M.A.F.R.A.S
मुसन्निफ़ की मजीद किताबें
पहली ऐडीशन का दीबाचा
इन्जील चहारुम में वारिद है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने अपनी रिसालत की इब्तिदा क़ाना-ए-गलील के मो’जिज़े से की। इस गांव में आपने ब्याह के मौक़े पर एक ग़रीब ख़ानदान की हाजत को यूं रफ़ा’अ् किया कि पानी को मसीहाई एजाज़ से अंगूर के रस में तब्दील कर दिया।
मुख़ालिफ़ीन मसीहियत इस मो’जिज़े पर उमूमन एतराज़ किया करते हैं और हम ने ये कोशिश की है कि इस रिसाले में इन एतराज़ात की तफ़्सीली तौर पर तन्क़ीद की जाये। पस हमने मौलवी सना-उल्लाह साहब के एतराज़ात को लेकर उनका जवाब दिया है क्योंकि मौलवी साहब को शुमाली हिंद के मुसलमानों में बोजूह चंद दर चंद शौहरत हासिल है। उन्होंने मेरी तीन किताबों के जवाब में चंद दक़यानूसी एतराज़ात पढ़ सुनाए हैं। इसी सिलसिले में क़ाना-ए-गलील के मो’जिज़े पर भी निहायत दरीदा दाहिनी से एतराज़ात किए गए हैं। हमने इन एतराज़ात को मुतलक़ा क़ाबिल-ए-इल्तिफ़ात ना पाया क्योंकि बअल्फ़ाज़-ए-क़ादियानी रिव्यू आफ़ रिलीजियंस “हमारा अंदाज़ बयान मुख़्तलिफ़ था। लेकिन मौलवी साहब का अंदाज़ वही क़दीम मुनाज़राना है जिसके बयान में कोई नदिरत नहीं” फिर ख़याल आया कि अहले-इस्लाम में क़हतुर-रिजाल इस क़द्र है कि हमारी किताबें क़रीबन तीस साल से शाए’ हो कर बज़बान हाल ھل مب مبازر पुकार रही हैं। लेकिन क़ादियानी और दीगर मुसलमान मुनाज़िरीन का ये हाल है कि توگوئی مردہ اند ख़ुद मौलवी साहब भी यही रोना रोते हैं (इस्लाम व मसीहियत सफ्ह 1 ता 3) روبہ میداں کس نمی آرد سواراں راچہ شد؟
पस हमने इस मज्बूरी के मातहत कि "با ہمیں مردماں بباید ساخت" इस रिसाले में आपके उन एतराज़ात का जवाब लिखा है। जिन का ताल्लुक़ कानाए-गलील के मा’जिज़े के साथ है।
म’अन हमारे दिल में ये ख़याल भी आया कि मौलवी साहब की उम्र की ये आख़िरी मंज़िल है और बमूजब अल्फ़ाज़ क़ुर्आनी لاتقنطوامن رحمت الله “अल्लाह की रहमत से ना उम्मीद ना हो” हमें फ़ज़्ल इलाही से मायूस नहीं होना चाहिए मुम्किन है कि मौलवी साहब अपने एतराज़ात का जवाब पढ़ कर “दाई अजल को लब्बैक कहने” से पहले तौबा करलें और हम भी रोज़ हिसाब सुर्ख़रु हो जाएं। पस हमने उनकी दरीदा दाहिनी से क़त-ए-नज़र करके अपने कलेजे पर सिल रखकर उनके एतराज़ात का जवाब दिया है। लेकिन हम इस के साथ ही आपको तौबा की दा’वत भी देते हैं। आपने इस्लाम के “उलूल-अज़्म रफ़ी’उल मर्तबत पैग़म्बर हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) की ऐसी तौहीन व तन्क़ीस की कि शराफ़त मातम-कनाँ और इन्सानियत मर्सियाँ-ख़्वाँ है। आप तमाम उम्र इस क़िस्म के आज़ार मुनाज़रों के आदी रहे हैं और पीराना-साली में अपनी तर्ज़ से बाज़ नहीं आ सकते।
बक़ौल हज़रत ग़ालिब :-
गो हाथ में जुंबिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र व मीना मेरे आगे
मौलवी साहब का रुख और अंदाज़ हमको सूरह बक़रह की मुन्दरिजा ज़ैल आयात याद दिलाता है कि काश कि आप उनका तदब्बुर और ग़ौर से मुताल’आ करें और अपने गुनाहों से तौबा करके रुजू’ लाएं :-
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُواْ سَوَاءٌ عَلَيْهِمْ أَأَنذَرْتَهُمْ أَمْ لَمْ تُنذِرْهُمْ لاَ يُؤْمِنُونَخَتَمَ اللّهُ عَلَى قُلُوبِهمْ وَعَلَى سَمْعِهِمْ وَعَلَى أَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ وَلَهُمْ عَذَابٌ عظِيمٌوَمِنَ النَّاسِ مَن يَقُولُ آمَنَّا بِاللّهِ وَبِالْيَوْمِ الآخِرِ وَمَا هُم بِمُؤْمِنِينَ يُخَادِعُونَ اللّهَ وَالَّذِينَ آمَنُوا وَمَا يَخْدَعُونَ إِلاَّ أَنفُسَهُم وَمَا يَشْعُرُونَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ فَزَادَهُمُ اللّهُ مَرَضاً وَلَهُم عَذَابٌ أَلِيمٌ بِمَا كَانُوا يَكْذِبُونَ
(सूरह बक़रह 6 ता 10 आयत)
तर्जुमा : यानी मौलवी सना-उल्लाह साहब जैसे “लोग जो कुफ़्र में पड़े हैं। उनको डराना या ना डराना यकसाँ है। वो ईमान नहीं लाने के। अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी है और उन के कानों पर और उन की आँखों पर पर्दा है और उनके लिए भारी अज़ाब है।” और मौलवी सना-उल्लाह की तरह बा’ज़ लोग हैं जो ज़बान से तो इक़रार करते हैं कि हम अल्लाह पर और आख़िरी दिन पर ईमान लाए। हालाँकि वो अपने दिलों में ये ईमान नहीं रखते। इस क़िस्म के लोग अल्लाह को और ईमानदारों को धोका देना चाहते हैं। लेकिन दर-हक़ीक़त वो सिर्फ अपने आपको ही धोका देते हैं और अक़्ल से आरी हैं। उनके दिलों में बीमारी है। पस अल्लाह ने उनकी बीमारी को और भी बढ़ा दिया है। आइन्दा जहान में उनके लिए दर्दनाक अज़ाब तैयार है क्योंकि वो झूट बकते हैं।”
इसी रुहानी तारीकी और बीमारी की तरफ़ हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने इशारा किया जब आपने हज़रत यस’अयाह नबी के अल्फ़ाज़ को अपनी ज़बान हक़ीक़त तर्जुमान से दुहराया और फ़रमाया :-
“उन लोगों के हक़ में यस’अयाह की ये पेशीनगोई पूरी होती है कि तुम कानों से सुनोगे पर हरगिज़ ना समझोगे और आँखों से देखोगे पर हरगिज़ मालूम ना करोगे क्योंकि इस उम्मत के दिल पर चर्बी छा गई है और वो कानों से ऊंचा सुनते हैं और उन्हों ने अपनी आँखें बंद करली हैं ता एसा ना हो कि वो आँखों से मालूम करें और कानों से सुनें और दिल से समझें और रुजू’ लाएं और मैं उनको शिफ़ा बख्शूं।” (मत्ती 13:14)
काश कि मौलवी सना-उल्लाह साहब इन इलाही इर्शादात को कानों से सुनें और दिल से समझें और रुजू’ लाएं और और मुन्जी कौनैन से शिफ़ा हासिल करें। आमीन सुम्मा आमीन।
यक्म दिसंबर 1945 बरकत-उल्लाह
अनारकली बटाला पंजाब
दूसरे ऐडीशन का दीबाचा
इस रिसाले की पहली ऐडीशन के शाए’ होने के डेढ़ साल बाद हमारे मुल्क की तक़्सीम हो गई और मौलवी सना-उल्लाह साहब अपने वतन अमृतसर को ख़ैर बाद कह कर मग़रिबी पाकिस्तान चले गए। सुना है कि आप वफ़ात पा गए हैं। ख़ुदा मग़्फिरत करे।
पस हमने इस ऐडीशन से वो तमाम अल्फ़ाज़ और फ़िक्रात ख़ारिज कर दिए हैं जिनका ताल्लुक़ ख़ास आपकी ज़ात से था। लेकिन हमने कोशिश की है कि उनके ख़ारिज होने से रिसाले के दलाईल पर असर ना पड़े।
ख़ुदा करे कि मुत्लाशियान हक़ इस रिसाले को पढ़ कर गुमराही से बचें और सिरात-ए-मुस्तक़ीम इख़्तियार करके नजात हासिल करें।
बरकत-उल्लाह
यक्म अप्रैल 1951 ई॰ अनारकली बटाला, शुमाली हिंद
क़ाना-ए-गलील का मो’जिज़ा और
मुख़ालिफ़ीन के एतराज़ात
मुक़द्दस यूहन्ना रसूल की इन्जील में लिखा है :-
“फिर तीसरे दिन क़ाना-ए-गलील में एक शादी हुई और सय्यदना मसीह की वालिदा वहां थी और सय्यदना मसीह और उनके शागिर्दों की भी इस शादी में दा’वत थी। और जब मै ख़त्म हो चुकी सय्यदना मसीह की माँ ने उस से कहा कि उनके पास मै नहीं रही। सय्यदना मसीह ने उस से कहा ऐ औरत मुझे तुझसे क्या काम? अभी मेरा वक़्त नहीं आया। उस की माँ ने खादिमों से कहा जो कुछ ये तुमसे कहे करो।”
“वहां यहूदियों की तहारत के दस्तूर के मुवाफ़िक़ पत्थर के छः(6) मटके रखे थे और उन में दो दो तीन तीन की गुंजाइश थी। येसू ने उनसे कहा। मटकों में पानी भर दो। पस उन्होंने उनको लबा लब भर दिया। फिर उसने उनसे कहा, कि निकाल कर मीर मज्लिस के पास ले जाओ। पस वो ले गए।”
“जब मीर मज्लिस ने वो पानी चखा जो मै बन गया था और ना जानता था कि ये कहाँ से आई है मगर ख़ादिम जिन्हों ने पानी निकाला जानते थे तो मीर मज्लिस ने दूल्हे को बुला कर उस से कहा। हर शख़्स पहले अच्छी मै पेश करता है और नाक़िस उस वक़्त जब पी कर छक गए मगर तूने अच्छी मै अब तक रख छोड़ी है।”
“ये पहला मो’जिज़ा येसू ने क़ाना-ए-गलील में दिखा कर अपना जलाल ज़ाहिर किया और उस के शागिर्द उस पर ईमान लाए।” (बाब 2 आयात 1 ता 11)
मौलवी सना-उल्लाह साहब इस मो’जिज़ा पर बअल्फ़ाज़ ज़ेल एतराज़ करते हैं :-
ونقل کفرُ کفُر نباشد۔
“बक़ौल यूहन्ना मसीह ने अपनी वालिदा मुकर्रमा को नाक भों चढ़ा कर मुख़ातिब किया था वो क़िस्सा सुनने के क़ाबिल है। अस्ल अल्फ़ाज़ ये हैं :-
तीसरे दिन कानाए जलील में किसी का ब्याह हुआ और येसू की माँ वहां थी और येसू और उस के शागिर्दों को भी इस ब्याह में दा’वत थी। जब मै (शराब) घट गई येसू की माँ ने उस से कहा कि उनके पास मै नहीं रही। येसू ने उस से कहा, ऐ औरत मुझे तुझसे क्या काम मेरा वक़्त हनूज़ नहीं आया।”
नाज़रीन अंदाज़ा कर सकते हैं कि ये अल्फ़ाज़ “ऐ औरत मुझे तुझसे क्या काम” अदब के हैं या सो अदबी के। पादरी साहब की तरफ़ से ये उज़्र हो सकता है कि वो मज्लिस शराबखोरी की थी। इसलिए उस के असर से अगर ये फ़िक़्रह मुँह से निकल गया हो तो क़ाबिल-ए-दरगुज़र है।
शेख़ सादी ने भी इसलिए कहा है :-
محتسب گرمے خورد معذدر دار ومست را
(किताब इस्लाम और मसीहियत सफ्ह 148)
मुन्दरिजा बाला इबारत में मौलवी साहब मौसूफ़ ने चार एतराज़ किए हैं जिनके जवाब हम इंशा-अल्लाह इस रिसाले में मुफ़स्सिल देंगे। वो एतराज़ात उनके अपने अल्फ़ाज़ में हस्बे-ज़ैल हैं :-
एतराज़ अव्वल : “मसीह ने अपनी वालिदा मुकर्रमा को नाक भों चढ़ा कर मुख़ातिब किया था।”
एतराज़ सोम : मसीह ने अपनी एजाज़ी ताक़त से जो शे बनाई वो “शराब” थी।
1 खाकसार की तरफ इशारा है। (बरकत-उल्लाह)
एतराज़ चहारुम : मज्लिस शराबखोरी की थी। इसलिए उस के असर से ये फ़िक़्रह मसीह के मुँह से निकल गया।”
नाज़रीन मौलवी साहब के अल्फ़ाज़ पर ग़ौर फ़रमाएं और उन की होशयारी की दाद दें। आपने किस मुनाज़िराना चालाकी है ये एतराज़ात किए हैं। बिलख़ुसूस जिस रंग में चौथा एतराज़ किया गया है वो फ़ारसी मिस्ल मुन्किर " منکر مے بودن وہم رنگ مستاں زیستن" का मिस्दाक़ है। मुन्दरिजा बाला चारों के चारों एतराज़ात ऐसे नापाक हमले और शर्मनाक कलिमे हैं जो किसी मोमिन मुसलमान के क़लम से एक ऐसे शख़्स की शान में जिसको वो ख़ुद मा’सूम नबी, बर्गुज़ीदा रसूल-अल्लाह, कलिमतुल्लाह और रूह-उल्लाह मानता हो निकलने वाजिब नहीं। इस क़िस्म के एतराज़ात ज़ाहिर करते हैं कि मुसलमान मो’तरज़ीन पर भी आँजहानी मिर्ज़ाए क़ादियानी का साया पड़ गया है। लेकिन :-
درہما ازجہاں شود معدوم کس نیا ید بزیر سایہ بوُم
हक़ तो ये है कि मौलवी सना-उल्लाह साहब ने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़िलाफ़ जो सब व शितम का वतीरा इख़्तियार कर रखा था उस से तो मिर्ज़ाई तक तिलमिला उठे थे। चुनान्चे क़ादियान से सदाए एहतिजाज बुलंद हुई कि :-
“26 दिसंबर 1941 ई॰ के अहले-हदीस में मौलवी सना-उल्लाह ने ये अफ़साना शाए’ किए थे, मसीह से दो गुनाह सरज़द हुए। एक शराब की मज्लिस में हाज़िर होना और दूसरा अपनी माँ की ताज़ीम करने की बजाए उस को तौहीन आमेज़ लफ़्ज़ों से मुख़ातिब करना।” मालूम होता है कि इस के बाद मौलवी सना-उल्लाह ने हज़रत ईसा अलै॰ की तौहीन का एक सिलसिला शुरू कर दिया है और ऐसे अंदाज़ में हज़रत ईसा अलै॰ का ज़िक्र किया है जो निहायत हतक आमेज़ है। हमें अफ़्सोस है कि उनको इस बात का कुछ भी एहसास नहीं हुआ कि वो एक नारदा फ़े’अल के मुर्तक़िब हुए हैं।” (अल-फ़ज़्ल 4 जून 1942 ई॰)
“ये क़ुद्रत की तरफ़ से उस इल्ज़ाम का जवाब है जो मौलवी साहब मिर्ज़ा साहब पर लगाया करते थे। कि उन्होंने हज़रत मसीह की तौहीन की है इसलिए ख़ुदा त’आला ने ख़ुद मौलवी साहब को भी उसी इल्ज़ाम से मुल्ज़िम ठहराया है।” (अल-फ़ज़्ल 22 जुलाई नीज़ देखो 16 जुलाई 10 सितंबर 1942 ई॰ वग़ैरह)
क़ादियानियों के इन अल्फ़ाज़ का मौलवी साहब ने तादम मर्ग (मौत तक) कोई जवाब नहीं दिया।
मौलवी सना-उल्लाह साहब (ख़ुदा मग़्फिरत करे) कहने को तो पेशावर मुनाज़िर थे और आप ने अपनी उम्र गिराँमाया मुनाज़रे में ही सर्फ कर दी। लेकिन फिर भी आप मसीहियों की कुतुब मुक़द्दसा (जिन पर वो ख़ुद बरा-ए-नाम ईमान भी रखते थे) की ज़बान तक से नाआशना थे। चुनान्चे आप तौरात, ज़बूर और सहाइफ़ अम्बिया की अस्ल ज़बान इब्रानी से मह्ज़ ना-बलद। और इन्जील जलील की ज़बान यानी यूनानी के हुरूफ़-ए-तहज्जी तक से बेगाना थे। अगर वो आक़िबत अंदेशी को काम में ला कर मुनाज़रे का पेशा इख़्तियार करने से पहले इन्जील जलील और उस की ज़बान से सतही वाक़फ़ियत ही हासिल करने की ज़हमत गवारा कर लेते तो इस क़िस्म के ज़न्नी (ख्याली) एतराज़ात ना करते। क़ुर्आन में मौलवी साहब जैसे लोगों के लिए ही ये वारिद हुआ है, ان یبتغون الا نظن وان انظن لایقی من الحق شیاء यानी “आप मह्ज़ एक ज़न (ख्याल) की पैरवी करते हैं और ज़न कभी हक़ बात में काम नहीं आता।” (सूरह नज्म 28 आयत)
मौलवी साहब के एतराज़ात की बिना (बुनियाद) किताब-ए-मुक़द्दस का वो उर्दू तर्जुमा है जो अंग्रेज़ों ने किया है और ब्रिटिश ऐंड फ़ौरन बाइबल सोसाइटी ने शाए’ किया है यही वजह है कि आप क़दम-क़दम पर एतराज़ करने में लग़्ज़िश खाते हैं।
अगर कोई गुजराती या मराठी ग़ैर-मुस्लिम क़ुर्आन को अरबी इबारत के हरूफ़-ए-तहज्जी तक से नाआशना हो और किसी गुजराती या मराठी तर्जुमा क़ुर्आन की बिना पर (जो किसी शुमाली हिंद के मुसलमान ने किया हो) क़ुर्आन पर ऐसे एतराज़ करे जिनका पोल अरबी ज़बान के मुबतदी (अरबी के मामूली इल्म रखने वाले) पर भी ज़ाहिर हो लेकिन इस पर भी ये ग़ैर-मुस्लिम वदन की लेकर अपने आपको मैदान-ए-मुनाज़रा में यकताए रोज़गार समझे तो क्या उस की जग-हँसाई ना होगी? ख़ुद मौलवी साहब ऐसे शख़्स को क़ाबिल-ए-ख़िताब भी ना समझते। लेकिन बईना ये हाल मौलवी साहब का है। आप सहफ़-ए-समावी की दोनो ज़बानों इब्रानी और यूनानी के हरूफ़-ए-तहज्जी तक से ना-बलद थे और ये ख़याल नहीं करते कि आपकी ना वाक़फ़ियत ज़बान से कैसे कुर्ब अंगेज़ अल्फ़ाज़ निकलवा रही है। और आप अल्लाह और उस की किताबों और उस के रसूलों और रोज़ मह्शर पर ईमान रखने के बावजूद हज़रत कलिमतुल्लाह मसीह ईसा इब्ने मरियम وجیھاًٍ فی الدنیا والاخرة ومن المقربینकी ज़ात-ए-पाक पर बेबाकाना नापाक हमले करते रहे।
इस रिसाले के नाज़रीन पर ज़ाहिर हो जाएगा कि मो’तरिज़ के बेमा’अनी एतराज़ात उस की लाइल्मी की ख़ुद पर्दादरी करते हैं। सच है :-
چوں خدا خواہد پروہ کس درد
میلش اندر طعنہ پاکاں برد
पहला एतराज़ : क्या सय्यदना मसीह ने बीबी
मर्यम को नाक भों चढ़ाकर मुख़ातिब किया था?
पहला एतराज़ दरअस्ल एतराज़ नहीं बल्कि बुहतान-ए-अज़ीम है। मौलवी साहब कहते हैं कि :-
“बक़ौल यूहन्ना मसीह ने अपनी वालिदा मुकर्रमा को नाक भों चढ़ा कर मुख़ातिब किया था।” (सफ़ा 148)
नाज़रीन इन्जील यूहन्ना के दूसरे बाब की पहली ग्यारह आयत को इस रिसाले के बाब अव्वल में पढ़ कर देखें। क्या इस तमाम इबारत में कोई फ़िक़्रह या लफ़्ज़ ऐसा है जिनसे मौलवी साहब ये अख़ज़ कर सकें कि आँख़ुदावंद ने मुक़द्दसा मर्यम को “नाक भों चढ़ा कर मुख़ातिब किया था” इस मुक़ाम में कौनसा लफ़्ज़ या फ़िक़्रह है जो सराहतन या किनायतन आपके इस अज़ीम बोहतान की ताईद करता है? आपने ख़ुदा के मुक़द्दस तरीन रसूल पर ऐसा अज़ीम बोहतान लगाया जिसके सहारे आप ना कोई क़ुर्आनी आयत और ना इन्जील जलील का कोई लफ़्ज़ पेश कर सकते हैं। ھذا انک مبیں आपने इफ़्तिरा (बोहतान) परदाज़ी में मिर्ज़ा क़ादियानी ग़फुर-अल्लाह ज़ुनुबा की कोराना तक़्लीद की है। आप ने का’अबा की बजाए क़ादियान को अपना क़िब्ला बना लिया। और मुहम्मद अरबी की बजाए अहमद-ए-क़ादियानी के हाथों बिक गए। जिसमें लिखा है जो लोग पाक-दामनों और पारसाओं पर ऐब लगाते हैं, لغنرفے الدنیا ولااخرة ولھمہ عذاب عظیمہ “उन पर दुनिया और आख़िरत दोनों में ला’नत है और उन के लिए सख़्त अज़ाब तैयार है।”
दूसरा एतराज़ : क्या सय्यदना मसीह ने माँ की
बेअदबी की थी?
