस मज़्हब को नहीं मानते अगर इस किताब को ख़ूब पढ़ेंगे तो क़ाइल होंगे कि वो सच्चा है और उस पर एतराज़ करना बिल्कुल बेफ़ाइदा है।

          आख़िरकार अगरचे बा’ज़ अश्ख़ास तमाम मुशाबहत को ठट्ठों में उड़ा दें ताहम सब मुतहम्मिल (बर्दाश्त करने वाले) आदमी और ख़ासकर वो जो ख़ुद-राई के मुबाहिसा से ख़ुश नहीं हैं इक़रार करेंगे कि मज़्हब और तरीक़ा मख़्लूक़ात में कुछ मुशाबहत है और जो दलीलें मुशाबहत से निकाली गईं ज़रूर ताक़तवर और आराम की हैं।

हिस्सा दोम तमाम शुद