मौलवी सना-उल्लाह साहब का दूसरा एतराज़ ये है कि जिन अल्फ़ाज़ में आँख़ुदावंद ने अपनी वालिदा मुकर्रमा को मुख़ातिब किया था वह “सू-अदबी” के अल्फ़ाज़ हैं और वो अल्फ़ाज़ हस्बे-ज़ैल हैं :-
“ऐ औरत मुझे तुझसे क्या काम? मेरा वक़्त हनूज़ नहीं आया।”
मौलवी साहब का ये एतराज़ सरासर यूनानी ज़बान से अदम वाक़फ़ियत पर मबनी है। अगर आपको इन्जील जलील की अस्ल ज़बान से कुछ शदबद होती तो आप हरगिज़ एतराज़ ना करते।
मौलवी साहब को इन्जील की यूनानी ज़बान से वाक़फ़ियत भी कैसे हासिल हो जबकि आपको ये ख़बत है कि “इन्जील अस्ल ज़बान में मिलती नहीं” (रिसाला मसीहियत व इस्लाम सफ्ह 174) मौलवी साहब सैंकड़ों दफ़ा’ अनारकली, लाहौर गए होंगे। आपने बाइबल सोसाइटी की दुकान में जाकर अस्ल यूनानी नुस्खे की फ़र्माइश की होती। आप यूनानी की एक छोड़ बीसियों जिल्दें ख़रीद लेते और कुछ नहीं तो घर बैठे एक कार्ड ही लिख कर अस्ल यूनानी ज़बान की इन्जील को हासिल कर लिया होता। हम मश्वरा देते हैं नाज़रीन बाइबल सोसाइटी लाहौर से मुक़द्दस यूहन्ना की इन्जील का यूनानी नुस्ख़ा बदद तर्जुमा तहत अल-लफ्ज़ी (उर्दू फ़ारसी) मुतर्जमा मर्हूम पादरी टसडल साहब मंगवाकर देखें। नुस्खे का हद्या सिर्फ 4 है। अगर मौलवी साहब ने इतनी क़लील रक़म ख़र्च की होती तो वो इस क़िस्म की लग़ज़िशों से बच जाते। अल्लाह की शान। आपकी अदम वाक़फ़ियत का तो ये हाल है। लेकिन अपने मुँह मियां मिठ्ठू अपनी तारीफ़ में आस्मान व ज़मीन के कुलाबे देते हैं (इस्लाम और मसीहियत सफ्ह 27, सफ्ह 71 वगैरह)
آنکس کہ نداند وبداند کہ بداند
درجہل مرکب ابدالدہر بماند
चूँकि मौलवी साहब यूनानी ज़बान से मह्ज़ कोरे हैं और आपका सारा दारो-मदार इन्जील के उर्दू तर्जुमे पर है। लिहाज़ा आपने ये एतराज़ पेश किया है।
हक़ीक़त ये है कि आया ज़ेरे बहस का उर्दू तर्जुमा ग़लत है और इस की वजह बाइबल सोसाइटी का वो उसूल है जिसको मद्दे-नज़र रखकर ये सोसाइटी दुनिया की ज़बानों में तर्जुमा करवाती है। वो मुतर्ज़मीन को हिदायत करती है कि तर्जुमा करते वक़्त वो अस्ल कोशिश करें कि जो तर्जुमा वो करें वो अंग्रेज़ी तर्जुमे के अल्फ़ाज़ से मुताबिक़त रखता हो। इस उसूल के मुताबिक़ मुतर्ज़मीन ने आया ज़ेरे बहस का उर्दू तर्जुमा सोसाइटी के अंग्रेज़ी तर्जुमे के मुताबिक़ किया है।
लेकिन ये अंग्रेज़ी तर्जुमा ग़लत है। क्योंकि वो अस्ल यूनानी अल्फ़ाज़ का सही मफ़्हूम अदा नहीं करता। चुनान्चे कैनन बरनी साहब कहते हैं कि “आम मुरव्वज तर्जुमा” मुझे तुझसे क्या काम? अस्ल मफ़्हूम को अदा करने की बजाए उस पर पर्दा डाल देता है। डाक्टर वेमथ कहते हैं इस आयत का मौजूदा तर्जुमा निहायत ग़लत है। अस्ल अल्फ़ाज़ से ना दुरुश्ती टपकती है और ना किसी क़िस्म की नुक्ता-चीनी पाई जाती है।” प्रोफ़ैसर बरकिट भी यही फ़र्माते हैं। मशहूर आलिम डाक्टर यंसल भी यही कहते हैं। डाक्टर पैक अपनी मशहूर तफ़्सीर में यही बतलाते हैं। यही वजह है कि मौजूदा ज़माने में अंग्रेज़ उलमा ने जो अंग्रेज़ी तराजिम किए हैं। वो बाइबल सोसाइटी के तर्जुमे से मुख़्तलिफ़ हैं। चुनान्चे “बीसवीं सदी का तर्जुमे” में आया ज़ेरे-बहस यूं तर्जुमा की गई है, “आप मुझसे क्या चाहती हैं?” डाक्टर वेमथ इस का यूं तर्जुमा करते हैं, “आप इस मुआमले को मेरे हाथों में छोड़ दें?” प्रोफ़ैसर बरकिट फ़र्माते हैं इस आयत का तर्जुमा ये है “मुझे और तुझे इस बात से क्या?” इन्जील नवीस का इन अल्फ़ाज़ से सिवाए इस के और कोई मतलब नहीं कि “फ़िक्र ना करो। कुछ परवाह नहीं। सब इंतिज़ाम ठीक तौर पर हो जाएगा।” मर्हूम आर्चबिशप टेंपल उस का तर्जुमा करते हैं कि “सब ख़ैर है” (Readings in St. John vol 1 p36)
मशहूर मुसलेह (मुजद्दिद) लूथर ने अपनी बाइबल के नुस्खे के हाशिये में इस आयत का ये तर्जुमा किया है, “मुझे और तुझे क्या?” सर विलियम रैमज़े जैसा मुहक़्क़िक़ यही कहता है कि लूथर का तर्जुमा “मुझे और तुझे किया? दुरुस्त है।” रूमी कलीसिया का मुस्तनद तर्जुमा ये है “मुझे और तुझे किया?” और डाक्टर सावटर इस आयत का तर्जुमा यूं करते हैं, “इस मामूली सी बात से मुझे और आपको क्या?” पादरी कीमबल साहब कहते हैं कि इस आयत का मफ़्हूम रोज़मर्रा की ज़बान में इस तरह अदा कर सकते हैं कि, “अम्माँ-जान क्या मैं और आप इस मुआमले में दख़ल अंदाज़ हो सकते हैं?”
2 Burney
3 Burkitt
4
5 Peaks
6 Twentieth Century New Testament.
7 Wejmeth
8 William Ramsay
प्रोफ़ैसर डोंस्टन इस आयत का आबाए कलीसिया की तहरीरात के मतन को पेश-ए-नज़र रखकर यूं तर्जुमा करते हैं “इस बात से मुझको और आपको क्या?”
इब्तिदाई मसीही सदियों में एक शख़्स नौफस नाम एक मिस्री शायर था। उसने पांचवीं सदी में इन्जील चहारुम को मंजूम किया। ये शायर अपने मंजूम नुस्खे में ये अल्फाज़ इस्तिमाल करता है, “ऐ बीबी, मुझे या तुझे इस बात से क्या? प्रोफ़ैसर बिलास का ख़याल है कि नौफस शायर के पेश-ए-नज़र चौथी सदी का कोई यूनानी नुस्ख़ा था। जिसके मतन में इस आया शरीफा के यूनानी लफ़्ज़ κατ बमा’अनी और के बजाए लफ़्ज़ η बमा’अनी या था। प्रोफ़ैसर मज़्कूर के ख़याल में यही क़िरआत दुरुस्त भी है इस क़िरआत से कम अज़ कम ये तो मालूम हो जाता है कि नौफस और उस के हम-अस्र और उन तमाम मशरिक़ी कलीसियाओं के शुरका (जिन के लिए इन्जील चहारुम पहली सदी में लिखी और पांचवीं सदी में मंजूम की गई थी) इस आयत से क्या मतलब अख़ज़ करते थे।
अगर किसी के दिल में अब भी शक रह गया हो तो वो फ़ाज़िल अजल प्रोफ़ैसर गलाउम के अल्फ़ाज़ पर ग़ौर करे। आप कहते हैं कि :-
“अगर कोई शख़्स इन अल्फ़ाज़ से वो मतलब अख़ज़ करता है जो अंग्रेज़ी तर्जुमे के अल्फ़ाज़ से मुतरश्शेह है तो वो यूनानी ज़बान और सियाक़ व सबाक़ पर ज़ुल्म करता है।”
ये उलमा इसी उसूल के मुताबिक़ ये तर्जुमे करते हैं जो मौलवी साहब के नज़्दीक भी मुसल्लम है। चुनान्चे आप ख़ुद फ़र्माते हैं कि :-
9 Souter
10 Gulloume
“ये उसूल मन्क़ूल होने के इलावा मा’क़ूल भी है। क्योंकि किसी अंग्रेज़ी किताब का तर्जुमा करने के लिए अंग्रेज़ी मुहावरात का लिहाज़ ज़रूर रखा जाएगा।” (रिसाला तफ़्सीर बिल-राए सफ्ह 4)
जज़ा-कल्लाह व बार-कल्लाह। पस बाइबल सोसाइटी का मुरव्वजा तर्जुमा और आपके एतराज़ात दोनों ग़लत है।
आया शरीफ़ा की अस्ल यूनानी इबारत और उस का तर्जुमा :-
(1) हम मौलवी सना-उल्लाह साहब की ख़ातिर आया शरीफा की अस्ल यूनानी इबारत और उस का तहत-उल-लफ्ज़ी उर्दू तर्जुमा ज़ेल में लिख देते हैं। ताकि मौलवी साहब की तश्फ़ी हो जाए। आयत के अल्फ़ाज़ हस्बे-ज़ैल हैं :-
“टी एमवे किए सोईए गोंए।”
Τι εοι και
अब मो’तरज़ीन ही ख़ुदा-लगती कहें कि क्या अस्ल अल्फ़ाज़ और उस के तहत-उल-लफ्ज़ी तर्जुमे से सू-अदबी (बेअदबी) की बू भी आ सकती है?
(2)
मौलवी साहब तो ये उज्र भी पेश नहीं कर सकते कि आप ज़बान-ए-यूनानी नहीं जानते। क्योंकि अगरचे यूनानी आपकी तालीमी निसाब में दाख़िल ना थी। ताहम आप कम अज़ कम अरबी ज़बान से तो वाक़िफ़ हैं और अरबी की इन्जील आपके पास मौजूद है। (अहले-हदीस 5 जून 1942 ई॰) अगर आपका हक़ीक़ी मक़्सद हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) की फ़ज़ीहत (तौहीन) करना नहीं बल्कि तहक़ीक़-ए-हक़ होता तो आपने अरबी की इन्जील को ही खोल कर देख लिया होता कि उस में आया ज़ेरे-बहस का क्या तर्जुमा किया गया है। इस में यह तर्जुमा है :-
فقال لھا یسوع مالی ولک ایتھا المراة لماتات ساعتی (ترجمہ ۱۸۳۱ء)۔
यही तर्जुमा माली व लक उस ऐडीशन में है जो 1873 ई॰ में बेरूत में छपी थी। यही तर्जुमा माली व लक उस ऐडीशन में है। जो रूमी कलीसिया ने बेरूत में 1879 ई॰ में छपवाया था। जो तर्जुमा बेरूत में 1946 ई॰ में छपा है उस में इस आयत का अरबी तर्जुमा ये है :-
قال لھا یسوع مالی وللربا امراة لمہ تات ماعبتی बाद क्या इस अरबी तर्जुमे से जो यूनानी का लफ़्ज़ी तर्जुमा है ये मालूम होता है कि ये अल्फ़ाज़ बे-अदबी के अल्फ़ाज़ हैं? आपने एतराज़ करने से पहले इन्जील के अरबी तर्जुमे को क्यों ना देख लिया? आप को मालूम होना चाहिए कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की मादरी ज़बान अरामी थी और आप के अरामी अल्फ़ाज़ जिनमें आपने हज़रत मर्यम सिद्दीक़ा को मुख़ातिब किया था बईना वही अल्फ़ाज़ थे जो अरबी तर्जुमे में वारिद हुए हैं यानी अरामी अल्फ़ाज़ माली व लक जिनका लफ़्ज़ी तर्जुमा इन्जील यूनानी के मतन में मौजूद है अगर मौलवी साहब मह्ज़ एतराज़ करने पर तुले होते और आप को हक़ीक़त की तलाश मंज़ूर होती तो आप इस एतराज़ की अस्ल हक़ीक़त को अरबी तर्जुमे ही से पा लेते और यूनानी ज़बान से बेगाना होने के बावजूद आप पर ये अक़ीदा खुल जाता कि असली अल्फ़ाज़ जिनमें कलिमतुल्लाह (मसीह) ने सिद्दीक़ा को मुख़ातिब किया था उनमें सू-अदबी का नाम व निशान भी मौजूद नहीं।
मो'तरिज़ की मज़ीद तश्फ़ी के लिए हम बतलाए देते हैं कि अल्फ़ाज़ ज़ेरे-बहस अह्दे-अतीक़ के मुस्तनद यहूदी तर्जुमे यानी तर्जुमा सबईना सेपट्वाजिंट (سیپٹواجینٹ) में छः (6) मुक़ामात में वारिद हुए हैं और इंजील जलील में छः (6) मुक़ामात में वारिद हुए हैं पस तमाम किताब मुक़द्दस में ये अल्फ़ाज़ बारह (12) दफ़ा’ आए हैं और उन सब मुक़ामात पर ग़ौर करने से यही पता चलता है कि इन अल्फ़ाज़ का तर्जुमा “मुझे तुझसे क्या काम” ग़लत है ये मुक़ामात हस्बे-ज़ैल हैं :-
(1) कुज़ात 11:12, यहां इफ्ताह बनी इमून के बादशाह के पास सदाए एहतिजाज बुलंद करके पैग़ाम भिजवाता है कि ऐ बादशाह मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू मुझ पर चढ़ाई करने आया है। क्या यहां इफ्ताह “सू-अदबी” का मुर्तक़िब हो रहा है? (2) व (3) (2 सामुएल 16:10-19:22) एक शख़्स हज़रत दाऊद पर ला’नत करता है और ज़रूयाह के ग़य्यूर सरफ़रोश बेटे हक़ नमक अदा करने के लिए हज़रत से उस के क़त्ल की इजाज़त तलब करते हैं लेकिन आप इन जानिसारों को इस फे़’अल से बाज़ रखने के लिए अल्फ़ाज़ ज़ेरे-बहस इस्तिमाल करते हैं ये ज़ाहिर है अल्फ़ाज़ ज़ेरे-बहस का ये मतलब नहीं हो सकता कि हज़रत दाऊद और उन के अक़ीदतमंद नमक-ख़्वारों में कोई ताल्लुक़ नहीं और ना कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स ये ख़्याल कर सकता है कि हज़रत अपने कमान अफ़सरों की शान में सू-अदबी (बेअदबी) कर रहे हैं।
(4) 1 सलातीन 17:18 हज़रत एलियाह नबी ने सारपत की बेवा के ख़ानदान को एजाज़ी तौर पर भूका मरने से बचाया और जब उस का लड़का बीमार हुआ तो वो अल्फ़ाज़ ज़ेरे-बहस में हज़रत को ख़िताब करती है। मोटी से मोटी अक़्ल रखने वाले पर ये ज़ाहिर है कि बेचारी बेवा का मतलब नबी की शान में बे-अदबी करना नहीं था। और ना उस का ये मतलब था कि उस का नबी के साथ किसी क़िस्म का वास्ता या ताल्लुक़ नहीं है। इस के बर’अक्स वो अपनी क़िस्मत के हाथों नालां है और ना नबी से इमदाद की ख़्वाहां है।
(5) 2 सलातीन 2:13 यहां हज़रत इलीशा शाह इस्राईल को मुख़ातिब करके अल्फ़ाज़ ज़ेरे-बहस इस्तिमाल करता है। इस जगह तर्जुमा “मुझे तुझसे क्या काम?” दुरुस्त है और इस के म’अनी ये हैं। ऐ बादशाह तूने ख़ुदा को तर्क कर दिया है पस तेरा मेरे साथ कोई वास्ता और ताल्लुक़ नहीं।
(6) 2 तवारीख़ 35:21 इस मुक़ाम पर शाह-ए-इस्राईल के बादशाह के लिए ज़ेरे-बहस अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करता है। जिनसे उस की मुराद ये नहीं कि मुझे तुझ से क्या काम। बल्कि उस का मतलब ये है कि मेरी तेरे साथ कोई दुश्मनी और ख़ुसूमत नहीं। मेरे और तेरे दर्मियान राब्ता इत्तिहाद और दोस्ती है और हम दोनों इत्तिहादी हैं। यहां दोनों बादशाहों में किसी क़िस्म का तख़ालुफ़ मक़्सूद नहीं है। और “सू-अदबी” (बेअदबी) का तो ज़िक्र ही क्या?
इन्जील जलील में ये अल्फ़ाज़ आया ज़ेरे-बहस के इलावा ज़ेल के मुक़ामात में वारिद हुए हैं :-
मत्ती 8:29, मर्क़ुस 1:24, 5:7 लूक़ा 4:34 8:28
इन तमाम मुक़ामात में शयातीन और अर्वाह बद अल्फ़ाज़ ज़ेरे-बहस आँख़ुदावंद को मुख़ातिब करती हैं। जब आप उनको “झिड़क कर” इन्सानों में से निकालते हैं सियाक़ व सबाक़ से ज़ाहिर है कि शयातीन और अर्वाह बद का इन अल्फ़ाज़ से मफ़्हूम मिन्नत व समाजत और ज़ारी और आजिज़ी और लाचारी का इज़्हार करता है। उनकी ग़र्ज़ कलिमतुल्लाह (मसीह) से दुश्ती और सख़्ती या बा अल्फ़ाज़ मौलवी साहब “नाक भों चढ़ाना” नहीं है। ना उनका मक़्सद हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की शान में “सू-अदबी” (बेअदबी) करना है इस के बर’अक्स वो आपकी ज़ात-ए-पाक के हुज़ूर अपनी बेबसी, लाचारी और बदी का इक़रार करके मानती हैं कि आप “ख़ुदा त’आला के बेटे” और “ख़ुदा के क़ुद्दूस” हैं कलिमतुल्लाह (मसीह) के हम-अस्र “हैरान हो कर कहते हैं, “ये कलिमतुल्लाह (मसीह) कैसा है कि वो इख़्तियार और क़ुद्रत से नापाक रूहों को हुक्म देता है और निकल जाती हैं।” (लूक़ा 4:36)
मुन्दरिजा बाला बारह मुक़ामात में अरबी तर्जुमा बाइबल में यूनानी अस्ल का लफ़्ज़ी तर्जुमा किया गया है। यानी माली व लक माली व लकमा मालना व लक (مالی ولک مالی ولکمہ مالنا ولک) लेकिन उर्दू के मुतर्जिमीन ने 1930 ई॰ के ऐडीशन में बाइबल सोसाइटी के उसूल और हिदायत के मुताबिक़ हर जगह इन अल्फ़ाज़ का तर्जुमा “मुझे तुमसे क्या काम।” “हमें तुझसे क्या काम” किया है। सियाक़ व सबाक़ ज़ाहिर करता है और सुतूर बाला में हमने साबित कर दिया है कि उर्दू में इन अल्फ़ाज़ का तर्जुमा हर मुक़ाम पर यकसाँ नहीं होना चाहिए था बल्कि मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में मुख़्तलिफ़ तरह पर इक्तज़ाए मुक़ाम के मुताबिक़ तर्जुमा करना चाहिए था। मुतर्जिमीन को चाहिए था कि जैसा मौक़ा होता वैसा ही अल्फ़ाज़ से जो मुराद है वो साफ़ और आम फहम अल्फ़ाज़ में अदा करते। लेकिन मुतर्जिमीन ने मफ़्हूम और मतलब को सिवाए एक मुक़ाम के हर जगह यकसाँ तर्जुमा करने के उसूल पर क़ुर्बान कर दिया है।
इन्जील जलील में एक और मुक़ाम है जहां गो ब’ईना अल्फ़ाज़ ज़ेरे-बहस इस्तिमाल नहीं हुए लेकिन इस जगह वही अल्फ़ाज़ सीग़ा मुतकल्लिम की बजाए सीग़ा ग़ायब में इस्तिमाल हुए हैं। चुनान्चे मुक़द्दस मत्ती की इन्जील में है :-
“जब पिलातूस तख्त-ए-अदालत पर बैठा तो उस की बीवी ने उसे कहला भेजा कि तू इस रास्तबाज़ (येसू) से कुछ काम ना रख।.... सरदार काहिनों और बुज़ुर्गों ने लोगों को उभारा कि येसू को हलाक कराएं।” जब पिलातूस ने देखा कि कुछ बन नहीं पड़ता। बल्कि उल्टा बलवा हुआ जाता है तो पानी लेकर लोगों के रूबरू अपने हाथ धोए और कहा मैं इस रास्तबाज़ के ख़ून से बरी हूँ। तुम जानों।” (मत्ती 27:19 ता 24)
इस मुक़ाम में मुन्जी आलमीन (मसीह) और रूमी गवर्नर में कोई तख़ालुफ़ मक़्सूद नहीं और ना किसी क़िस्म की सख़्ती और दुरुश्ती के ख़याल तक की गुंजाइश है।
अरबी बाइबल में आयत 19 का तर्जुमा यूं है, لیس شی لک واذلک الصدیق ये आयत मौलवी सना-उल्लाह साहब के एतराज़ को रफ़ा’ करने के लिए काफ़ी और वाफ़ी है। यहां ना पिलातूस की बीवी अपने ख़ावंद के हक़ में “सू-अदबी” (बेअदबी) करती है और ना उस की ये मुराद है कि पिलातूस मुन्जी आलमीन (मसीह) के साथ बे-अदबी से पेश आए। इस के बर’अक्स पिलातूस की बीवी अपने ख़ावंद से जिसके हाथ में मसीह की ज़िंदगी और मौत है। (यूहन्ना 19:10) ये दरख़्वास्त करती है कि वो मुल्ज़िम की मदद करे और अहले-यहूद की ग़ौग़ा आराई की परवा ना करके मज़्लूम की दाद रसी करे और हक़ और इन्साफ़ पर क़ायम रहे।
मसीहियों और मुसलमानों यानी फ़रीक़ैन के नज़्दीक ये उसूल-ए-तफ़्सीर मुसल्लम है किताब-उल्लाह की आयात का सही मफ़्हूम मालूम करने के लिए ज़रूरी है कि उस के दीगर मुक़ामात पर ग़ौर किया जाये जहां वही अल्फ़ाज़ मुस्त’मल हुए हैं। ताकि दीगर मुक़ामात की रोशनी में इन अल्फ़ाज़ का सही मफ़्हूम मुत’अय्यन हो सके। चुनान्चे मौलाना रुम फ़र्माते हैं :-
معنی قرآں از قرآں پرُس بس
आपके हरीफ़ मिर्ज़ाए क़ादियानी भी कहते हैं :-
“मोमिन का काम नहीं कि तफ़्सीर बिल-राए करे बल्कि क़ुर्आन शरीफ़ के बा’ज़ मुक़ामात बा’ज़ दूसरे मुक़ामात के लिए ख़ुद तफ़्सीर और शारह हैं।” (ख़ज़ीनत-उल-फुर्क़ान सफ्ह 342)
इसी सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ हमने किताब-ए-मुक़द्दस के उन तमाम मुक़ामात पर ग़ौर किया है जहां ये अल्फ़ाज़ वारिद हुए हैं ताकि उन मुक़ामात की रोशनी में आया ज़ेरे-बहस के अस्ल मफ़्हूम का पता लग जाये। इस सही उसूल की रोशनी में ग़बी से ग़बी शख़्स भी किताब-ए-मुक़द्दस की ज़बान और मुहावरे से ख़ुद देख सकता है कि मो’तरिज़ का एतराज़ किस क़द्र लगू और बे-बुनियाद है।
वो भी होगा कोई उम्मीद बर आई जिसकी
अपना मतलब तो ना इस चर्ख़-ए-कहुन से निकला
आया शरीफ़ का मतलब
क़ाना-ए-गलील में एक गांव था जो नासरत से तीन कोस शुमाल मग़रिब की जानिब वाक़े’अ था। वहां एक शादी थी। ऐसा मालूम होता है जिस ख़ानदान में शादी थी उस का ताल्लुक़ सय्यदना मसीह के ख़ानदान से था। इन्जील मर्क़ुस में आया है कि नासरत के बाशिंदे कहते थे कि आँख़ुदावंद की बहनें यहां हमारे हाँ हैं (6:3) जर्मन आलिम ज़ाहिन का ख़याल है कि आँख़ुदावंद की बहनें मए अपने ख़ानदानों के तीन कोस पर क़ाना-ए-गलील में जा बसी थीं। बहर-हाल वाक़ि’ए के पढ़ने से ऐसा मालूम होता है कि बीबी मर्यम सिद्दीक़ा का इस ख़ानदान से जिसमें शादी थी गहरा ताल्लुक़ था क्योंकि आप मेहमानों के खाने पीने की अश्या की निस्बत मुतफ़क्किर और मत्रुद थीं और आपने मुंतज़मीन को हिदायत की थी कि वो आँख़ुदावंद के इर्शाद के मुताबिक़ अमल करें।
अहले-यहूद में ब्याह शादी की ख़ुशी उमूमन 12 रोज़ या 7 रोज़ तक की जाती थी (क़ुज़ा 14:12, तोबित 11:19) लेकिन ग़रीब घरों में शादी की तमाम रसूम एक ही दिन में ख़त्म हो जाती थीं। जिस तरह पंजाब में मेहमानों की आओ-भगत चाय और शर्बत से की जाती है अर्ज़-ए-मुक़द्दस में अंगूर के रस से मेहमानों की तवाज़ो की जाती थी। जिनके घर में शादी थी वो अमीर कबीर तो थे नहीं (मत्ती 13:55, 56) अंगूर का रस ख़त्म हो गया। उम्मुल मोमनीन बीबी मर्यम सिद्दीक़ा परेशान ख़ातिर हो कर अपने बेटे के पास आईं। क्योंकि आपने अपने बेटे को हमेशा एक आक़िल मुशीर और दाना सलाह कार पाया था। आड़े वक़्त घरेलू मुश्किलात को अपनी ज़कावत-ए-तबा’ से रफ़ा’ कर दिया करता था। आप आँख़ुदावंद से मुतफ़क्किराना लहजे में फ़रमाने लगीं। बेटा ! उनके पास अंगूर का रस इतना नहीं रहा कि तमाम मेहमानों के लिए किफ़ायत करे। अब क्या किया जाये? हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपनी मादर-ए-मशफ़का को मुख़ातिब करके फ़रमाया :-
“बीबी। इस बात से मुझको और आपको क्या? इस मामूली सी बात से आप क्यों ख़्वाह-मख़्वाह तरद्दुद करके परेशान ख़ातिर हो रही हैं। आप बिल्कुल ना घबराएँ और इस मुआमले को मुझ पर छोड़ दें। ये चीज़ आसानी से मुहय्या हो सकती है। जब वक़्त आएगा देखा जाएगा।” अहले-यहूद में पंजाबी दस्तूर के मुवाफ़िक़ बिरादरी के शुरका शादी के वक़्त खाने पीने का इंतिज़ाम करते और खाने को मेहमानों में तक़्सीम करते थे। (ऐकली 35:1 ता 2) बीबी मर्यम ने आँख़ुदावंद के तसल्ली आमेज़ कलमात सुनकर उन मुंतज़िमों को हिदायत फ़रमाई कि वो कलिमतुल्लाह (मसीह) के इर्शाद पर अमल करें और ख़ुद अंदर तशरीफ़ ले गईं।
नाज़रीन ! ख़ुदारा इन्साफ़ करें कि इस तमाम वाक़िये में आँख़ुदावंद के वो कौनसे अल्फ़ाज़ हैं जिनसे “सू-अदबी” (बेअदबी) टपकती है? मुम्किन है कि मौलवी सना-उल्लाह साहब ये एतराज़ करें कि आँख़ुदावंद के कलमात-ए-तय्यिबात की हमने इस तौर पर तावील की है कि इस में बे-अदबी और गुस्ताख़ी का निशान नहीं रहा। लेकिन नाज़रीन ने ये नोट किया होगा कि हमने मुन्दरिजा बाला तावील में वही अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए हैं जो दौर-ए-हाज़रा के मुस्तनद अंग्रेज़ी मुतर्जिमीन के अपने तर्जुमों के मतन में मुस्त’मल हुए हैं और जिन को हमने इस बाब के शुरू में नक़्ल किया है। ये तावील किताब-उल्लाह के मुहावरात और अल्फ़ाज़ के मुताबिक़ सही उसूल तफ़्सीर पर मबनी है। लिहाज़ा ये दुरुस्त है।
अल्फ़ाज़ “ऐ औरत”
मौलवी सना-उल्लाह साहब आया ज़ेरे-बहस के उर्दू तर्जुमे के “ऐ औरत” की निस्बत ये एतराज़ करते हैं कि इस ख़िताब से सू-अदबी टपकती है। लेकिन ये एतराज़ भी यूनानी ज़बान से लाइल्मी पर मबनी है। यूनानी मतन में जो लफ़्ज़ वारिद हुआ है वो “गोनए” γυναι है। जिसका ठेठ उर्दू तर्जुमा “बीबी जी” है। इंजीली उर्दू तर्जुमा के अल्फ़ाज़ “ऐ औरत” क़ाबिल गिरिफ्त हो सकते हैं। लेकिन ये क़सूर मुतर्जिमीन का है ना कि ख़िताब करने वाला का। हर साहिबे दानिश को ”क़ाइल” और मुतर्जिम में तमीज़ करनी चाहिए। यूनानी में लफ़्ज़ “गोनए” एक बाइज़्ज़त ख़िताब समझा जाता है और ये लफ़्ज़ अक्सर ऐसे मौक़ों पर बोला जाता था जब मुख़ातिब का ना सिर्फ ज़ाहिर अदब मक़्सूद होता बल्कि दिली इज़्ज़त भी मक़्सूद थी यूनानी लफ़्ज़ गोनए अंग्रेज़ी लफ़्ज़ “लेडी” का मुतरादिफ़ है। यूनानी लफ़्ज़ एक बाइज़्ज़त ख़िताब है जो मु’अज़्ज़िज़ ख़वातीन हत्ता कि मलिका तक के लिए मुस्त’मल होता था। चुनान्चे क़ैसर अगस्तस ने मलिका किलियोपेट्रा (जिसका सन वफ़ात सय्यदना मसीह से तीस साल क़ब्ल था) को ख़िताब करते वक़्त यही लफ़्ज़ इस्तिमाल किया था। डाक्टर विस्टिकट अपनी मशहूर-ए-आलम तफ़्सीर में फ़र्माते हैं :-
“अस्ल यूनानी लफ़्ज़ में दुरश्ती या “नाक भों चढ़ाने” का निशान नहीं है। बल्कि ख़िताब से इज़्ज़त और मुहब्बत ज़ाहिर होती है।” (जिल्द अव्वल सफ्ह 82)
यही वजह है कि आँख़ुदावंद ने सलीब पर से जान-कनी की हालत में अपनी मादर-ए-मशफ़का को मुख़ातिब करके इसी लफ़्ज़ को इस्तिमाल किया था। कोई शक़ी-उल-क़ल्ब इन्सान भी ऐसी सख़्त अज़ीयत और जान-कनी की हालत में अपनी माँ को ऐसे अल्फ़ाज़ में मुख़ातिब नहीं करता जिनसे “सू-अदबी” (बेअदबी) टपकती हो। चह जायके वो इन्सान وجیھاً فی الدنیا والا خرة من المقربین हो जो ख़ुद माँ की मुताब’अत बचपन से करता चला आया हो। (लूक़ा 2:51) और जिस ने हमेशा ज़िंदगी का वारिस होने के लिए माँ बाप की इज़्ज़त की शर्त लगादी हो। (मर्क़ुस 10:19) मशहूर मुफ़स्सिर मैक्ग्रेगर भी (Macgregor) कहता है, कि अस्ल यूनानी में लफ़्ज़ “औरत” के ख़िताब से कोई दुरुश्ती नहीं टपकती। इस के बर’अक्स ये इज़्ज़त का ख़िताब है।
इसी तरह मिस्टर वाइन कहते हैं कि :-
“जब लफ़्ज़ “गोनए” (बमा’अनी औरत) नदाईया तौर पर इस्तिमाल होता है तो इस से दुरुश्ती या सख़्ती मुराद नहीं होती। इस के बर’अक्स इस लफ़्ज़ से प्यार और इज़्ज़त टपकती है। मसलन (15:28, यूहन्ना 2:4) मोअख्ख़र-उल-ज़िक्र मुक़ाम में ये लफ़्ज़ प्यार और मुहब्बत ज़ाहिर करता है।”
पस अगर यहां अल्फ़ाज़ “ऐ औरत” की बजाए अम्माँ-जान लिखे जाएं तो यूनानी का सही मफ़्हूम उर्दू में अदा हो सकता है। इन्जील जलील का मुताल’आ तो ये ज़ाहिर कर देता है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) जब कभी किसी औरत को मुख़ातिब करते तो आप उस को हमेशा बीबी जी कहते (यूहन्ना 20:15, 4:2, 18:10) वग़ैरह ब’ईना यही यूनानी लफ़्ज़ फ़रिश्तों ने बीबी मर्यम मग्दलीनी को ख़िताब करते वक़्त इस्तिमाल किया है। (यूहन्ना 20:13) सियाक़ व सबाक़ से ज़ाहिर है कि इस मुक़ाम पर फ़रिश्तों का मक़्सद बीबी मर्यम मग्दलीनी से दुरुश्त कलामी नहीं था बल्कि उस के साथ हम्दर्दी, तरस और रहम का इज़्हार करना मक़्सूद था।
अगर मो’तरज़ीन को मज़ीद तश्फ़ी की ज़रूरत है तो उन की पास-ए-ख़ातिर हम उनकी तवज्जोह फ़ाज़िल उलमा मिस्टर यक और बुलरकी मशहूर आलम तस्नीफ़ की जानिब मबज़ूल करते हैं। जिसमें उन फ़ज़लाए ज़माना ने अह्दे-जदीद की ज़बान का मुक़ाबला यहूदी, रब्बियों की कुतुब के अल्फ़ाज़ के साथ किया है। इस किताब में वो बतलाते हैं कि एक ग़रीब शख़्स ने यहूदी रब्बी हलील की बीवी से भीक मांगते वक़्त इसी लफ़्ज़ से मुख़ातिब किया था जिसका तर्जुमा उर्दू इन्जील यूहन्ना में “ऐ औरत” किया गया है। और ये ज़ाहिर है कि कोई फ़क़ीर भीक मांगते वक़्त “सू-अदबी” (बेअदबी) का इर्तिकाब नहीं करता। हमें उम्मीद है कि अब मो’तरज़ीन की समझ में भी आ गया होगा कि ये ख़िताब इज़्ज़त का ख़िताब है जिस तरह इस यूनानी लफ़्ज़ का ठेठ उर्दू तर्जुमा “बीबी जी” हमारे मुल्क में इज़्ज़त का ख़िताब है इन्जील यूहन्ना के पंजाबी तर्जुमे में इस लफ़्ज़ का तर्जुमा “माई जी” किया गया है। (मत्बू’आ मिशन प्रैस लुधियाना 1889 ई॰) जिससे ज़ाहिर है कि अस्ल यूनानी लफ़्ज़ इज़्ज़त का ख़िताब है।
11 Gospel of St. John (Shoffat’s Series)
12 W.E Vine Expository Dictionary of New Testament word vol 4.p.227
(2)
मौलवी साहब दा’वा तो करते हैं कि वो “बाल की खाल निकालने वाले हैं” (सफ्ह 51) लेकिन अगर वो ज़रासी ज़हमत गवारा करके इन्जील जलील को बनज़र ग़ाइर पढ़ते तो वो अपने एक उलुल-अज़्म (बुलंद इरादे वाले) नबी पर माँ की बे-अदबी करने का इल्ज़ाम ना लगाते। आपने ज़रा ख़याल ना किया कलिमतुल्लाह (मसीह) किस तरह अपनी माँ को “जो दुनिया जहां की औरत में मुबारक थी और जिस पर ख़ुदा का फ़ज़्ल हुआ और जिस के साथ ख़ुदा था।” (लूक़ा 1:28) दुरुशती से मुख़ातिब कर सकते थे? और त’अज्जुब पर त’अज्जुब ये है कि मुक़द्दसा मर्यम इस ख़िताब से नाराज़ ना हुईं क्या इस से ये ज़ाहिर नहीं होता कि ख़िताब में किसी क़िस्म की “सू-अदबी” (बेअदबी) ना थी? क्या वो जिसकी शान में इन्जील व क़ुर्आन दोनों रतब-उल-लिसान हैं और जिसका ये दर्जा था कि क़ुर्आन कहता है, یا مریمہ ان الله اصطفک علیٰ نساء العالمین “ऐ मर्यम बिला-शक अल्लाह ने तुझे बर्गुज़ीदा किया और तुझको पाक किया और तुझको तमाम जहान की बीबियों के मुक़ाबले में बर्गुज़ीदा किया।” (आले-इमरान) इस क़िस्म की औरत थीं कि अगर वो ये देखतीं कि उनके बेटे ने उनसे दुरुशत कलामी की है और उन को नामुनासिब तौर से मुख़ातिब किया है तो वो सहफ़ समावी के हुक्म के मुताबिक़ उनको तम्बीह ना करतीं? या क्या मौलवी साहब का ये ख़याल है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) शादी के मौक़े पर इस ग़र्ज़ से तशरीफ़ ले गए थे कि वो लोगों को अपने नमूने से ना दिखलाएँ कि माँ की तहक़ीर किस तरह किया करते हैं?
फ़ल्सफ़े की शाख़ इल्म-ए-नफ्सियात का ये मुसल्लमा उसूल है कि किसी शख़्स के अक़्वाल उस के ख़यालात और जज़्बात के मज़हर होते हैं। अब मो’तरज़ीन ही इन्साफ़ करें कि क्या ये अम्र क़रीन-ए-क़ियास हो सकता है कि मुन्जी कौनैन (मसीह) जो इनके नज़्दीक रसूल-अल्लाह, रूह-उल्लाह और कलिमतुल्लाह हैं और जिस की शान में ख़ुद परवरदिगार आलम ने क़ुर्आन में लिखा है कि, ایدناہ بروح القدس اور وجیھاً فی الدنیا والاخرة ومن المقربین क्या ये अम्र क़रीन-ए-क़ियास हो सकता है कि इस पाये का शख़्स अपनी मादर मेहरबान से सख़्त कलामी और “सू-अदबी” (बेअदबी) से पेश आया हो? क़ुर्आन में हज़रत कलिमतुल्लाह गहवारे में कलाम करते वक़्त फ़र्माते हैं, وجعلی ھبٰرا کا ً این ماکنت ۔۔۔اشقیا यानी “मुझको बरकत वाला बनाया मैं जहां कहीं भी हूँ।.... और मुझ को मेरी वालिदा का ख़िदमतगुज़ार बनाया और उस ने मुझको सरकश बद-बख़्त नहीं बनाया।” (सूरह मर्यम) क्या मो’तरिज़ की इफ़्तिरा (बोहतान) परदाज़ी इस क़ुर्आनी आया शरीफा की तफ़्सीर है?
گر تو قرآن بدیں نمط خوانی ببری رونق مسلمانی
आपने एतराज़ करने से पहले ये तो देखा होता कि हज़रत बीबी मर्यम सिद्दीक़ा का तर्ज़-ए-अमल इस बाब में फ़ैसला-कुन है। उम्मुल मोमिनीन (हज़रत मर्यम) ने मुन्जी आलमीन (मसीह) से गुफ़्तगु करने के बाद मुंतज़मीन जलसे को हुक्म दिया कि “जो कुछ ये तुमसे कहे वो करो।” (2:5) जिससे ज़ाहिर है कि आपके ख़याल शरीफ़ में आँख़ुदावंद का ना तो तर्ज़-ए-ख़िताब क़ाबिल गिरिफ्त था। और ना वो फ़िक़्रह जो आपकी ज़बान मुबारक से निकला “सू-अदबी” (बेअदबी) का जुम्ला था और अगर मौलवी सना-उल्लाह साहब आँख़ुदावंद के अल्फ़ाज़ से वो नतीजा अख़ज़ नहीं करते जो उम्मुल मोमनीन बीबी मर्यम ने अख़ज़ किया था। तो क़सूर मौलवी साहब की अक़्ल और फ़हम का है जिसकी वजह से बेबाकी से काम लेकर आप हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) पर इत्तिहाम (तोहमत, इल्ज़ाम) लगाने से ज़रा नहीं झिझकते। मौलवी साहब की तोहमत और बोहतान के तीरो सिनान का ये हाल है कि :-
पहलू की चोट, दिल की चोट या जिगर की चोट
खाऊं किधर की चोट बचाऊं की किधर की चोट?
अभी मेरा वक़्त नहीं आया है
अभी मेरा वक़्त नहीं आया है चूँकि इस रिसाले के लिखने से हमारा मक़्सद मुख़ालिफ़ीन मसीह को नीचा दिखाना नहीं बल्कि उन पर उनके गुनाह को ज़ाहिर करना मंज़ूर है जिसके वो हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की शान में बे-अदबी गुस्ताख़ी, तौहीन और तज़लील के कलमात इस्तिमाल करके मुर्तक़िब हुए हैं ताकि वो अपने गुनाह-ए-अज़ीम से तौबा करें लिहाज़ा तमाम हुज्जत की ख़ातिर हम आया ज़ेरे-बहस के सब अल्फ़ाज़ पर ग़ौर करते हैं। ताकि किसी साहब को किसी क़िस्म के शक की गुंजाइश ना रहे। इस आया शरीफा के अल्फ़ाज़ का तर्जुमा हस्बे-ज़ैल है:
“बीबी जी। मुझको और आप को (इस बात से) क्या? अभी मेरा वक़्त नहीं आया है।” (2:4)
आख़िरी अल्फ़ाज़ में मौलवी साहब भी कोई “सू-अदबी” (बेअदबी) नहीं देख सके। वर्ना वो इनको भी ज़रूर महल-ए-एतराज़ बनाते। आपके इन अल्फ़ाज़ पर नहीं मिली और ना आपका ये ख़याल है कि मुन्जी आलमीन (मसीह) ने इन अल्फ़ाज़ से उम्मुल मोमनीन के इर्शाद को बजा लाने से इन्कार किया। लेकिन बिलफ़र्ज़ अगर किसी साहब का ये ख़याल हो तो हम बतला देते हैं कि बीबी मर्यम का इर्शाद है जो उन्होंने मुंतज़मीन जलसा को फ़रमाया। ये ज़ाहिर है कि कलिमतुल्लाह (मसीह) के अल्फ़ाज़ “अभी मेरा वक़्त नहीं आया” से आपका मतलब इन्कार नहीं था। बल्कि वक़्त मौज़ूं पर आपके इर्शाद की ता’मील करना था। चुनान्चे अगली आयत में ही हज़रत सिद्दीक़ा मुंतज़मीन को हुक्म देती हैं कि “जो कुछ ये तुमसे कहे वो करो।” (2:5) अगर इन्जील नवीस का मक़्सद कलिमतुल्लाह (मसीह) के अल्फ़ाज़ से ये बतलाना था कि आपने अपनी माँ के इर्शाद के मुताबिक़ अमल करने से इन्कार किया तो उस को क्या ज़रूरत पड़ी थी कि वो बाक़ीमांदा आयात (6 ता 13) में बतलाता कि आँख़ुदावंद ने (बीबी मर्यम) मुक़द्दसा के इर्शाद के मुवाफ़िक़ एजाज़ी तौर पर पानी को अंगूर के रस से तब्दील कर दिया। और अगर इब्ने-अल्लाह (मसीह) का मतलब इन्कार से था तो उम्मुल मोमनीन क्यों इतना भी ना समझ सकीं? बल्कि उल्टा उन्होंने इंतिज़ाम करने वालों को हुक्म दिया कि “जो कुछ ये तुमसे कहे वो करो?” हज़रत बीबी मर्यम का रवय्या इस फ़िक़्रे को समझने की अस्ल कुंजी (चाबी) है और मुन्जी कौनैन के अल्फ़ाज़ की तावील ना सिर्फ इस रवैय्ये की रोशनी में बल्कि सियाक़ व सबाक़ के मुताबिक़ और आप की तर्ज़-ए-अदा लब व लहजा, चेहरे और पेशानी की हरकत, आँखों की जुंबिश वग़ैरह की रोशनी में करनी चाहिए। बमिस्दाक़ :-
ताअम्मुल तो था उनको आने में क़ासिद
मगर ये बता तर्ज़-ए-इन्कार क्या थी (इक़बाल)
हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के क़ौल तर्ज़-ए-कलाम, लब व लहजा और दीगर हरकात व सकनात वग़ैरह से हज़रत (मर्यम) मुक़द्दसा ने यही नतीजा अख़ज़ किया कि वक़्त मौज़ूं पर आपका बेटा आपके इर्शाद के मुताबिक़ अमल करेगा। और इसी नतीजे के मातहत आपने मुंतज़मीन को हुक्म भी दिया और माबाअ्द के वाक़ि’ए ने साबित भी कर दिया कि जिस नतीजे पर उम्मुल मोमनीन (बीबी मर्यम) पहुंची थीं वही नतीजा सही था और मो’तरज़ीन के क़ियासात (गुमान) ग़लत साबित हुए।
(2)
“अभी मेरा वक़्त नहीं आया है” क्या था?
हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) का मतलब अल्फ़ाज़ “अभी मेरा वक़्त नहीं आया है” क्या था? आपने ताअम्मुल (देर) क्यों फ़रमाया? और ताख़ीर की असली वजह क्या थी? सुतूर बाला में हम सही उसूल तफ़्सीर बतला चुके हैं कि, " معنی الفاظ انجیل ازانجیل پُرس وبس" (म’अनी अल्फ़ाज़ इन्जील अज़ इन्जील पुर्स व बस) इस उसूल के मुताबिक़ अगर हम इन मुक़ामात पर ग़ौर करें जहां इसी इन्जील में यही अल्फ़ाज़ आँख़ुदावंद ने इस्तिमाल किए हैं तो हम उनका मतलब समझ सकेंगे इस इन्जील में यही अल्फ़ाज़ एक और जगह आँख़ुदावंद (मसीह) की ज़बान मुबारक से निकले हैं (7:6) और वहां भी ताख़ीर मक़्सूद है। हर दो मुक़ामात पर ग़ौर करने से ये पता चलता है कि इब्ने-अल्लाह (मसीह) हर काम को करने से पहले ख़ुदा बाप की मर्ज़ी को मालूम करना चाहते थे और इस तलाश में होते थे कि बाप की मर्ज़ी के मुताबिक़ इस काम के करने का मुनासिब और मौज़ूं (सही) वक़्त क्या है? यही वजह है कि आपने फ़रमाया “मैं अपनी मर्ज़ी नहीं बल्कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी चाहता हूँ।” (5:30) आपने अपनी आमद का मुदद’आ बईं अल्फ़ाज़ बतलाया, “मैं आस्मान से इसलिए उतरा हूँ कि अपनी मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल ना करूँ।” (6:38) फिर वक़्त मौज़ूं की निस्बत आपने फ़रमाया, “मैंने कभी कुछ अपनी तरफ़ से नहीं कहा। बल्कि बाप जिसने मुझे भेजा है। उसी ने मुझे हुक्म दिया है कि क्या कहूं और कब बोलूँ। पस जो कुछ कहता हूँ जिस तरह बाप ने मुझे फ़रमाया मैं उसी तरह कहता हूँ।” (12:49, 50) वग़ैरह और इसी उसूल के मातहत आपने अपने भाईयों को जो इसरार करके आप को अपने हमराह ईद ख़य्याम के मौक़े पर यरूशलेम ले जाना चाहते थे अल्फ़ाज़ ज़ेरे-बहस इस्तिमाल करके फ़रमाया, “अभी मेरा वक़्त नहीं आया। लेकिन तुम्हारे लिए सब वक़्त हैं। तुम ईद में जाओ। मैं अभी इस ईद में नहीं जाता। क्योंकि अभी तक मेरा वक़्त पूरा नहीं हुआ। और जब ईद के आधे दिन गुज़र गए तो येसू हैकल में जाकर तालीम देने लगा।” (7:6, 8, 14) इसी उसूल के मातहत आपने शागिर्दों को फ़रमाया, “मेरी ख़ुराक ये है कि अपने भेजने वाले की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ अमल करूँ और उसके काम को पूरा करूँ। क्या तुम नहीं कहते कि फ़स्ल पकने में अभी चार महीने बाक़ी हैं? देखो मैं तुमसे कहता हूँ कि अपनी आँखें उठाकर खेतों पर नज़र करो कि फ़स्ल पक गई है।” (4:34, 35) जब आपका दोस्त लाज़र बीमार था और उस की बहनों ने आपको जल्दी तशरीफ़ लाने के लिए पैग़ाम भेजा तो आप अपने इसी उसूल पर अमल पैरा हो कर फ़ौरन ना चल दिए। बल्कि उस जगह थे वहां आपने दो दिन और क़ियाम फ़रमाया और फिर उस के बाद शागिर्दों से कहा, “आओ यहूदिया को चलें।” शागिर्दों ने बहतेरा कहा कि ये वक़्त यहूदिया को जाने के लिए मुनासिब और मौज़ूं (सही) वक़्त नहीं है। क्योंकि अभी तो शक़ी-उल-क़ल्ब यहूद आपको संगसार करना चाहते थे। लेकिन आपने उनकी एक ना मानी और इलाही मर्ज़ी को मालूम करके (आयत 15, 40) आप ने फ़रमाया “क्या दिन के बारह घंटे नहीं होते। अगर कोई दिन को चले तो ठोकर नहीं खाता। क्योंकि वो दुनिया के नूर (यानी ख़ुदा की मर्ज़ी) की रोशनी देखता है। लेकिन अगर कोई रात को चले तो ठोकर खाता है। क्योंकि इस में (ख़ुदा की मर्ज़ी की) रोशनी नहीं।” (आयत 9 मुक़ाबला करो (यस’अयाह 8:19 ता 22, यर्मियाह 12 16 आयत वग़ैरह)
इन्जील जलील से ये ज़ाहिर है कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) का ये ईमान था कि ख़ुदा बाप के इल्म में हर बात के लिए एक ख़ास वक़्त और मि’याद मुक़र्रर है। (आमाल 11:7, मत्ती 24:36 वग़ैरह) और आप कोई काम नहीं करते थे तावक़्ते के आप ये मालूम ना करलें ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ उस के करने का वक़्त आया है या नहीं। (यूहन्ना 12:23, 17:1) पस अगर आप किसी काम के करने में ताख़ीर (देर) करते थे तो ये ताख़ीर (देर) ऐन ख़ुदा की मर्ज़ी और मंशा के मुताबिक़ होती थी।
(3)
क़ाना-ए-गलील के मौक़े पर ताख़ीर की क्या वजह थी?
यहां सवाल ये पैदा होता है कि क़ाना-ए-गलील के मौक़े पर ताख़ीर (देरी) की क्या वजह थी? गो इन्जील नवीस इस ख़ास मुक़ाम में ताख़ीर और वक़्फे का सबब बयान नहीं करता। ताहम क़ुव्वत-ए-मुतख़य्युला (क़ियास) और क़राइन (हालात) की मदद से हम मालूम कर सकते हैं कि इस वक़्फे की वजह ग़ालिबन क्या थी। ये ज़माना आँख़ुदावंद की रिसालत का इब्तिदाई वक़्त है। आप गोया ज़माना रिसालत की दहलीज़ पर खड़े हैं और आप को ये एहसास है कि आप में एजाज़ी ताक़त मौजूद है और आपके सामने सवाल ये है कि इस एजाज़ी ताक़त के इस्तिमाल का वक़्त आ गया है या नहीं। आपके हम-अस्र यहूद का ये ख़याल था कि जब मसीह मौ’ऊद आएगा तो वो शानो-शौकत और जलाल व हश्मत से आएगा। और अपने मसीहाई एजाज़ के “क़हर शदीद” से सल्तनत-ए-रोम को तह व बाला करके उस को परेशान कर देगा। और रोमी फ़र्मा नफ़रमाओं को लोहे के असा से तोड़ेगा। और अपने ग़ज़ब से उनके टुकड़े-टुकड़े करके कुम्हार के बर्तन की तरह उनको चकना-चूर कर देगा।” और यूं आस्मान की बादशाही की बिना (बुनियाद) डालेगा। (ज़बूर 2 वग़ैरह) कहाँ आपके हम-अस्र यहूद की ये उम्मीदें जो मसीहाई दौर के आग़ाज़ के साथ वाबस्ता थीं और कहाँ एक कमीन गो शरीफ़ तब्क़े के ग़रीब घराने में शादी ब्याह के मौक़े पर पानी को अंगूर के रस में तब्दील करके मसीहाई दौर की इब्तिदा करना और यूं ख़ुदा की बादशाही की बिना (बुनियाद) डालना بہ بیں تفاوت راہ از کجا است تا بکجا ये मो’जिज़ा ऐसा ना था कि उमरा और रऊसा-ए-यहूद की आँखें इस से चका-चौंद हो जातीं। (मत्ती 4:1-11) और वो तू’अन क़रहन आँख़ुदावंद के अकीदतमंद ग़ुलाम और जांनिसार फ़िदाई हो जाते। क़ौम यहूद के क़ाइद-ए-आज़म तो ऐसे ग़रीब घराने की चार-दीवारी के नज़्दीक फटकना भी अपनी तौहीन समझते थे। पस इब्ने-अल्लाह (मसीह) के सामने ये सवाल था, कि क्या मसीहाई एजाज़ का दौर शुरू करने का वक़्त आ गया है या नहीं। क्या इस दौर का आग़ाज़ आपके हम-अस्रों के ख़याल के मुताबिक़ जलाल व हश्मत के कामों से शुरू होगा या रहम और मुहब्बत और इन्सानी हम्दर्दी के मो’जिज़े के साथ इस मसीहाई दौर का शुरू होगा? जब इब्ने मर्यम ने अपनी वालिदा मुकर्रमा का इर्शाद सुना तो ख़ुदा की मर्ज़ी दर्याफ़्त करने की जानिब आप मुतवज्जोह हुए ताकि मालूम करें कि आस्मान से इस के मुताल्लिक़ क्या आवाज़ आती है और मसीहाई दौर के तरीक़ा आग़ाज़ जैसे अहम मु’आमले के मुताल्लिक़ ख़ुदा बाप की मर्ज़ी क्या है कि वो कब और किस तरह और किस अस्बाब के ज़रीये शुरू किया जाये? जब इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने बाप की तरफ़ रुजू’ किया तो ख़ुदा ने आप पर अपनी मर्ज़ी को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) किया कि मसीहाई एजाज़ का दौर अहले-यहूद के ख़यालात व तोहमात के मुताबिक़ शुरू नहीं होगा। (मत्ती 4:1 ता 11) बल्कि मुहब्बत और रहम और इन्सानी हम्दर्दी के कामों से शुरू होगा। (लूक़ा 7:21 ता 23, 4:17 ता 23 वग़ैरह) आपने अपनी वालिदा मुकर्रमा हज़रत सिद्दीक़िया की आवाज़ को नक़्क़ारा ख़ुदा समझा और आपके इर्शाद की तामील करके माँ के हुक्म और ख़ुदा की मर्ज़ी को पूरा करके अपना जलाल ज़ाहिर किया। और आप के शागिर्द आपकी मसीहाई पर ईमान लाए।” (आयत 11)
आया ज़ेरे-बहस एक और तावील
फ़ाज़िल अजल लेवीसन साहब आया ज़ेरे-बहस की एक तावील करते हैं जो ऐसी सादा और आम फहम है कि मौलवी सना-उल्लाह साहब जैसी समझ रखने वाले भी आसानी से समझ सकें। इस के इलावा ये तावील यहूदी दस्तुरात के मुताबिक़ भी है। साहब मौसूफ़ फ़र्माते हैं कि :-
“अहले-यहूद ब्याह शादी के मौक़े पर अंगूर का रस आम इस्तिमाल करते थे। और यह रस्म ज़माना-ए-क़दीम से दौर-ए-हाज़िर तक सूबा गलील में चली आई है कि ना सिर्फ दुल्हे का ये फ़र्ज़ था कि अंगूर का रस बहम पहुंचाए बल्कि दुल्हे के रिश्तेदार और बराती अंगूर के रस को मुहय्या करने में भी हिस्सा लेते थे। ब्याह की मुख़्तलिफ़ रसूम बा’ज़ औक़ात चौदह दिन और बा’ज़ औक़ात सात दिन (क़ुज़ात 14:12) लेकिन ग़रीब घरों में बिल-उमूम एक ही दिन में अदा हो जातीं लेकिन जितने दिन भी ये रसूम रहतीं दुल्हा (क़ुज़ात 14:10) और उस के रिश्तेदार और बराती हस्ब-ए-ज़रूरत अंगूर का रस मुहय्या करने के ज़िम्मेदार होते थे अगर दुल्हे का रब्बी ब्याह के मौक़े पर मौजूद होता तो उस को ये फ़ख़्र हासिल होता कि अगर वो चाहता तो वो सबसे पहले दुल्हे को बतौर तोहफ़ा अंगूर के रस की पेशकश करता। इस यहूदी दस्तूर की रोशनी में साहब मौसूफ़ आया ज़ेरे-बहस की यूं तावील करते हैं कि जब बीबी मर्यम ने देखा कि अंगूर का रस कम हो रहा है और मेहमानों के लिए किफ़ायत नहीं करेगा तो दुल्हे के अज़ीज़ और बराती होने की हैसियत से आप अपने बेटे के पास तशरीफ़ लाईं और फ़रमाने लगीं, “बेटा। इनके पास अंगूर का रस नहीं रहा।” इस पर कलिमतुल्लाह (मसीह) ने हज़रत सिद्दीक़ा से फ़रमाया, “बीबी जी मुझको और आपको इस बात से क्या? अभी मेरी नौबत नहीं आई।” अगर हम यहूदी दस्तूर की रोशनी में आया शरीफा पर ग़ौर करें तो ऐसा मालूम होता है कि दुल्हे का रब्बी वहां शादी के मौक़े पर बतौर निकाह ख़वाँ मौजूद था। जिसको ये हक़ हासिल था कि वो अगर चाहे तो सबसे पहले अंगूर के रस की पेशकश करे और इस के बाद दुल्हे के दीगर अज़ीज़ व क़ारिब और बराती अपनी अपनी बारी उस को नज़र करें। पस आँख़ुदावंद ने इस दस्तूर को मद्द-ए-नज़र रखकर बीबी सिद्दीक़ा से फ़रमाया “बीबी जी। आप तरद्दुद ना फ़रमाएं।” अभी हमारी नौबत नहीं आई जूंही हमारी बारी आऐगी। सब इंतिज़ाम ठीक तौर पर हो जाएगा। आप ख़ातिरजमा रखें। और इस मु’आमले को मुझ पर छोड़ दें। “इस पर बीबी मर्यम ने मुंतज़मीन जलसा को फ़रमाया कि जो कुछ ये तुमसे कहे वो करो।” और वापिस अन्दर तशरीफ़ ले गईं। जब आपकी नौबत (बारी) आई तो आपने एजाज़ी तौर पर पानी को अंगूर के रस में तब्दील कर दिया।”
मज़्कूर बाला तावील में जिस दस्तूर का फ़ाज़िल लेवीसन साहब ने ज़िक्र किया है इस की तस्दीक़ मशहूर व मा’रूफ़ यहूदी मतज़र डाक्टर आयडर शाएम बहवाला यहूदी किताब “बाब बथरा” बईं अल्फ़ाज़ करते हैं :-
“शादी ब्याह जैसे मौक़ों पर अंगूर का रस और तेल का हद्या पेशकश करना कार-ए-सवाब समझा जाता था और ख़ैरात में दाख़िल था।”
13 प्रोफेसर लीमज़ा (Lamsa) का यही तर्जुमा है “अभी मेरी बारी नहीं आई” यह तर्जुमा सुर्यानी ज़बान से किया गया है जो सय्यदना मसीह की मादरी ज़बान आरामी से मिलती जुलती है। (बरकत-उल्लाह)
मर्हूम यहूदी आलिम अजल डाक्टर अबराहाम भी इस दस्तूर का इंसाइकलोपीडिया आफ़ रीलिजियंस ऐंड एथिक्स में ज़िक्र करते हैं। पस जब मुस्तनद यहूदी उलमा के अक़्वाल से लेवीसन की तावील की ताईद व तस्दीक़ होती है। तो किसी शख़्स को जिसके सर में दिमाग़ और दिमाग़ में अक़्ल है। इस तावील को कम अज़ कम क़रीन-ए-क़ियास मानने में ताम्मुल नहीं हो सकता अगर ये तावील दुरुस्त तस्लीम की जाये तो मौलवी साहब को भी लाचार ये मानना पड़ेगा कि इस आया शरीफा में “मसीह ने अपनी वालिदा मुकर्रमा को नाक भों चढ़ा कर” (सफ़ा 148) ख़िताब नहीं किया था और “नाज़रीन भी अंदाज़ा कर सकते हैं कि अल्फ़ाज़ ज़ेरे बह्स” अदब के हैं या सू-अदबी (बेअदबी) के” (सफ़ा 148) ये तावील ऐसी सादा, साफ़, सीधी और वाज़ेह है कि इस की रू से कोई सहीउल-अक़्ल शख़्स इस आयत के किसी एक लफ़्ज़ पर भी एतराज़ नहीं कर सकता। हाँ अगर मौलवी सना-उल्लाह साहब की तरह उस का वाहिद मक़्सद हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की शान में बेकार सवाल और फ़ुज़ूल एतराज़ करके तौहीन आमेज़ कलमात कह कर बे-अदबी करना और इत्तिहाम (तोहमत, इल्ज़ाम) तराज़ी है तो वो दूसरी बात है। मौलवी साहब को अशआर बहुत पसंद हैं। मालूम नहीं कि मौलानाए रोम का ये शे’अर उनकी नज़र से कभी क्यों नहीं गुज़रा?
अज़ ख़ुदा ख़्वाहीम तौफ़ीक़ अदब
बे-अदब महरूम माँदाज़ फ़ज़्ल रब
क्या इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने शराब बनाई?
तीसरा एतराज़
मौलवी सना-उल्लाह साहब का तीसरा एतराज़ ये है कि ख़ुदावंद मसीह ने जो शेय एजाज़ी ताक़त से बनाई। वो शराब थी। आपने इंजीली उर्दू के लफ़्ज़ “मै” (आयत 3) का तर्जुमा आम फहम लफ़्ज़ “शराब” किया है। (सफ़्हा 148) और बक़ौल जनाब “शराब” उर्दू ज़बान में नशा आवर पानी का नाम है जो हर अक़्लमंद के नज़्दीक बहुत बुरी चीज़ है।” (सफ़ा 91” पस इंजीली लफ़्ज़ का आप ने उर्दू तर्जुमा शराब करके ये एतराज़ किया है कि आँख़ुदावंद ने क़ाना-ए-गलील पानी को शराब में तब्दील किया जो “नशा आवर पानी” होने की वजह से हर अक़्लमंद के नज़्दीक बहुत बुरी चीज़ है।
मौलवी साहब का ये फ़र्ज़ था कि आप ये साबित करते कि जो यूनानी लफ़्ज़ इन्जील जलील में इस मुक़ाम पर वारिद हुआ है। इस से मुराद “नशा आवर पानी” है जिसका सही मफ़्हूम उर्दू ज़बान में लफ़्ज़ “शराब” कर दिया। ताकि अवामुन्नास (आम लोग) यही समझें कि आँख़ुदावंद ने “नशा आवर पानी” बनाया। और फिर मौलवी साहब की सितम ज़रीफ़ी मुलाहिज़ा हो कि अपने तर्जुमे के लिए आपने कोई दलील भी नहीं दी। बल्कि अज़्रा-ए-मुस्तहकम एतराज़ करने पर ही किफ़ायत की। फिर आप अख़्बार अहले-हदीस में कहते हैं :-
“मसीह से दो गुनाह सरज़द हुए। एक शराब की मज्लिस में हाज़िर होना। और दूसरा अपनी माँ की ता’ज़ीम करने की बजाए उस को तौहीन आमेज़ लफ़्ज़ों से मुख़ातिब करना।” (26 दिसंबर 1941 ई॰)
आपके वो मुरीद जो आपकी हर बात पर आमन्ना व सद्दक़ना कहते को तैयार हैं। बग़ैर आपकी बात का जायज़ा लिए आपके एतराज़ को सुन कर ख़ुश होंगे। लेकिन जो अश्ख़ास ख़ुदादाद अक़्ल-ए-सलीम को इस्तिमाल करने के आदी हैं वो आपको कहेंगे :-
نگفتہ ندارد کسے باتوکار ولے چوں بگفتی دلیلش بیار
(2)
मौलवी साहब हम आपको आपके ही अल्फ़ाज़ में कहते हैं कि, “क्या अच्छा होता कि आप इन लफ़्ज़ों का तर्जुमा किसी पादरी से पूछ लेते तो आपसे ये ग़लती सरज़द हो कर मूजिब-ए-नदामत ना होती।” (किताब इस्लाम व मसीहियत सफ्ह 73)
مجال ِ سخن تانہ بینی زپیش بہ بے ہودہ گفتن مبر قد خویش
वाजिब तो ये था कि आप एतराज़ करने से पहले ये मालूम कर लेते कि जो यूनानी लफ़्ज़ यहां इस्तिमाल हुआ है। वो यूनानी इन्जील में किस-किस जगह वारिद हुआ है। और उन मुख़्तलिफ़ मुक़ामात का मुक़ाबला करके आप इस लफ़्ज़ का उर्दू ज़बान में मफ़्हूम मुत’अय्यन (तय) कर लेते। अगर आप ये तर्ज़-ए-अमल इख़्तियार करते तो आपका रवय्या इल्म तफ़्सीर के सही उसूल के मुताबिक़ दुरुस्त और जायज़ होता लेकिन दायरा-ए- इस्लाम में ऐसे इन्सान हमको ख़ाल-ख़ाल नज़र आते हैं जो अपने त’अस्सुबात से बेनियाज़ हो कर हक़ और सदाक़त की ख़ातिर कांटों का ताज पहनने को तैयार हों।
अगर आप यूनानी से नावाक़िफ़ होने के बा’इस अस्ल यूनानी लफ़्ज़ पर बह्स करने के क़ाबिल नहीं थे तो कम अज़ कम आप यहूदी दस्तूरों से वाक़िफ़ हो सकते थे। आप यही मालूम कर लेते कि अहले-यहूद में आम तौर पर “शराब” पीने का दस्तूर था या नहीं। और बिल-ख़ुसूस शादी ब्याह के मौक़े पर “शराब” का इस्तिमाल होता था या नहीं अगर यहूदी दस्तुरात को मालूम करने के ज़राए आपके पास नहीं थे तो आपके हाथों में कम-अज़-कम किताब-ए-मुक़द्दस तो थी। आपको तो उस पर हावी होने का दा’वा भी है (इस्लाम और मसीहियत सफ्ह 38) आपने उसी का मुताल’आ करके यहूदी रसूम और दस्तुरात से वाक़फ़ियत हासिल करली होती।
(3)
यहूदी कुतुब मुक़द्दसा में नौ (9) मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ हैं। जिनका उर्दू तर्जुमा कभी “मै” कभी “आब-ए-अंगूर” कभी “शराब” कभी “अंगूर का ख़ालिस रस” कभी “ताक का हासिल” कभी “अंगूर का शीरा” वग़ैरह किया गया है। उर्दू तर्जुमे में इस बात का लिहाज़ नहीं रखा गया कि इन नौ लफ़्ज़ों में से हर लफ़्ज़ के लिए उर्दू में हर मुक़ाम पर एक जुदागाना लफ़्ज़ हर वक़्त इस्तिमाल किया जाये। अरबी तर्जुमे में भी ये रि’आयत मल्हूज़ नहीं रखी गई। ज़ेल के सुतूर में इख़्तिसार की ख़ातिर हम इन नौ (9) अल्फ़ाज़ में से सिर्फ तीन का ज़िक्र करते हैं। क्योंकि ये अल्फ़ाज़ बिल-उमूम किताब-ए-मुक़द्दस में वारिद हुए हैं।
अव्वल लफ़्ज़ “याईयिन” (یائیین) है जो इब्रानी लफ़्ज़ नहीं है। बल्कि किसी ग़ैर इब्रानी ज़बान से लिया गया है। ये लफ़्ज़ यहूदी सहफ़-ए-समावी में सबसे ज़्यादा मुस्त’मल हुआ है। और अह्दे-अतीक़ में 143 दफ़ा’ वारिद हुआ है। मसलन पैदाइश 49:11 ता 12, क़ुज़ात 9:13, ज़बूर 104:15, आमोस 9:4 वग़ैरह। अह्दे-अतीक़ के यूनानी तर्जुमे सेपट्वाजैनिट में इस लफ़्ज़ “याईयिन” (یائیین) का तर्जुमा οινοs “अवीनूस” किया गया है और उर्दू तर्जुमे में उमूमन लफ़्ज़ “मै” इस के लिए इस्तिमाल किया गया है। जिस जिस जगह ये लफ़्ज़ मुस्त’मल हुआ है वहां इस से बिल-उमूम (आमतौर पर) मुराद वो चीज़ है जो अदना और आला तब्क़े के सब यहूदी खाना खाते वक़्त रोटी के बाद पिया करते थे जिस तरह अहले-पंजाब खाना खाते वक़्त रोटी के बाद पानी या छाछ वग़ैरह पीते हैं। (लूक़ा 7:33 वग़ैरह) यही वजह है कि इस का ज़िक्र 143 दफ़ा’ सहफ़-ए-समावी में आया है। इन मुत’अद्दिद मुक़ामात का बग़ौर मुलाहिज़ा करने से ये बात अयाँ हो जाती है कि जिस शै का ज़िक्र किया गया है “वो “शराब” यानी नशा आवर पानी नहीं है जो हर अक़्लमंद के नज़्दीक बहुत बुरी चीज़ है।” (सफ़ा 91) चुनान्चे ज़बूर 104 में इस चीज़ का ख़ुदा की दीगर ने’मतों में शुमार किया गया है। जिसके लिए ख़ालिक़ का शुक्र मज़मूर नवीस बईं अल्फ़ाज़ करता है।
“ऐ मेरी जान तू ख़ुदा को मुबारक कह। वो चौपाईयों के लिए घास उगाता है और इन्सान के काम के लिए सब्ज़ा ताकि ज़मीन से ख़ुराक पैदा करे और “मै” जो इन्सान के दिल को ख़ुश करती है। और रोग़न जो उस के चेहरे को चमकाता है और रोटी जो आदमी के दिल को तवानाई बख़्शती है।” (ज़बूर 104)
क़ाना-ए-गलील में मुन्जी कौनैन (मसीह) ने जो शै एजाज़ी तौर पर बनाई। वो यही चीज़ थी। चुनान्चे आया ज़ेरे-बहस में वही यूनानी लफ़्ज़ “औनियूस” (اونیوس) वारिद हुआ है जो यूनानी तर्जुमा सेप्टवाजिंट (SEPTUAGINT) में इस्तिमाल हुआ है। और जिस के लिए उर्दू तर्जुमे में बिल-उमूम लफ़्ज़ “मै” मुस्त’मल हुआ है। पस मौलवी साहब का इस लफ़्ज़ के लिए “उर्दू ज़बान का लफ़्ज़ “शराब” यानी “नशा आवर” पानी इस्तिमाल करना आया शरीफा पर ज़ुल्म करना और कलिमतुल्लाह (मसीह) की तौहीन करना और अपने नाज़रीन को राह़-ए-हक़ से गुमराह करना है।
जिन लोगों को इल्म-ए-जुग़राफ़िया से कुछ मस है वो ये जानते हैं। कि अर्ज़-ए- मुक़द्दस कन’आन की ज़मीन और आबो-हवा ताक और अंगूर की पैदाइश और फ़रावानी के लिए निहायत मौज़ूं है। क़ुद्रत ने उस का अर्ज़ और बलद और ऊंचाई ऐसी बनाई है कि उस में आला तरीं क़िस्म के अंगूर की पैदावार होती है जिस तरह पंजाब के खेतों में गेहूँ की पैदावार होती है। इसी तरह अर्ज़-ए-मुक़द्दस के खेतों में अंगूर की पैदावार होती है। यही वजह है कि इस सर-ज़मीन में अंगूर की सनअत व हिरफ़त क़दीम तरीन ज़माने से चली आई है और तीसरी सदी मसीही तक ये मुल़्क इस के लिए दुनिया-भर में मशहूर था। लेकिन अरब की फ़ुतूहात के बाद इस सन’अत का ख़ातिमा हो गया। यहूदी कुतुब मुक़द्दसा से पता चलता है कि कन’आन में ताकिस्तान बकस्रत थे। और अंगूरों की पैदावार निहायत इफ़रात के साथ होती थी। यहां तक कि अगर किसी को ये कहना मंज़ूर होता कि फ़ुलां बादशाह का ज़माना अमन और सुलह का अहद था तो वो कहते कि “फ़ुलां ज़माने में इस्राईल का एक एक आदमी अपनी अपनी ताक और अपनी अपनी इंजीर के नीचे चैन से बैठता था।” (1 सलातीन 4:25. 2 सलातीन 18:31, यस’अयाह 32:10, 36:10, मीकाह 4:4, ज़करिया 3:10 वग़ैरह) अंगूर का रस इस क़द्र आम थे कि यहूदी तबीब इस को गुरबा के ईलाज के लिए बतौर दवा इस्तिमाल करते थे। (लूक़ा 10:34, मर्क़ुस 15:22, 1 तीमुथियुस 5:23 वग़ैरह) अंगूर के फ़स्ल के मौक़े पर ख़ुशी की जाती। (यस’अयाह 16:10) नशेब के अज़ला में ये दिक़्क़त माह जुलाई में शुरू हो जाता है। लेकिन लोग जून ही में कच्चे और हरे अंगूरों में पानी और चीनी मिलाकर ठंडा शर्बत मिला कर पीते लेकिन अगस्त और सितंबर में अंगूर की फ़स्ल हर जगह तैयार हो जाती और इस मौक़े पर “लोग अपने अपने ताकिस्तान का फल तोड़ते अंगूरों का रस पीते और ख़ुशी मनाते।” (क़ुज़ात 9:27) ये उन की ईद का मौक़ा होता। जब वो उछलते कूदते, गाते बजाते और ख़ुशी करके ख़ुदा का इस ने’मत-ए-उज़्मा के लिए शुक्र बजा लाते। (क़ुज़ात 9:13, ज़बूर 104:15 वग़ैरह)
ایوان ِ نعمتے کہ نشاید سپاس گفت اسباب ِ راحتےٰ کہ نشاید شمارکرد
अंगूर ऐसी आम शै थी कि यहूदी सहफ़-ए-समावी में इस को तश्बीह और इस्ति’आरा के तौर पर कसीर-उल-तादाद मुक़ामात में इस्तिमाल किया गया है ताकि अवामुन्नास इलाही पैग़ामों को कमा-हक़्क़ा समझ सकें। मसलन इस्राईल को ताक और अंगूर के साथ मुत’अद्दिद मुक़ामात में तश्बीह दी गई है। (ज़बूर 80:8 ता 9, यस’अयाह 5:1, होसेअ 10:1 वग़ैरह) ख़ुद मुन्जी आलमीन (मसीह) ने अपने आपको अंगूर से तश्बीह दी और शागिर्दों से फ़रमाया, “अंगूर की हक़ीक़ी बैल मैं हूँ मेरा बाप बाग़बान है। तुम डालियां।” (यूहन्ना 15 बाब) जब क़ौम इस्राईल ख़ुदा से बर्गश्ता होती तो अम्बिया उस को “जंगली अंगूर” से मुशाबहत देते। (यिर्मियाह 2:21, यस’अयाह 5:2 वग़ैरह) इस्राईल के दुश्मन “ताक-ए-सददम” कहलाते थे (इस्तस्ना 32:32) यानी ऐसे अंगूर जिनके फल और रस में सददम की ख़राबी की सी बदबू आती हो।
अंगूर के इस्तिमाल के चार तरीक़े थे। आम तरीक़ा इस्तिमाल ये था कि अंगूर को खाया जाता और इस के रस को खाने के वक़्त रोटी के साथ पिया जाता था। दूसरा तरीक़ा ये था कि अंगूर को ख़ुश्क कर लिया जाता और इस को बतौर मेवा मुनक़्क़ा इस्तिमाल किया जाता। तीसरा तरीक़ा ये था कि अंगूर को कोल्हू में दबा कर इस का रस निकाला जाता और लोग इस का शर्बत अंगूर बनाते या इस का शीरा निकालते जो शहद की मानिंद था। चौथा तरीक़ा ये था कि ख़मीर उठाकर इस की शराब बनाई जाती।
दोम : अह्दे-अतीक़ की कुतुब में एक और लफ़्ज़ “तेरोश” (تیروش) 38 दफ़ा’ इस्तिमाल हुआ है जिसका मफ़्हूम यूनानी तर्जुमे में लफ़्ज़ “मैथीयू समा” (میتھیوسما) और उर्दू तर्जुमे में “नई मै” है। इस का इब्रानी नाम ही ज़ाहिर करता है, कि ये शै दिमाग़ पर क़ब्ज़ा कर लेती है और नशा आवर है। ये लफ़्ज़ बतौर फ़े’अल “मैथीयू सुन थोसन” (میتھیوسن تھوسن) इन्जील यूहन्ना बाब दोम में मुक़ाम ज़ेरे-बहस की दसवीं आयत में मीर मज्लिस के क़ौल में आया है। जहां उर्दू तर्जुमे में इस फ़े’ल का तर्जुमा “पी कर छक गए” किया गया है। ये इस बात का काफ़ी सबूत है कि वो चीज़ जो इब्रानी मतन में “याईयिन” (یا ئیین) और यूनानी मतन में “अवीनोस” (اوینوس) कहलाती है और जिस को आँख़ुदावंद (मसीह) ने एजाज़ से बनाया था उस शै से मुख़्तलिफ़ है जो इब्रानी में “तेरोश” (تیروش) और यूनानी में “मैथीयू समा” (میتھیوسما) कहलाती है जिसको पी कर लोग “छक” जाते हैं। इन्जील जलील में जहां कहीं नशे बाज़ी की मुमानि’अत आई है और जहां ये हुक्म देना मक़्सूद है कि नशे बाज़ी और शराब से मतवालते ना बनो। वहां ये लफ़्ज़ इस्म-ए-फ़े’ल दोनों शक्लों में इस्तिमाल किया गया है (रोमियों 13:3, पहला कुरिन्थियों 5:11, 6:10, ग़लतियों 5:21, इफ़िसियों 5:7 वग़ैरह) जिस से ज़ाहिर है कि यूनानी ज़बान इन्जील (और उर्दू तर्जुमे में भी) दोनों क़िस्म की चीज़ों में यानी “अवीनोस” (اوینوس) और “मैथीयू समा” (میتھیوسما) में तमीज़ की गई है। जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि वो शै “अवीनोस” (اوینوس) जो आँख़ुदावंद ने एजाज़ी ताक़त से बनाई उस शै से अलग और जुदा है। जो नशा आवर है और मतवाला बना देती है।
सोम : तीसरा लफ़्ज़ जो इब्रानी कुतुब मुक़द्दसा में आया है वो “सुकर” (سکر) है जिसको यूनानी सेप्टवाजिंट (SEPTUAGINT) में) लिखा गया है। उर्दू बाइबल में इस का तर्जुमा “नशा” और कभी “शराब” किया गया है। ये लफ़्ज़ इब्रानी अहद-ए-अतीक़ में 23 मर्तबा आया है। मसलन इस्तस्ना 14:26, यस’अयाह 24:9, 56:12, ज़बूर 69:12 वग़ैरह मर्हूम डाक्टर लाईटफ़ुट कहते हैं कि :-
“ये यरूशलम की दौलतमंद औरतें ये शै उन मुजरिमों को पिलाया करती थीं जिनको तख़्तादार पर लटकना होता था ताकि वो दर्द को महसूस ना करें। (अम्साल 31:6) ऐसा मालूम होता है कि ग़ालिबन खजूर की शराब को भी “सुकर” (سکر) कहते थे।”
मौलवी सना-उल्लाह साहब ने अपने एतराज़ात में लफ़्ज़ “शराब” को इस्तिमाल करके गोया ये ज़ाहिर करना चाहा है कि आँख़ुदावंद ने क़ाना-ए-गलील में जिस शै को पानी में तब्दील किया था वो “सिकीरा” (سکیرا) नहीं है बल्कि “अवीनोस” (اوینوس) है इन्जील जलील में इन दोनों लफ़्ज़ों में तमीज़ की गई है। चुनान्चे लूक़ा की इन्जील में हज़रत यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की निस्बत आया है कि “वो ना “अवीनोस” (اوینوس) (मै) और ना “सिकीरा” (سکیرا) (शराब) कभी पिएगा।” (1:15) अरबी तर्जुमे में भी इस जगह आया है कि " لایشرب خمر ولا مسکراًٍ" पस यहां ना सिर्फ अस्ल यूनानी में बल्कि उर्दू और अरबी तराजिम में भी दोनों अल्फ़ाज़ दिए गए हैं। और इन में तमीज़ की गई है। मौलवी साहब का एतराज़ ज़ाहिर करता है कि आप ना सिर्फ ज़बान यूनानी से बेगाना हैं बल्कि अरबी छोड़ उर्दू तर्जुमे तक का मुताल’आ करने की तक्लीफ़ गवारा नहीं फ़र्माते।
पस किताब-ए-मुक़द्दस के अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर है कि जो शै कलिमतुल्लाह (मसीह) ने मसीहाई एजाज़ से बनाई वो अच्छे से अच्छे आब-ए-अंगूर से भी आला थी। (2:10) जिसमें नशे का नाम तक ना था। क़ुर्आन से पता चलता है कि हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) ने हवारियों को नुज़ूल-ए-माइदा में आस्मानी ख़ुराक खिलाई इस मो’जिज़े में आप ने शादी के मेहमानों को आस्मानी शिराबन तहूरा (شراباً طہوراً) पिलाई بَيْضَاء لَذَّةٍ لِّلشَّارِبِينَ لَا فِيهَا غَوْلٌ وَلَا هُمْ عَنْهَا يُنزَفُونَ यानी “सफ़ैद मज़ा देने वाली जो पीने वालों को लज़ीज़ मालूम होगी। ना इस से सर घूमेगा और ना इस की वजह से बेहूदा बकेंगे।” (साफ़्फ़ात 46 ता 47) ऐसी चीज़ जिसकी बाबत क़ुर्आन कहता है, وَفِي ذَلِكَ فَلْيَتَنَافَسِ الْمُتَنَافِسُونَ यानी “वाजिब है कि रग़बत करने वाले ऐसी ही चीज़ की रग़बत किया करें।” (अल-मुतफ्फिफीन आयत 25) आँख़ुदावंद ने ज़मीनियों को आसमानियों का खाना पीना इसी दुनिया में चखा दिया। إِنَّ فِي ذَلِكَ لآيَةً لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ यानी “पस ये बेशक निशानी है उस क़ौम के वास्ते जो अक़्ल रखते हैं।” (नहल 69)
हिल्लत व हुर्मत का सवाल
बफ़र्ज़-ए-मुहाल हम चंद मिनटों के लिए ये मान लेते हैं कि जो शै तब्दील हुई थी वो बक़ौल मौलवी साहब शराब यानी नशा आवर पानी था मौलवी साहब ने निहायत बेबाकी से इब्ने-अल्लाह (मसीह) पर फ़त्वा सादिर कर दिया कि “मसीह से दो गुनाह सरज़द हुए। एक शराब की मज्लिस में हाज़िर होना।” लेकिन हम उनसे ये सवाल करते हैं कि, “क्या कोई शै अज़रूए शरी’अत हराम हो सकती है तावक़्ते के अल्लाह ने शर’ई तौर पर हराम ना किया हो? पस आपका फ़र्ज़ था कि अपना नापाक फ़त्वा सादिर करने से पहले आप यहूदी कुतुब मुक़द्दसा से साबित करते कि जो शै कलिमतुल्लाह (मसीह) ने बनाई वो हराम थी और इस के बनाने में आपने मूसवी शरी’अत का उदूल (नाफर्मानी) किया। लेकिन आपने ये मुहक़्क़िक़ाना रवय्या इख़्तियार ना किया क्योंकि आप यहूदी कुतुब मुक़द्दसा के किसी एक लफ़्ज़ से भी अपना दा’वा साबित नहीं कर सकते थे।
बिलफ़र्ज़ मुहाल आप तौरात शरीफ़ और सहाइफ़ अम्बिया से ये साबित कर भी देते कि कलिमतुल्लाह (मसीह) ने एक हराम शै को बनाया तो आप क़ुर्आन को क्या जवाब देते जिसमें लिखा है कि हज़रत मसीह साहिबे किताब थे? पस साहिब-ए-शरी’अत और शारे’अ होने की हैसियत से आप मूसवी शरी’अत के मातहत ना थे क्योंकि क़ुर्आन के मुताबिक़ आपने अहले-यहूद से कहा وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرَاةِ وَلِأُحِلَّ لَكُم بَعْضَ الَّذِي حُرِّمَ عَلَيْكُمْ यानी “मैं तौरात की जो मुझसे पहले है तस्दीक़ करता हूँ और बा’ज़ अश्या जो तुम पर हराम थीं उनको हलाल करता हूँ।” (सूरह इमरान आयत 44)
(2)
मौलवी साहब क़ुर्आन और तारीख़ इस्लाम से वाक़िफ़ हैं उनको ये इल्म होगा, कि शराब हज़रत मुहम्मद की ज़िंदगी के आख़िरी ज़माना यानी 4 हिजरी में हराम हुई। इस से पहले क़ुर्आन नशा आवर पानी की तारीफ़ में रतब-उल-लिसान हो कर इस को उम्दा खाने की चीज़ बतलाता है। चुनान्चे मुलाहिज़ा हो, وَمِن ثَمَرَاتِ النَّخِيلِ وَالأَعْنَابِ تَتَّخِذُونَ مِنْهُ سَكَرًا وَرِزْقًا حَسَنًا यानी “ख़जूरों के मीवों और अंगूरों के फलों से तुम लोग नशे की चीज़ और उम्दा खाने की चीज़ें बनाते हो।” (नहल 67) क़ुर्आन इसी सुक्र (سکر) को وَرِزْقًا حَسَنًا कहता है जो कुतुब मुक़द्दसा में (जैसा सुतूर बाला में मज़्कूर हो चुका है) हराम थी, क़ुर्आन इसी पर क़ना’अत नहीं करता बल्कि इस नशे की चीज़ को अक़्ल वालों के लिए एक निशानी क़रार देकर कहता है कि, إِنَّ فِي ذَلِكَ لآيَةً لِّقَوْمٍ يَعْقِلُونَ यानी “बेशक निशानी है। उस क़ौम के वास्ते जो कि अक़्ल रखते हैं।” (नहल 67) देखिए क़ुर्आन इस ज़माने में नशा आवर पानी को अक़्लमंदों के लिए एक निशानी क़रार देता है। लेकिन आपका फ़त्वा ये है कि “नशा आवर पानी हर अक़्लमंद के नज़्दीक बहुत बुरी चीज़ है।” (सफ़ा 91)
इस्लामी तारीख़ में ये वो ज़माना था। जब आँहज़रत के जलील-उल-क़द्र सहाबा ना सिर्फ शराब पीते बल्कि बड़ी बेएतिदाली के साथ पीते थे। चुनान्चे मौलाना अशरफ़ अली थानवी सूरह निसा की आयत 46 के फ़ायदे में लिखते हैं :-
“हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़ ने चंद आदमियों की दा’वत की जिनमें बहुत से सहाबा भी शामिल थे। खाने के बाद शराब पिलाई गई जो उस वक़्त हलाल थी। नशे की हालत में अज़ान की आवाज़ कान में पड़ी तो एक सहाबी इमाम बने और नमाज़ शुरू हुई। उन्होंने पहली रक’अत में “क़ुल या अय्युहल काफीरून” (قل یا ایھا کفرون) पढ़ी और सब जगह हुरूफ़ ला (لا) को हज़फ़ (गायब) कर दिया। जो तौहीद के भी ख़िलाफ़ था। उस वक़्त ये आयत उतरी और मुसलमानों ने नमाज़ के क़रीबी वक़्त में शराब पीनी मौक़ूफ़ (ख़त्म) कर दी।” (तर्जुमा क़ुर्आन ब तर्जुमा सफ्ह 122 हाशिया)
पस जब जलील-उल-क़द्र सहाबा शराब पी कर नमाज़ में बहकने लगे तो हुक्म हुआ, يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَ تَقْرَبُواْ الصَّلاَةَ وَأَنتُمْ سُكَارَى حَتَّىَ تَعْلَمُواْ مَا تَقُولُونَ यानी “ऐ लोगो जो ईमान लाए हो। जब तुम नशे में हो तो नमाज़ के पास ना जाओ। यहां तक कि समझने लगो कि क्या कहते हो।” (निसा आयत 46) जब ये क़ुर्आनी हुक्म आया तो लोग नमाज़ के वक़्त शराब ना पीते लेकिन इस ज़माने में भी शराब और जुए बाज़ी हलाल थी। चुनान्चे क़ुर्आन में आया है, يَسْأَلُونَكَ عَنِ الْخَمْرِ وَالْمَيْسِرِ قُلْ فِيهِمَا إِثْمٌ كَبِيرٌ وَمَنَافِعُ لِلنَّاسِ وَإِثْمُهُمَآ أَكْبَرُ مِن نَّفْعِهِمَا यानी “ऐ मुहम्मद तुझसे लोग शराब और जुए की निस्बत सवाल करते हैं। तू कह कि इन दोनों के इस्तिमाल में जहां गुनाह की बड़ी-बड़ी बातें हैं। वहां लोगों को बा’ज़ फ़ायदे भी हासिल हो जाते हैं। लेकिन गुनाह की बातें इन फ़ाइदों से ज़्यादा बड़ी हुई हैं।” (बक़रह 216) लेकिन इस क़िस्म के मुबहम (यानी छिपे हुए) अल्फ़ाज़ से लोग मुज़बज़ब (बेचैन) ही रहे। चुनान्चे हाफ़िज़ नज़ीर अहमद देहलवी मर्हूम लिखते हैं कि :-
“हज़रत उमर जैसे जलील-उल-क़द्र सहाबी को भी एक मुद्दत तक ख़दशा रहा और दुआ करते थे कि ऐ ख़ुदा शराब के बारे में हमको कोई साफ़ हुक्म मिले। तर्जुमा क़ुर्आन मशारिक़-उल-अनवार में है कि “जब क़ुर्आन में इस मज़्मून की आयत उतरीं कि मस्ती में नमाज़ मत पढ़ो और शराब में लोगों के फ़ायदे भी हैं और गुनाह भी तो लोग शराब पीते थे और नमाज़ के वक़्त तर्क कर देते थे।” तब ये हदीस फ़रमाई, जो मुस्लिम में अबू सईद से रिवायत है कि हज़रत ने फ़रमाया, ऐ लोगो अलबत्ता ख़ुदा अभी इशारे कर रहा है शराब में। और शायद के आगे उतारेगा इस में कुछ हुक्म यानी खोल कर हराम कर देगा। पस जिसके पास शराब से कुछ हो तो चाहिए कि उस को बेच डाले और उस से फ़ायदे उठा लेवे। अबू सईद से रिवायत है कि हज़रत के फ़रमाने के बाद थोड़े दिन गुज़रे कि क़ुर्आन में शराब की साफ़ हुर्मत बयान हो गई। (सफ़ा 1042) यानी ये आयत नाज़िल हुई, يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ إِنَّمَا الْخَمْرُ وَالْمَيْسِرُ وَالأَنصَابُ وَالأَزْلاَمُ رِجْسٌ مِّنْ عَمَلِ الشَّيْطَانِ “ऐ ईमान वालो बात यही है कि शराब और जुआ और बुत वग़ैरह और क़ुरआ के तीर ये सब नापाक बातें शैतानी काम हैं। (माइदा 92) अबू सईद से रिवायत है कि जब ये आयत नाज़िल हुई हज़रत ने फ़रमाया अब जिसके पास शराब हो वो ना तो पिए और ना बेचे बल्कि डहलका देवे। सो उसी दिन हुक्म सुनते ही सहाबा ने बर्तन तोड़ डाले और शराब बहा दी। ऐसा कि तमाम मदीने में कीचड़ हो गई।” (मशारिक-उल-अनवार सफ्ह 1042)
पस आँहज़रत की वफ़ात से सिर्फ सात (7) साल पहले 4 हिजरी में जब आपकी उम्र छप्पन (56) साल की थी शराब हराम हुई और ममनू’ हुई।
(3)
लेकिन ये क़ुर्आनी हुक्म भी मुसलमानों के लिए ही वाजिब-उल-इता’अत था इस का इतलाक़ ना तो यहूदियों और ना मसीहियों पर हो सकता था। पस हम मौलवी साहब से पूछते हैं कि बफ़र्ज़ मुहाल जो शै हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने बनाई वो “शराब” और “नशा आवर पानी” था। आप किस इख़्तियार से एक ऐसे हुक्म का इतलाक़ (जो आँख़ुदावंद से सवा छः सौ साल बाद और वो भी अहले-अरब के लिए आया हो) आँख़ुदावंद पर करके उनको मौरिद-ए-इल्ज़ाम गर्दान सकते हैं? क्या आपको ये मजाल है कि आप उन जय्यद सहाबा को मुजरिम गर्दानें जो इस कस्रत से शराब पीते थे कि उनके बर्तन तोड़ने से “तमाम मदीने में कीचड़” हो गई। और जो नमाज़ में बहक कर ऐसी बातें कह जाते थे जो “तौहीद के भी ख़िलाफ़” होतीं? आप उनको बरी-उज़्ज़िम्मा क़रार देंगे क्योंकि उनके अफ़’आल शरई हुक्म से ज़रा पहले के थे। लेकिन अब दो हज़ार साल के बाद अमृतसर के दारुल-इफ्ताह से मौलवी सना-उल्लाह साहब एक ऐसे शख़्स पर फ़त्वा सादिर करके उस को मौरिद-ए-इल्ज़ाम गिर्दान्ते हैं जो इस शर’ई हुक्म से साढे़ छः सदियां क़ब्ल दुनिया में पैदा हुए थे। और जिन पर सल’अब-ए-शरी’अत होने की वजह से ये शरई हुक्म आइद भी नहीं हो सकता।
जो चाहे आपका हुस्न करिश्मा-साज़ करे
(4)
अमृतसर के ये मुफ़्ती साहब “ना तो क़ुर्आन को इस त’अम्मुक़ और तदब्बुर से पढ़ते हैं जिसका वो हक़दार है।” (सफ़ा 149) और ना वो कमा-हक़्क़ा हदीसों से वाक़िफ़ हैं। अगर आप बुख़ारी शरीफ़ को ही जानते जो क़ुर्आन के बाद असाह-अल-कुतुब शुमार की जाती है तो आप पर ये ज़ाहिर हो जाता कि इस्लाम में “अंगूरी शराब” हराम नहीं है। चुनान्चे बुख़ारी में है कि :-
“अब्दुल्लाह बिन उमर कहते हैं कि जब शराब की हुर्मत की आयत नाज़िल हुई। उस वक़्त पाँच क़िस्म की शराबें थीं जिनमें शराब-ए-अंगूरी ना थी।” (बुख़ारी जिल्द दोम सफ्ह 287 मुतर्जमा मिर्ज़ा हैरत देहलवी मत्बू’आ कर्ज़न प्रैस दिली 1323 ई॰)
توبرادج فلک چہ دانی چیست گرندانی کہ درسرائے توکیست؟
इस हदीस से तो आप का रहा सहा आख़िरी सहारा भी गिर गया। हमने सुतूर बाला में साबित कर दिया है कि जो शै हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने बनाई वो “अवीनोस” (اوینوس) यानी अंगूर का रस था। लेकिन बफ़र्ज़ मुहाल अगर आपके दा’वे को एक लम्हे के लिए तस्लीम भी कर लिया जाये कि वो शै अंगूरी “शराब” थी तो आप किस मूसवी या ईस्वी या इस्लामी हुक्म के मातहत हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) को मुजरिम गर्दान सकते हैं।
जब मौलवी साहब मौलवी हो कर क़ुर्आन की हक़ीक़त और हदीस के इल्म से इस क़द्र बेगाना हैं तो हम किस तरह उनसे ये उम्मीद रख सकते हैं कि वो किताब-ए-मुक़द्दस का “तदब्बुर और ग़ौर” से मुताल’आ करेंगे?
توبیرون درچہ کردی کہ درون خانہ آئی
(5)
अगर मौलवी साहब ने कभी तौरात और ज़बूर का मुताल’आ किया होता तो उन पर ये वाज़ेह हो जाता कि “अवीनोस” (اوینوس) जिसका तर्जुमा उर्दू इन्जील में मै किया गया है और जो आँख़ुदावंद ने एजाज़ी तौर बनाई। वो एक ऐसी शै थी जिसको ख़ुदा की ने’मतों में शुमार किया जाता था। (ज़बूर 104:15 वग़ैरह) मूसवी शरी’अत के हुक्म के मुताबिक़ अंगूर का रस ना सिर्फ रोज़ाना क़ुर्बानी के साथ ख़ुदा के हुज़ूर नज़र गुज़राना जाता था (ख़ुरूज 29:40) बल्कि दीगर क़ुर्बानियों और तपावनों के साथ भी चढ़ाया जाता था। (गिनती 15:5, 28:7, 14 वग़ैरह) और जिस तरह अनाज और तेल और पहले फलों और दीगर पैदावार की दहयकी शरी’अत के हुक्म के मुताबिक़ दी जाती थी उसी तरह कोल्हों के रस की दहयकी देने का भी मूसवी शरी’अत में हुक्म था। (ख़ुरूज 23:39, इस्तस्ना 18:4, गिनती 18:122 तवारीख़ 31:5, नहमियाह 13:12, 10:38, 39) पस ये शै पाक, तय्यब और रिज़कन हस्नन (رزقاً حسناً) में शुमार की जाती थी। लेकिन “शराब” यानी “नशा आवर पानी” ममनू’ था। (अहबार 10:9, यस’अयाह 5:11, 22, 28:7 होसे’अ 4:11. अम्साल 20:1, 23:29, 31:4 वग़ैरह)
(6)
अगर मो’तरिज़ ने इन्जील जलील का सतही मुताल’आ भी किया होता तो इस पर वाज़ेह हो जाता कि अहले-यहूद हलाल और हराम के सवाल के मुताल्लिक़ ना सिर्फ तौरात शरीफ़ के अहकाम पर सख़्ती से अमल करते थे। बल्कि अपने फुक़हा की तक़्लीद और रब्बियों की तालीम की पैरवी करके हिल्लत व हुर्मत के मुआमले में निहायत ग़ुलू से काम लेते थे इसी वजह से फ़रीसी और अहले-फ़िक़्ह कलिमतुल्लाह (मसीह) के ख़ून के प्यासे हो गए थे। क्योंकि आपकी ग़ाइर नज़र ज़ाहिरी और रस्मी नापाकी पर नहीं बल्कि अंदरूनी बातिनी और रजानी नापाकी पर थी। चुनान्चे लिखा है “फ़रीसी और सब यहूदी बुज़ुर्गों की रिवायत क़ायम रहने के सबब से जब तक ग़ुस्ल ना करलें नहीं खाते थे” मबादा वो किसी हराम शै या नापाक शख़्स को छू गए हों। “और बहुत सी और बातें जो क़ायम रखने के लिए बुज़ुर्गों से उनको मिलीं। मसलन पियालों और लोटों और ताँबे के बर्तनों को धोना” वग़ैरह पर निहायत सख़्ती से अमल-दर-आमद करते थे। (मर्क़ुस 2:3 ता 5) हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) इस क़िस्म की तक़्लीद करने वालों को मलामत करके फ़र्माते :-
14 पस मौलवी साहब की तवज्जोह किताब हफ्वात-उल-मुस्लिमीन के सफ्ह 62 और किताब तादीब अल-मजातीन हिस्सा अव्वल सफ्ह 32 व सफ्ह 6855, 115 ता 118, 147 की मुन्दर्जा हदीसों की तरफ मब्जूल करने पर इक्तिफा करते हैं। عاقل را شاد کافی است (बरकत-उल्लाह)
“ऐ फरीसियों तुम प्याले और रकाबी को ऊपर से तो साफ़ करते हो। लेकिन तुम्हारे अन्दर गंदगी और लूट भरी है। ऐ नादानो, जिसने बाहर को बनाया क्या उसने अन्दर को नहीं बनाया? पहले बातिन की चीज़ों को साफ़ करो। तो देखो सब कुछ तुम्हारे लिए पाक होगा?” (लूक़ा 11:39 ता 41)
फिर फ़रमाया :-
“ऐ फरीसियों और फ़क़ीहो। तुम अपने बुज़ुर्गों और इमामों की रिवायत को क़ायम रखने में इस क़द्र मुबालगे से काम लेते हो कि ख़ुदा के कलाम को बातिल कर देने में तुमको ज़रा ताम्मुल नहीं होता। यस’अयाह नबी ने तुम्हारे हक़ में क्या ख़ूब नबुव्वत की है कि ये उम्मत ज़बान से तो मेरी इज़्ज़त करती है लेकिन उनका दिल मुझसे दूर है। और यह बेफ़ाइदा मेरी परस्तिश करते हैं। क्योंकि इन्सानी अहकाम की तालीम देते हैं।”
ये फ़र्मा कर कलिमतुल्लाह ने अवाम को पास बुला कर उन से कहा :-
“सुनो और समझो जो चीज़ मुँह में जाती है वो इन्सान को नापाक नहीं करती बल्कि जो मुँह से निकलती है वही आदमी को नापाक करती है। क्योंकि जो कुछ मुँह में जाता है वो पेट में पड़ता है और मज़बला में फेंका जाता है। मगर जो बातें मुँह से निकलती हैं वो दिल से निकलती हैं और वही इन्सान को नापाक भी करती हैं। मसलन बुरे ख़याल, ख़ूँ-रेज़ियाँ, ज़िनाकारीयाँ, हराम कारियां, चोरियां, झूटी गवाहियाँ, लालच, बदियाँ, मक्र, शहवत परस्ती, बद-नज़री, बदगोई, शेख़ी वग़ैरह दिल ही से निकलती हैं जो आदमी को नापाक करती हैं।” (मत्ती 15 बाब, मर्क़ुस 7 बाब)
इन्जील नवीस मज़्कूर बाला वाक़िया को लिख कर कहता है :-
“ये फ़रमाकर उसने तमाम खाने की चीज़ों को पाक ठहराया।” (मर्क़ुस 7:19)
फ़रीसी भी आँख़ुदावंद के अक़्वाल से यही समझे और वो बिगड़ गए। चुनान्चे हवारियों ने आँख़ुदावंद से कहा :-
“क्या आपको मालूम है कि फ़रीसियों ने आपकी बात सुनकर ठोकर खाई है। आपने जवाब में फ़रमाया कि जो पौदा मेरे आस्मानी बाप ने नहीं लगाया वो जड़ से उखाड़ा जाएगा। इन फ़रीसियों को जाने दो वो अंधे राहनुमा हैं। अगर अंधे को अंधा राह बतायेगा तो वो दोनों गढ़े में गिरेंगे।” (मत्ती 15:12 ता 14)
कलिमतुल्लाह (मसीह) का मतलब ये था कि फ़ी-नफ्सिही खाने पीने की चीज़ें हलाल और हराम या पाक और नापाक नहीं। बैरूनी पाकीज़गी और बातिनी पाकीज़गी दो अलग और जुदागाना चीज़ें हैं। और ज़ाहिरी पाकीज़गी का ताल्लुक़ रुहानी पाकी के साथ नहीं। ये लाज़िम नहीं आता कि अगर कोई शख़्स हलाल अश्या ही खाता है तो वो बातिन में भी नेक हो। हराम शै का खाना और बदी के काम करना लाज़िम व लज़ूम नहीं। ये दर-हक़ीक़त क़ुर्आनी आया की असली इन्जील तफ़्सीर है जिसमें हज़रत ईसा अहले-यहूद को मुख़ातिब करके फ़र्माते हैं :-
وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرَاةِ وَلِأُحِلَّ لَكُم بَعْضَ الَّذِي حُرِّمَ عَلَيْكُمْ وَجِئْتُكُم بِآيَةٍ مِّن رَّبِّكُمْ فَاتَّقُواْ اللّهَ وَأَطِيعُونِ
यानी “मैं तौरात की जो मुझसे पहले है तस्दीक़ करता हूँ और बा’ज़ अश्या जो तुम पर हराम थीं उनको हलाल करता हूँ और तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से निशान लेकर आया हूँ। पस अल्लाह से डरो और मेरा हुक्म मानो।” (इमरान 50)
हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के उसूल पर अमल करके आपके रसूलों और हवारियों ने यही तालीम दी :-
“और मुझे यक़ीन है कि कोई चीज़ बज़ाता हराम नहीं।..... ख़ुदा की बादशाही खाने पीने पर मौक़ूफ़ नहीं बल्कि रास्तबाज़ी, मुहब्बत, इत्तिफ़ाक़ और उस ख़ुशी पर मौक़ूफ़ है। जो रूह-उल-क़ुद्स की तरफ़ से होती है और जो कोई इस तौर से मसीह की ख़िदमत करता है। वो ख़ुदा का पसंदीदा और आदमियों का मक़्बूल है।” (रोमियों 14:14 ता 18)
“ख़ुदा की पैदा की हुई हर चीज़ अच्छी है और कोई चीज़ इन्कार के लायक़ नहीं बशर्ते के शुक्रगुज़ारी के साथ खाई जाये। इसलिए कि ख़ुदा के कलाम और दुआ से पाक हो जाती है।” (1 तीमुथियुस 4:4)
मुक़द्दस पौलूस ने इस हिल्लत व हुर्मत (हलाल हराम) के उसूल को भी कलिमतुल्लाह (मसीह) के आलमगीर और जामे’अ् उसूल यानी मुहब्बत के उसूल के मातहत करके इर्शाद फ़रमाया :-
“आपस की मुहब्बत के सिवा किसी चीज़ में किसी के कर्ज़दार ना रहो। क्योंकि जो दूसरे से मुहब्बत रखता है उसने शरी’अत पर पूरा अमल किया। क्योंकि तमाम शर’ई अहकाम का ख़ुलासा इस बात में पाया जाता है कि अपने पड़ोसी से अपनी मानिंद मुहब्बत रख। मुहब्बत शरी’अत की तक्मील है। मुझे मालूम है कि बल्कि सय्यदना मसीह में मुझे यक़ीन है कि कोई चीज़ बज़ाता हराम नहीं लेकिन जो इस को हराम समझता है उस के लिए हराम है। अगर तेरे भाई को तेरे खाने से रंज पहुंचता है तो फिर तू मुहब्बत के क़ाएदे पर नहीं चलता। खाने की ख़ातिर ख़ुदा के काम को मत बिगाड़। हर चीज़ पाक तो है मगर उस आदमी के लिए बुरी है जिसको उस के खाने से ठोकर लगती है। मुबारक वो है जो इस चीज़ के सबब से जिसको वो जायज़ रखता है अपने आपको मुल्ज़िम नहीं ठहराता।” (रोमियों 13, 14 बाब)
पस इन्जील जलील के उसूल के मुताबिक़ अंगूर का रस्मे, सुक्र, शराब, वग़ैरह फ़ी-नफ्सिही हराम नहीं। किसी शै का हलाल या हराम होना उस के इस्तिमाल पर मौक़ूफ़ है। यानी इस बात पर कि उस के इस्तिमाल से इस्तिमाल करने वाले की अपनी या किसी दूसरे की रुहानी पाकीज़गी और बातिनी नश्वो नुमा पर असर पड़े और किसी दूसरे शख़्स को इस के इस्तिमाल से ना ठोकर लगे और ना रंज पहुंचे। इस उसूल के मातहत अगर अंगूर का रस या मै या सुक्र या शराब या नशा आवर पानी पीने से कोई शख़्स बहकी बातें करता है तो मतवाला हो जाता है तो दूसरों के लिए ठोकर का बाइस हो जाता है।
مے کہ بدنام کند اہل خردار۔ غلوا است
بلکہ خود مے شوداز صحبت نادان بدنام
(7)
इन्जील जलील में शराबनोशी और मै खोरी नशेबाज़ी वग़ैरह को पीने वालों की बे-एतिदालियों की वजह से ममनू’ क़रार दिया गया है। (1 पतरस 4:13) क्योंकि अगर इस का इस्तिमाल हद-ए-तजावुज़ कर जाये तो बातिन की पाकीज़गी पर असर पड़ता है। चुनान्चे कलिमतुल्लाह (मसीह) ने फ़रमाया “पस ख़बरदार रहो। ऐसा ना हो कि तुम्हारे दिल ख़ुमार और नशे बाज़ी से सुस्त हो जाएं।” (लूक़ा 21:34) और मुक़द्दस पौलूस भी फ़रमाता है कि हम तारीकी के कामों को छोड़कर रोशनी के हथियार बांध लें। जैसा दिन को शायां है शाइस्तगी से चलें। ना कि नाच रंग और नशे बाज़ी से ना ज़िनाकारी और शहवत परस्ती से और ना झगड़े और हसद से बल्कि सय्यदना मसीह को पहन लो और जिस्म की ख़्वाहिशों के लिए तदबीरें ना करो।” (रोमियों 13:12 ता 14) फिर पुर ज़ोर अल्फ़ाज़ में इर्शाद होता है “क्या तुम नहीं जानते कि बदकार ख़ुदा की बादशाही के वारिस ना होंगे। फ़रेब ना खाओ, ना हरामकार ख़ुदा की बादशाही के वारिस होंगे, ना बुत-परस्त ना ज़िनाकार, ना अय्याश, ना लौंडेबाज़, ना चोर, ना लालची, ना शराबी ना गालियां बकने वाले। ना ज़ालिम।” (1 कुरिन्थियों 6:9) फिर ताकीद कर के फ़रमाता है कि “मैं ये कहता हूँ कि रूह के मुवाफ़िक़ चलो तो जिस्म की ख़्वाहिश को पूरा ना कर सकोगे जिस्म के काम ज़ाहिर हैं यानी हरामकारी नापाकी, शहवत परस्ती, बुत- परस्ती, जादूगरी, अदावतें, झगड़ा, हसद, ग़ुस्सा, तफ़रक़े, जुदाइयाँ, बिद्’अतें, बुग़्ज़, नशे बाज़ी, नाच रंग वग़ैरह। जो मसीह येसू के हैं उन्होंने जिस्म को उस की रग़बतों और ख़्वाहिशों समेत सलीब पर खींच दिया है।” (ग़लतियों 5:16 ता 24) रसूल मक़्बूल शराबनोशी, और नशे बाज़ी की मुमानि’अत पर इस क़द्र इसरार करता है कि वो फ़रमाता है कि शरीर शराबी को बिरादरी से ख़ारिज कर दिया जाये। चुनान्चे इर्शाद होता है “अगर कोई भाई कहला कर हराम कारिया लालची या शराबी या ज़ालिम हो तो उस से सोहबत ना रखो। बल्कि ऐसे के साथ खाना तक ना खाना।” (1 कुरिन्थियों 5:11 ता 13) लेकिन ये बात याद रखने के क़ाबिल है कि इन्जील जलील में ना ख़ुद कलिमतुल्लाह (मसीह) ने और ना आपके रसूलों ने अंगूर के रस को फ़ी-नफ्सिही हराम क़रार दिया। चुनान्चे मुक़द्दस पौलूस का एक मुबल्लिग़ तीमुथियुस ऐन आलम-ए-शबाब में (1 तीमुथियुस 4:13) जिस्मानी रियाज़त की वजह से सख़्त नहीफ़ और लाग़र हो गया था। (4:8) इस को रसूल मक़्बूल ने हुक्म लिख भेजा कि “आइन्दा को सिर्फ पानी ही ना पिया कर बल्कि अपने मे’अदा और अक्सर कमज़ोर रहने की वजह से ज़रा सा अंगूर का रस भी काम में लाया कर।” (5:23)
हमने दीदा दानिस्ता इस मज़्मून को तूल दिया है। ताकि मो’तरज़ीन इस बह्स के मुख़्तलिफ़ पहलूओं से बख़ूबी वाक़िफ़ हो कर हवाई एतराज़ करने से मुहतरिज़ रहें। इस क़िस्म के एतराज़ करके वो मसीहियत का कुछ बिगाड़ नहीं सकते। हाँ वो अल्लाह और उस के रसूल पर जो उस का कलमा और रूह है बोहतान लगा कर अमली तौर पर क़ुर्आन व इस्लाम के उसूलों का इन्कार करते हैं जिसकी मौलवी साहब की किताब एक जीती-जागती ज़िंदा गवाह है।
हमने इतमाम-ए-हुज्जत की ख़ातिर हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के कलमात-ए-तय्यिबात और इन्जील जलील की आयात की रोशनी में इस मौज़ू पर बह्स की है। ताकि मुसलमान मो’तरज़ीन अपने कुफ़्र से बाज़ आकर तौबा करें और हमें उम्मीद है कि हर नेक नीयत मो’तरिज़ को हमारे जवाब से तश्फ़ी हासिल हो गई होगी।
चौथा एतराज़ : क्या मज्लिस बादाख़ोरी
(शराबियों) की थी?
एतराज़ का रंग
मौलवी सना-उल्लाह साहब इन्जील यूहन्ना की 2:4 की तरफ़ इशारा करके मुन्जी आलमीन सय्यदना मसीह के ख़िलाफ़ यूं ज़हर चुकानी करते हैं (नक़्ल कुफ्र कुफ़्र ना बाशद),
“पादरी बरकत-उल्लाह साहब की तरफ़ से ये उज़्र हो सकता है कि वो मज्लिस शराबखोरी की थी इसलिए उस के असर से अगर ये फ़िक़्रह मुँह से निकल गया हो तो क़ाबिल दरगुज़र है। शेख़ सादी ने भी इसी लिए कहा है :-
"محتسب گرمے خورد معذوردار مست را" (सफ़ा 148)
नाज़रीन मौलवी साहब के अल्फ़ाज़ को पढ़ें और देखें कि आपने किस होशियारी से ये एतराज़ किया है कि मज्लिस शराबखोरी की थी। मसीह शराब पी कर मतवाले थे। और उस के असर से बहकी बातें कर गए और माँ की बे-अदबी भरी मज्लिस में कर दी। एतराज़ ऐसे पैराये में किया गया है कि अगर मोमिन मुसलमान कहे कि तुमने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) की तौहीन की है कि तो कुफ़्र व ईमान का संजोग करने वाला मो’तरिज़ अपनी बरीयत में कह दे कि मैंने हज़रत मसीह की ज़ात पर हमला नहीं किया। मैंने जुम्ला शर्तिया का इस्तिमाल करके सिर्फ मसीहियों की तरफ़ से एक उज़्र पेश किया है।
برکفے جام ِ شریعت برکفے سندان عشق
ہرہو سنا کے نداندجام وسندان یافتین
लेकिन अख़्बार अहले-हदीस में तो मौलवी आँजहानी खुले तौर पर नंगे अल्फ़ाज़ में कहते हैं :-
“मसीह से ये गुनाह सरज़द हुआ कि वो शराब की मज्लिस में हाज़िर हुआ।” (अख़्बार अहले-हदीस 26 दिसंबर 1941 ई॰)
ख़लीफ़ा क़ादियान मुबारकबादी के मुस्तहिक़ हैं कि उनके कट्टर मुख़ालिफ़ उनके बाप की कासालेसी करते हैं और उन्हों ने इस ख़ास एतराज़ के दोहराने में क़ादियान के आगे ज़नवाए शागिर्दी ता किया है। मिर्ज़ा साहब (غفر الله ذنوبہ) ने अहले-यहूद की पैरवी करके (लूक़ा 7:33 ता 35) कलिमतुल्लाह (मसीह) पर यही बोहतान बाँधा था। हक़ तो ये है कि मसीहियत की दुश्मनी में इन मुख़ालिफ़ीन को अपने पराए की होश नहीं रही। और वो इस्लाम के एक उलूल-अज़्म पैग़म्बर पर बे-बाकाना हमले कर रहे हैं।
दिल के फफ़ोले जल उठे सीने के दाग़ से
इस घर को आग लग गई घर के चिराग़ से
कलिमतुल्लाह (मसीह) क्या खाते पीते थे?
हज़रत कलिमतुल्लाह एक ग़रीब बढ़ई के ख़ानदान में पैदा हुए। (मर्क़ुस 6:3, लूक़ा 2:24) लिहाज़ा आप वही खाते पीते थे। जो ग़रीब तब्क़े के मेहनती और जफ़ाकश लोग रोज़ाना मज़दूरी (मत्ती 20:10) खाकर “रोज़ की रोटी” (मत्ती 16:11, 34) खाते थे। (मत्ती 10:9, 6:28 ता 31) जब आप इस दुनिया में पैदा हुए तो आप ऐसी जगह पैदा हुए। जहां ना कोई मकान था और ना कोई छत थी। (लूक़ा 2:7) आपके इफ़्लास (ग़रीबी) का ये आलम था कि आपने फ़रमाया “लोमड़ियों के भट्ट होते हैं और हवा के परिंदों के घोंसले मगर इब्ने-आदम के लिए सर धरने की भी जगह नहीं।” (लूक़ा 9:58) पस आपका खाना पीना और तर्ज़-ए-रिहाइश वही थी जो मुफ़्लिस और ग़रीब तब्क़े के लोगों की थी।
गुज़श्ता बाब में हम ज़िक्र कर चुके हैं कि अहले-यहूद रोटी के साथ अंगूर का रस बईना इस तरह पीते थे जिस तरह पंजाब के गुरबा रोटी के साथ गुड़ का शर्बत या छाछ पीते हैं। पस आँख़ुदावंद भी दीगर गुरबा की तरह सादा रोटी खाते थे और रोटी के बाद सादा पानी पीते थे। (यूहन्ना 3:7) या अंगूर का रस पीते थे। (लूक़ा 7:34) और ईद त्यौहार के रोज़ आप रोटी के बाद (लूक़ा 22:20) “अंगूर का शीरा” पिया करते थे जो शहद की क़िस्म का होता था। (मत्ती 26:29, मर्क़ुस 14:25, लूक़ा 22:28) मो’तरज़ीन शीरे पर तो एतराज़ भी नहीं कर सकते क्योंकि हदीस में आया है कि हज़रत ने फ़रमाया :-
“जो तुम में से कोई शीरा पिए तो चाहिए कि अकेली का पिए। ख़्वाह सिर्फ़ मनक़े का ख़्वाह सिर्फ़ पक्की खजूर का ख़्वाह फ़क़त गदर खजूर का ये हदीस हज़रत ने इस वास्ते फ़रमाई क्योंकि शराब के हराम होने के बाद अरब खजूर को चूर करके भिगो रखते और इस का शीरा पीते थे जिसको नबीद कहते थे।” (मशारिक़-उल-अनवार नम्बर 101)
आँख़ुदावंद अंगूर के रस और शीरे को ख़ुदा की अता कर्दा ने’मत समझ कर पीते और ख़ुदा का शुक्र बजा लाते। (ज़बूर 104:5, लूक़ा 22:5)
इन्जील जलील का एक एक वर्क़ छान मारो चारों इंजीलों की एक एक आयत की बाल खाल निकालो (सफ़ा 51) तो आपको कहीं ना मिलेगा कि हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने पानी या अंगूर के रस या अंगूर के शीरे के इलावा कभी “नशा आवर पानी” पिया हो हम ऊपर बतला चुके हैं। कुतुब-ए-अह्दे-अतीक़ में जो चीज़ें अंगूर से मिलती हैं उनके नौ मुख़्तलिफ़ नाम हैं। कुतुब अहदे-जदीद से ज़ाहिर है कि आँख़ुदावंद अंगूर के रस और शीरे के सिवा बाक़ी तमाम चीज़ें अज़ क़िस्म सुक्र, तेरोश, ख़मरा वग़ैरह कभी ज़बान पर ना लाए। आपके परहेज़ का ये आलम था कि जब आप सलीब पर लटकाए गए तो जो शै अज़ क़िस्म शराब मस्लूबों को पिलाई जाती थी ताकि उनको अज़ियत का एहसास कम हो जब वो आपके पेश की गई (लूक़ा 23:36) तो आपने वो भी ना पी। (मत्ती 27:34)
(2)
मौलवी सना-उल्लाह साहब की दरीदा दहिनी मुलाहिज़ा हो। आप ख़ुदा के क़ुद्दूस (मर्क़ुस 1:24) पर बोहतान लगाने से ज़रा नहीं झिजके। क्या मौलवी साहब इन्जील जलील के किसी एक मुक़ाम से भी ये बतला सकते हैं कि किसी शख़्स ने किसी वक़्त भी मसीह को मख़मूर देखा हो या “शराब के असर से” बदमस्त हो कर लड़खड़ाते या बहकी बातें करते पाया हो? क्या ये बात क़ुर्आन में कहीं दर्ज है। या रसूल अरबी से किसी हदीस में आई है? पस जब ये बात ना इन्जील में ना क़ुर्आन व हदीस में किसी जगह मौजूद है तो आपको क्या हक़ हासिल है कि आप एक ऐसी शर्मनाक पोज़ीशन इख़्तियार करें जो मसीहियों और मुसलमानों दोनों के नज़्दीक कुफ्र है? क्या आप दायरे इस्लाम में रह कर मसीहियों का मुक़ाबला नहीं कर सकते जो आपको ये ज़रूरत पड़ी कि क़ुर्आन व हदीस को बमिस्दाक़ क़ुर्आनी आया وراء ظھور ہم पीठ पीछे फेंक क़ादियान को अपना क़िब्ला बना कर यहूद के हम ज़बान हो कर आपने وجیھا فی الدنیا والاخرة पर ऐसा नापाक बोहतान लगाया जो श’ऊर-ए-इन्सानी से भी ख़ाली है।
شدہ گفتی ہمہ چیرہ بمغزش علت سودا
क़ुरैश हज़रत-ए-रसूल अरबी पर बोहतान तराज़ी करते थे। और उनको जादूगर कहते थे। (अह्क़ाफ़ 6 वग़ैरह) लेकिन उनके इस बोहतान की बिना पर कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स आँहज़रत को जादूगर क़रार नहीं देगा। इसी तरह अहले-यहूद कलिमतुल्लाह (मसीह) पर बोहतान लगाते थे क्योंकि वो बअल्फ़ाज़ क़ुर्आन “क़सी-उल-क़ल्ब” थे। वो अल्लाह के हर नबी और फ़िरिस्तादा रसूल पर बोहतान लगाते और सताते और क़त्ल करते थे। (मत्ती 23:31 ता 38) चुनान्चे हज़रत यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले पर ये इल्ज़ाम लगाते थे कि “ये ना रोटी खाता है और ना अंगूर का रस पीता है पस इस में बदरुह है।” (लूक़ा 7:33) हक़ीक़त ये थी कि हज़रत यूहन्ना की निस्बत अल्लाह ने फ़रिश्ते की मा’र्फ़त फ़रमाया था कि वो अंगूर का रस और ना कोई शराब पिएगा। (लूक़ा 1:15, गिनती 6:3) इस इलाही फ़र्मान के मुताबिक़ हज़रत यूहन्ना ना सिर्फ अंगूर का रस पीने से अहितराज़ करते थे बल्कि रोटी तक नहीं खाते थे। इन चीज़ों की बजाए आपकी खूराक “टिड्डियां और जंगली शहद था।” (मत्ती 3:4) जो हलाल अश्या थीं। (अहबार 11:22, 1 शमुएल 14:25 ता 30 वग़ैरह) क़ुर्आन में इसी वास्ते हज़रत यूहन्ना की निस्बत आया है कि :-
أَنَّ اللّهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحْيَـى مُصَدِّقًا بِكَلِمَةٍ مِّنَ اللّهِ وَسَيِّدًا وَحَصُورًا وَنَبِيًّا مِّنَ الصَّالِحِينَ
“तहक़ीक़ अल्लाह बशारत देता है। तुझको यहया की जो कलिमतुल्लाह की तस्दीक़ करने वाला होगा और सरदार होगा। और औरतों की तरफ़ से अपने नफ़्स को रोकने वाला होगा। और नबी भी होगा और सालिहों में से होगा।” (आले-इमरान आयत 34)
पस हज़रत यूहन्ना खूराक वग़ैरह तमाम जाइज़ लज़्ज़तों से अपने नफ़्स को रोकने वाले थे। लिहाज़ा यहूद कहते थे कि ये पागल है इस में बदरुह है। (लूक़ा 7:33) लेकिन मुन्जी आलमीन (मसीह) रोटी और अंगूर का रस ख़ुदा की अता कर्दा ने’मत समझ कर खाते पीते थे और यहूद उन पर ये बोहतान लगाते कि “ये खाऊ और शराबी है” यानी हद-ए-एतिदाल से ज़्यादा खाता पीता है। (लूक़ा 7:34) आँख़ुदावंद ने यहूद के दोनों बोहतानों का जवाब देकर फ़रमाया कि “हिक्मत अपने कामों से रास्त साबित हुई।” (मत्ती 11:19) यानी सब हिक्मत पसंद शख़्स जानते हैं कि ना यूहन्ना पागल था और ना मैं खाने पीने के मुआमले में हद एतिदाल से तजावुज़ करता हूँ। हज़रत यूहन्ना रोटी ना खाने और अंगूर का रस ना पीने और रियाज़त की ज़िंदगी बसर करने की वजह से पागल क़रार नहीं दिए जा सकते। और मैं रोटी खाने और अंगूर का रस पीने की वजह से “पेटू और “शराबी” क़रार नहीं दिया जा सकता। बल्कि हम दोनों के ओहदे नबुव्वत और तब्लीग़ के नताइज ये वाज़ेह कर देते हैं कि हम दोनों के तरीक़े-कार अपनी-अपनी जगह दुरुस्त और “रास्त” हैं। (लूक़ा 7:35) इसी तरह छः सौ (600) साल बाद क़ुर्आन में भी यहूद के नापाक बोहतानों को ख़ास तौर पर रद्द ठहराया गया। और वो ना हलफ़ और यहूद सुम्मुन-बुकमन ख़ामोश रह गए।
मिर्ज़ाए क़ादियानी (غفر الله ذنوبہ) की ये आदत थी कि आप अहले-यहूद के बोहतानों को चटख़ारे लेकर और नमक मिर्च लगाकर दोहराया करते थे। पचास साल के क़रीब हुए सुल्तान-उल-मुनाज़रीन हज़रत अकबर मसीह साहब ने मर्हूम आँजहानी मिर्ज़ा जी की हज़िल्लीयात का मुस्कित जवाब “ज़रबते ईस्वी” में दिया। जिसके जवाब में क़ादियान से सदाए-बरनख़ासत। इस क़िस्म के मुसलमान मो’तरज़ीन ने क़ुर्आन को पसे पुश्त फेंक दिया दायरा इस्लाम से बाहर निकल, अल्लाह के बजाए अहले-क़ादियान को अर्बाब मिन दुनील्लाह (ارباب من دون الله) मान और किताब अल्लाह के बजाए मिर्ज़ा जी की तहरीरात को हिर्ज़ जान बना लिया है। और आप दो हज़ार बरस के मुर्दे आज उखेड़ कर मुल्क की मज़्हबी फ़िज़ा को मिक़दार और मुतअफ़्फ़िन कर रहे हैं। और ये गोरकनी माया नाज़ समझी जा रही है। हक़ तो ये है कि ऐसे मुनाज़िरीन के रंग-ए-मुबाहिसे ने इल्म-ए-मुनाज़रे को उस की बुलंदियों और लताफ़तों से महरूम करके कसाफ़त और गंदगी में आलूदा कर दिया है।
फिरे ज़माना फिरे आस्मान हवा फिर जा
बुतों से हम ना फिरें हमसे गो ख़ुदा फिर जा
(3)
हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) फ़र्माते हैं कि आप खाने पीने में एतिदाल से काम लेते थे। (मत्ती 11:19) और इसी क़िस्म की मियानारवी की जानिब क़ुर्आन मुसलमानों को हिदायत करता है जब वो कहता है कि, اعد لوھو قرب اللتقوی यानी “एतिदाल को काम में लाओ। क्योंकि वो तक़वे के क़रीब है।” मुन्जी आलमीन (मसीह) ख़ुदा की हर पैदा-कर्दा शै को زقا حسناً तसव्वुर करके उस का मो’तदिल इस्तिमाल जायज़ समझते थे। यही वजह है कि आपका रवय्या हज़रत यूहन्ना का सा ना था। ना आप तपसी राहिब थे और ना ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क। जब आप किसी जगह मद’ऊ किए जाते तो आपको हर कदमा के घर तशरीफ़ ले जाते (लूक़ा 7:36, 14:1, मत्ती 9:10, यूहन्ना 2:1 वग़ैरह) और उन की ख़ुशी और ज़ियाफ़त में शरीक होते। आप ख़ुशी करने वालों के साथ ख़ुशी करते और मातम करने वालों के साथ रोते। (यूहन्ना 11:32 ता 37) वग़ैरह और यूं आपने दीगर इन्सानों की सी ज़िंदगी बसर की।
ख़ुदा ने जो मुकाशफ़ा हमको मसीह में बख़्शा है वो तपस और रहबानियत का नहीं बल्कि ऐसा है जिस से हर इन्सान अपनी सादा ज़िंदगी फ़ित्रत के मुताबिक़ बसर कर सकता है। कलिमतुल्लाह (मसीह) की तालीम में ज़ब्त (क़ाबू) और ईसार नफ़्स की तल्क़ीन की गई है। (लूक़ा 19:23, मर्क़ुस 8:33 ता 37 वग़ैरह) लेकिन आपने दिल और बातिन की पाकी को कभी तपस और जिस्मानी रियाज़त के मुतरादिफ़ क़रार ना दिया। यही वजह है कि मसीहियत के लिए रह्बानियत कोई ज़रूरी और लाज़िमी शर्त नहीं। लेकिन मो’तरिज़ अपने जोश-ए-एतराज़ में हक़ाइक़ की तरफ़ से अग़राज़ करके एक तरफ़ तो मसीह और मसीहियत पर रह्बानियत का इल्ज़ाम लगाते हैं और दूसरी तरफ़ मसीह को शराबी और नशे बाज़ बतलाते हैं!
उल्टी समझ किसी को भी ऐसी ख़ुदा ना दे
शादी की महफ़िल या शराबखोरी की मज्लिस
मौलवी साहब कहते हैं कि वो “मज्लिस शराबखोरी की थी” वाल्लाहू आलम उनके पास इस दा’वे के लिए क्या सनद है। इन्जील जलील में तो साफ़ लिखा है कि “तीसरे दिन क़ाना-ए-गलील में एक शादी थी। और येसू और उस के शागिर्दों की भी इस शादी में दा’वत थी।” (यूहन्ना 2:1 ता 2) पस ये महफ़िल शादी की महफ़िल थी जिसमें मुक़द्दसा मर्यम बीबी और कलिमतुल्लाह (मसीह) की सी मुक़द्दस हस्तियाँ मद’ऊ थीं ऐसी महफ़िल को “मज्लिस शराबखोरी” क़रार देना जहां अरबाब-ए-नशात का झुरमुट लगा हो पर ले दर्जे की क़सादत्त क़ल्बी नहीं तो और क्या है? इस क़िस्म के एतराज़ात ज़ाहिर करते हैं कि आपकी क़ादियान से मिली भगत है।
आपको ये ख़याल ना आया कि आप ऐसी शख़्सियतों पर एतराज़ कर रहे हैं जिनकी निस्बत क़ुर्आन में आया है कि :-
وِإِنِّي أُعِيذُهَا بِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ الشَّيْطَانِ الرَّجِيمِ فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُولٍ حَسَنٍ وَأَنبَتَهَا نَبَاتًا حَسَنًا
यानी “अल्लाह फ़रमाता है कि तहक़ीक़ मैंने पनाह इस को साथ तेरे और औलाद इस की को रानदे हुए शैतान से। पस क़ुबूल किया कि इस रब उस के ने बवजह-ए-अह्सन। और दी उनको नश्वो नुमा उम्दा तौर पर।” (आले-इमरान आयत 31 ता 32)
क्या आपका नापाक बोहतान इन्ही क़ुर्आनी आयात की तफ़्सीर है? क्या अल्लाह शैतान रजीम से इसी तरह “पनाह” दिया करता है और इसी तौर पर उम्दा नश्वो नुमा किया करता है कि वो शराबखोरी की मज्लिस में शामिल हो कर, बहकी बातें किया करें? मौलवी साहब कलिमतुल्लाह (मसीह) और इन्जील जलील से बरसरी पीकार नहीं बल्कि अल्लाह और क़ुर्आन से मसरूफ़-ए-जंग हैं।
वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने
कर दिया काबे को गुम
और कलीसिया ना मिला
(अकबर इला आबादी)
(2)
चूँकि मौलवी साहब अहले-यहूद की सहफ़-ए-समावी के इल्म से क़त’ई तौर पर बे-बहराह हैं और हम उनको और उन के नाज़रीन को उनकी लाइल्मी का शिकार होने से बचाना चाहते हैं लिहाज़ा हम उनको ये बतलाए देते हैं कि अहले-यहूद में शादी ब्याह एक मुक़द्दस रस्म ख़याल की जाती थी। उनकी सहफ़ मुक़द्दसा में रिश्ता-ए-इज़्दिवाज़ एक मुबारक और पाक रिश्ता समझा जाता था क्योंकि ये रिश्ता इस ताल्लुक़ का मज़हर था जो अहले-यहूद के ख़ुदा और क़ौम इस्राईल के दर्मियान था। यहूदी कुतुब-ए-आस्मानी के मुताबिक़ ख़ुदा और इस्राईल के दर्मियान वैसा ही ताल्लुक़ था जैसा ज़मीन पर दूल्हा और दुल्हन में होता है। ख़ुदा क़ौम इस्राईल का दुल्हा है और उस की बर्गुज़ीदा क़ौम उस की दुल्हन है। ग़ज़ल-उल-ग़ज़लात में छः दफ़ा,’ यस’अयाह नबी के सहीफे में तीन दफ़ा’ (62:5) वग़ैरह यर्मियाह नबी के सहीफ़े में एक दफ़ा’ ख़ुदा और क़ौम इस्राईल में इस रिश्ते का ज़िक्र किया गया है। यही वजह है कि जब कभी क़ौम इस्राईल ख़ुदा से बर्गश्ता हो कर ग़ैर-मा’बूदों की परस्तिश करने लगी तो ख़ुदा अपने अम्बिया की मा’र्फ़त बार-बार उस को “ज़िनाकार” का ख़िताब देता। (यस’अयाह 57:3, यर्मियाह 3:9, 5:7, हिज़्क़ीएल 23:37, होसे’अ 2:2 वग़ैरह) कलिमतुल्लाह (मसीह) ने भी इस लफ़्ज़ ज़िनाकार को ख़ुदा से बर्गश्तगी और बग़ावत मा’अनों में इस्तिमाल किया है। (मत्ती 12:39, 16:4) इस मुहावरे का असली मफ़्हूम ना समझने की वजह से मौलवी साहब ने मुन्जी आलमीन (मसीह) को बार-बार कोसा है (सफ़ा 169, 179 वग़ैरह-वग़ैरह) इसी तरह तलाक़, ख़ुदा और उस की क़ौम इस्राईल के बाहमी ताल्लुक़ात के लौट जाने की दुनियावी मिसाल है। (यस’अयाह 50:1, यर्मियाह 3:8 वग़ैरह) इसी मिसाल को मुक़द्दस पौलूस और मुक़द्दस यूहन्ना ने इस पाक रिश्ते के लिए और इस के लौट जाने के लिए इस्तिमाल किया है। (रोमियों 7:1 ता 6, मुकाशफ़ा 19:7 वग़ैरह) अहले-यहूद की कुतुब समावी इस्लाम और क़ुर्आन की तरह इस रिश्ते को बअल्फ़ाज़ मौलवी साहब मस्नू’ई (खुदसाख्ता) (सफ़ा 139) ख़याल नहीं करती थीं बल्कि इस को एक पाक और मुक़द्दस रिश्ता तस्लीम करती थीं। (मर्क़ुस 10:6)
पस अहले-यहूद में शादी ब्याह की महफ़िल में मेहमान सिर्फ़ अश्या-ए-ख़ुर्द व नोश में ही मुन्हमिक नहीं रहते थे बल्कि उनके ख़याल इस रिश्ते की पाकीज़गी की वजह से ज़ियाफ़त में ख़ुदा की जानिब मुनातिफ़ किए जाते थे जो क़ौम इस्राईल का दुल्हा तसव्वुर किया जाता था। (मुकाशफ़ा 19:19) अहले-यहूद में जो पारसाह होते थे वो ब्याह से पहले रोज़ा रखते और अपने गुनाहों का इक़रार करके मग़्फिरत के तलबगार होते थे। पस मौलवी साहब का इस क़िस्म की शादी की महफ़िल को “मज्लिस शराबखोरी” कहना इंतिहाई लाइल्मी, गुस्ताख़ी और तौहीन पर दलालत करता है।
बाब चहारुम में हमने ज़िक्र किया है कि क़ुद्रत ने अर्ज़-ए-मुक़द्दस कन’आन की सर-ज़मीन में ताक की पैदाइश के लिए इस क़द्र मौज़ूं बनाया था कि घर-घर ताकिस्तान थे। और सब यहूदी रोटी के बाद अंगूर का रस ازقاًحسناً समझ कर पीते और इस तय्यब शै के लिए ख़ुदा का शुक्र बजा लाते थे। (ज़बूर 104:15 वग़ैरह) मर्हूम यहूदी आलिम अबराहाम फ़र्माते हैं कि :-
“यहूदी ब्याह की ख़ुसूसियत है कि बरकत के सात कलमे पढ़े जाते हैं और बरकत का पहला कलमा अंगूर के रस के लिए है। जिसके अल्फ़ाज़ ये हैं ऐ ख़ुदावंद हमारे ख़ुदा। तमाम कायनात के बादशाह। तू मुबारक है जिसने हमारे लिए अंगूर का फल पैदा किया है।”
पस मुजरद अंगूर के रस की मौजूदगी शादी की महफ़िल को “मज्लिस-ए-शराबखोरी” में तब्दील नहीं कर सकती।
(3)
ये बात क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि जिस ख़ानदान में शादी थी गो वोह एक मुफ़्लिस और ग़रीब ख़ानदान था लेकिन वो शरीफ़-उल-नसब था। पस दुल्हे ने जो अश्या ख़ुर्द व नोश का ज़िम्मेवार होता था (क़ुज़ा 14:10) अपनी ग़रीबी की वजह से अंगूर का रस सिर्फ इतना ही मुहय्या किया था जितना वो ख़याल करता था कि मेहमानों के लिए किफ़ायत करेगा। यही वजह थी कि अंगूर का रस कम भी हो गया था। पस मिक़दार की कमी साफ़ साबित करती है कि ये मज्लिस शराबखोरी ना थी जहां दुनिया जहान के मेगससार और बादा ख्वार अर्बाब चंग व निशात नाच रंग में मशग़ूल थे। कहाँ इस शरीफ़ और ग़रीब ख़ानदान का इफ़्लास (ग़रीबी) और कहाँ मुत्रिब और चंग और साक़ी और साग़र व मीना का दौर।
(4)
इस ग़रीब घराने में मेहमानों की क़लील मिक़दार का अंदाज़ा इस बात से हो सकता है कि बअल्फ़ाज़ इन्जील नवीस वहां “यहूदियों की तहारत के दस्तूर के मुताबिक़ पत्थर के सिर्फ छः मटके रखे थे और उन में दो-दो तीन-तीन मन पानी की गुंजाइश थी।” (आयत 6) जो लोग यहूदियत से वाक़िफ़ हैं वो जानते हैं कि इस क़ौम में “तहारत” पर किस क़द्र ज़ोर दिया जाता था। चुनान्चे (मर्क़ुस 7:1 ता 5 और मत्ती 23:25 ता 26 और लूक़ा 11:38 ता 39 वग़ैरह) इन दस्तुरात का सिर्फ ईशारतन ज़िक्र किया गया है। लेकिन तहारत के मुताल्लिक़ अहले-यहूद के रब्बियों के अहकाम का हम इस अम्र से अंदाज़ा कर सकते हैं कि किताब मिशनाह जो छः हिस्सों में तक़्सीम है। उस का छटा हिस्सा जिसका ता’ल्लुक़ तहारत से है सबसे ज़्यादा तवील है। इस हिस्से के बारह (12) उनवानात हैं जिनमें 126 बाब और एक हज़ार एक फ़सलें हैं। पहला उन्वान सिर्फ़ बर्तनों के धोने के मुताल्लिक़ है। और उस के चार बाब हैं। नाज़रीन अंदाज़ा कर सकते हैं कि इस मज्लिस में यहूदियों की तहारत के दस्तूर के मुताबिक़ शादी के खाने पकाने और खिलाने के बर्तनों को धोने, मेहमानों के हाथों के धोने और ग़ुस्ल करने, अश्या-ए-ख़ुर्द व नोश के पकाने वग़ैरह के लिए किस कस्रत से पानी की ज़रूरत होगी। लेकिन बईं-हमा इन सब बातों के लिए वहां पानी के सिर्फ छः मटके काफ़ी समझे गए। जिनमें दो-दो तीन-तीन मन की गुंजाइश थी इन सब बातों से हम ये नतीजा अख़ज़ कर सकते हैं कि मेहमानों की ता’दाद क़लील थी। नौशा मियां ने अंगूर का रस क़लील-उल-ता’दाद मेहमानों के लिए मुहय्या करना ज़रूरी समझा था। लेकिन वो मिक़दार में ज़रूरत से भी कम साबित हुआ। ये कमी कम अज़ कम इस बात पर दलालत करती है कि ये शादी की महफ़िल “मज्लिस-ए-शराबखोरी” ना थी।
(5)
आँजहानी मिर्ज़ाए क़ादियानी कहे गए हैं कि हज़रत मसीह ने इन छः (6) मटकों के तमाम के तमाम पानी को “शराब” में तब्दील कर दिया था। और जो शराब बनी वो इस हिसाब से मिक़दार में बारह (12) और अठारह (18) मन के दर्मियान थी। इस एतराज़ की ताईद में मिर्ज़ा जी ने आयात 7 व 8 पेश कीं। जिनमें लिखा है कि “आँख़ुदावंद ने मुंतज़मीन जलसे को हुक्म दिया। मटकों में पानी भर दो। पस उन्होंने उन को लबाब भर दिया। फिर उसने उनसे कहा अब निकाल कर मीर-ए-मज्लिस के पास ले जाओ। पस वो ले गए।”
लेकिन मिर्ज़ा क़ादियानी (غفر الله ذنوبہ) और उन के हम-ख़यालों का ये एतराज़ यूनानी ज़बान के अल्फ़ाज़ और मुहावरात से ना वाक़फ़ियत और लाइल्मी पर मबनी है। आयत 8 में यूनानी लफ़्ज़ “एंटलाइन” (ινλειν) जिसका तर्जुमा उर्दू में “निकाल कर” किया गया है यहूदी कुतुब मुक़द्दसा के यूनानी तर्जुमा सेप्टवाजिंट (SEPTUAGINT) और इन्जील जलील की अस्ल यूनानी में हर जगह कुँए में से पानी निकालने के लिए ही इस्तिमाल किया गया है। (पैदाइश 24:13, ख़ुरूज 2:16 ता 19, हिज़्क़ीएल 2:16, यस’अयाह 12:3, यूहन्ना 4:7, 15 वग़ैरह-वग़ैरह) तमाम की तमाम किताब-ए-मुक़द्दस का यूनानी ज़बान का तर्जुमा छान मारो। ये लफ़्ज़ अंगूर का रस या ख़मर या सुक्र या तेरोश वग़ैरह को मटके या किसी और ज़र्फ़ में से निकालने के लिए कभी इस्तिमाल नहीं हुआ। जिससे ज़ाहिर है कि जोशे मुंतज़मीन जलसे ने मटकों में से निकाली थी। वो अंगूर का रस नहीं था बल्कि पानी था चुनान्चे आयत 9 के अल्फ़ाज़ साफ़ बतलाते हैं कि उन्होंने मटकों में से “पानी” निकाला था पस साबित हो गया कि मटकों में जो दो-दो तीन-तीन मन पानी था वो “पानी” ही रहा। और मुंतज़मीन ने मटकों में से पानी निकाला था। और जो पानी एजाज़ी तौर पर अंगूर का रस बना वो मटकों में से निकालने के बाद और मीर मज्लिस के पास ले जाने के दर्मियानी अर्से में अंगूर का रस बना। यानी पानी में जो तब्दीली वाक़े’अ हुई वो उस वक़्त के बाद वक़ूअ पज़ीर हुई जब मटकों में से पानी निकाला जा चुका था। पस जितना पानी मुंतज़मीन हस्ब-ए-ज़रूरत मटकों में से निकालते वो अंगूर के रस में तब्दील हो जाता। लेकिन मटकों के बाक़ी-मांदा पानी ने अपनी शक्ल और माहियत (असलियत) ना बदली बल्कि वो पानी ही रहा।
ये तावील मज़्कूर बाला सही तफ़्सीर पर मबनी है कि इन्जील जलील के किसी लफ़्ज़ का मतलब समझने के लिए ज़रूरी है कि उन तमाम मुक़ामात का मुलाहिज़ा किया जाये जहां वो लफ़्ज़ वारिद हुआ है। इस तावील की ताईद इस अम्र से भी होती है कि इंजीली बयान से किसी लफ़्ज़ से भी ये नतीजा अख़ज़ नहीं हो सकता कि मटकों का सारे का सारा पानी तब्दील हो गया था जब सब मेहमान खाने पीने से फ़ारिग़ हो गए तो मटकों में अंगूर का रस बाक़ी बच कर रह गया था हालाँकि अगर कुछ बाक़ी रह जाता तो इन्जील नवीस उस का ज़रूर ज़िक्र करता जिस तरह वो पाँच हज़ार के गिरोह को मो’जज़ाना तौर पर रोटी खिलाने के तज़्किरे में लिखता है कि :-
“जब पाँच हज़ार सैर हो चुके तो येसू ने अपने शागिर्दों से कहा कि बचे हुए टुकड़ों को जमा करो ताकि कुछ ज़ाए ना हो। चुनान्चे उन्होंने जमा किया और जो की पाँच रोटियों के टुकड़ों से जो खाने से बच रहे थे बारह टोकरियां भरीं।” (यूहन्ना 6:12 ता 13)
जब हम इन दोनों मो’जिज़ों का मुक़ाबला और मुवाज़ना करते हैं तो इस की रोशनी में हमारी तावील की तस्दीक़ हो जाती है। रोटी खिलाने के मो’जिज़े के वक़्त पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ आँख़ुदावंद ने एजाज़ी तौर पर पाँच हज़ार के हुजूम को खिलाईं। लेकिन उस वक़्त ये पाँच रोटियाँ और दो मछलियाँ यकदम एजाज़ी तौर पर रोटियों और मछलियों का ढेर नहीं हो गया था बल्कि लिखा है कि “येसू ने वो पाँच रोटियाँ और मछलियाँ लीं और उसने शुक्र करके उनको तोड़ा और तोड़ कर शागिर्दों को देता गया और शागिर्द लोगों में बाँटते गए और इसी तरह मछलियों में से जिस क़द्र चाहते थे बांट दिया और सब खाकर सैर हो गए।” (यूहन्ना 6:11, मत्ती 15:36) इन आयात से ज़ाहिर है कि रोटियों और मछलियों में एजाज़ी तौर पर दौरान-ए-तक़्सीम इज़ाफ़ा होता गया और लोग जिस क़द्र चाहते थे हस्ब-ए-ज़रूरत खाते गए। इसी तरह क़ाना-ए-गलील में पानी एजाज़ी तौर पर दौरान-ए-तक़्सीम तब्दील हो कर अंगूर का रस बताया गया और मेहमान जिस क़द्र चाहते थे हस्ब-ए-ज़रूरत पीते गए। जब कमी पूरी हो गई तो पानी का तब्दील होना भी बंद हो गया और मटकों में जो पानी बच रहा वो यहूदियों की तहारत के दस्तूर के मुताबिक़ इस्तिमाल में आया।
15 J.E. Carpenter, The Johanine Writings p.379 note
(6)
चूँकि यहां हम मुख़ालिफ़ीन मसीहियत पर इतमाम हुज्जत करना चाहते हैं पस लगे हाथों इस् बह्स को पूरा करने के लिए हम मीर मज्लिस के उस क़ौल को भी समझाए देते हैं जो आयत 10 में मुन्दरज है :-
“मीर मज्लिस ने दुल्हे को बुलाकर उस से कहा कि हर शख़्स पहले अच्छी मै पेश करता है और नाक़िस उस वक़्त जब पी कर छक गए मगर तूने अच्छी मै अब तक रख छोड़ी है।”
अव्वल : याद रखना चाहिए कि मीर मज्लिस का ये क़ौल मह्ज़ आमियाना है जिसमें एक ऐसे दस्तूर का बयान है जो रज़ील घरानों में होता होगा। इन बाज़ारी अल्फ़ाज़ से कोई सही-उल-अक़्ल शख़्स ये नतीजा नहीं निकाल सकता कि शरीफ़ यहूदी घरानों में मद’ऊ शूदा मेहमान पी कर “छग” जाते थे। बिलख़ुसूस ये ख़ानदान जिसमें उम्मुल मोमनीन मुक़द्दसा मर्यम और मुन्जी आलमीन (मसीह) जैसी पाक हस्तियाँ मद’ऊ की गई थीं गो ग़रीब सही पर शरीफ़ तो था पस कोई हक़ीक़त-पसंद शख़्स मीर मज्लिस के बाज़ारी और आमियाना अल्फ़ाज़ से ये नतीजा नहीं निकाल सकता कि ये मज्लिस शराबखोरी की थी।”
दोम : ख़ुद मीर मज्लिस का कौल इस बात का शाहिद है कि उस के क़ौल का इतलाक़ मौजूदा महफ़िल पर नहीं हो सकता क्योंकि ख़ुद उस के अल्फ़ाज़ भी इस आम दस्तूर में और मौजूदा मज्लिस में इम्तियाज़ करते हैं और साफ़ नतीजा निकलता है कि कम अज़ कम इस महफ़िल के मेहमान पी कर “छक” नहीं गए थे।
सोम : हम बाब चहारुम में लिख चुके हैं कि जिस लफ़्ज़ का तर्जुमा “पी कर छक गए” किया गया है वो “मैथीयू समा (میتھیوسما) का फ़े’ल है जो बिल्कुल अलग शै है। जिसके लिए इब्रानी में लफ़्ज़ “तेरोश” (تیروش) आया है। जो एक “नशा आवर” चीज़ है और जिसकी “बाइबल में हुर्मत” का ख़ुद इक़बाल है। (सफ़ा 90) पर जो शै आँख़ुदावंद ने बनाई वो मैथीयू समा (میتھیوسما) ना थी बल्कि “अवीनोस” (وینوس) थी। लिहाज़ा मीर मज्लिस का क़ौल ख़ुद आँ-खुदावंद की बनाई हुई शै और दूसरी शै में तमीज़ करता है।
चहारुम : हमको यक़ीन है कि मो’तरज़ीन की अपनी अक़्ल इस बात को क़ुबूल नहीं कर सकती कि हज़रत कलिमतुल्लाह (जिनको वो ख़ुदा का फ़िरिस्तादा मानते हैं) एक ऐसी मज्लिस में ना सिर्फ रौनक अफ़रोज़ हों बल्कि वो अपनी एजाज़ी ताक़त के ज़रीये कस्रत से शराब बना कर इस क़िस्म की बद-एतिदाली के ख़ुद ही मूजिब हों। पस हम ये समझने से क़ासिर हैं कि वो क्यों हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) पर ऐसे एतराज़ात करते हैं जिनको मानने की उनका अपना ईमान इजाज़त नहीं देता और जिन को ना उनके मुख़ातिब मानते हैं? ऐसे नाम निहाद ईमान फ़रोश मौलवियों के इस नापाक रवय्ये की वजह से मुसलमानों और मसीहियों के बाहमी ताल्लुक़ात क़ुर्आन के असली मंशा के मुताबिक़ ख़ुशगवार (माइदा आयत 85) होने के बजाए एक मुसलसल आवेज़िश की सूरत इख़्तियार कर रहे हैं।
مامریداں روبسوئے کعبہ چوں آریم چوں
روبسوئے خانہ خمار واردپیر ما؟
मो’जिज़ात मसीह आयात-उल्लाह (अल्लाह की निशानी) हैं
इन्जील नवीस क़ाना-ए-गलील के मो’जिज़े के लिए लफ़्ज़ “मो’जिज़े” इस्तिमाल नहीं करता अगरचे उर्दू तर्जुमा “इन्जील आयत ग्यारह में यूनानी लफ़्ज़ सीमाई ऊन (σημειων) का तर्जुमा ग़लती से “मो’जिज़ा” किया गया है। इस लफ़्ज़ का सही तर्जुमा “निशानी” है चुनान्चे आयत का अरबी तर्जुमा मुलाहिज़ा हो "ھذا فعل یسوع بددلا یات فی قانا الجلیل وطھر مجدووامن بہ تلامیذ " पस इस आया शरीफा का ये मतलब है कि ये पहला मो’जिज़ा एक “निशानी” था जिसको हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने दिखला कर “अपना जलाल ज़ाहिर किया।” और आप के शागिर्द आप पर “ईमान लाए”
हम मौलवी साहब से पूछते कि क्या क़ुर्आन व इन्जील के मुताबिक़ नबुव्वत का “निशान” यही है कि नबी “मज्लिस शराबखोरी” में शरीक हो और शराब को एजाज़ी ताक़त ख़ुदादाद से बनाए और ख़ुद इस क़द्र पिए कि उस के असर से मतवाला हो कर माँ की “सू-अदबी” (बेअदबी) करे और साक़ी बन कर बादा-गुसारों (शराबियों) को जाम भर-भर शराब पिलाए और साग़र व मीना का दौर चलाए? आपने कुछ तो ग़ौर किया होता कि आया इस क़िस्म के तर्ज़-ए-अमल से कोई नबी “अपना जलाल ज़ाहिर” कर सकता है और कोई समझदार शख़्स इस क़िस्म के काम करने वाले पर “ईमान” ला सकता है? हरगिज़ नहीं। लेकिन इन्जील जलील के अल्फ़ाज़ निहायत वाज़ेह हैं कि इस निशान को दिखलाकर हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) ने अपना जलाल ज़ाहिर किया और आप के शागिर्द आपकी नबुव्वत पर ईमान लाए (आयत 11) अगर मौलवी साहब इस जलाल की हक़ीक़त की झलक देखना चाहते हैं तो वो यूहन्ना 1:14, लूक़ा 9:2 ता 3, 2 पतरस 1:16 ता 17, 1 यूहन्ना 1:1 ता 4, 14, यूहन्ना 17:22, 24, 11:4 का तदब्बुर और ग़ौर से मुताल’आ करें और अह्दे-अतीक़ में यस’अयाह 40:5, हिज़्क़ीएल 39:21 वग़ैरह को देखें। क्योंकि इन आयात के अल्फ़ाज़ को इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने अपनी ज़िंदगी में अक़्वाल व अफ़’आल के वसीले पूरा किया पस आपका ये एतराज़ बे-बुनियाद है।
(2)
मुक़द्दस यूहन्ना इन्जील नवीस हमको बतलाता है कि उसने हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के हज़ारों मो’जिज़ात में से सिर्फ चंद एक का ही ज़िक्र किया है। (21:25) पस जिन मो’जिज़ात का ज़िक्र किया गया है वो किसी ख़ास मक़्सद के तहत चुने गए हैं। वो मक़्सद क्या था?
अगर मौलवी साहब ने इन्जील की तिलावत की होती और क़ुर्आन में गहरी नज़र से ग़ौर किया होता (सफ़ा 149) तो आपको मालूम हो जाता कि दोनों इल्हामी किताबें हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के मो’जिज़ात के लिए एक ही लफ़्ज़ यानी “निशानी” इस्तिमाल करती हैं। चुनान्चे क़ुर्आन में हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) अपने मो’जिज़ात की निस्बत अहले-यहूद को फ़र्माते हैं कि :-
إِنَّ فِي ذَلِكَ لآيَةً لَّكُمْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ
यानी “बिला-शुब्हा मेरे इन मो’जिज़ात में निशानी है वास्ते तुम्हारे अगर तुम ईमान वाले हो।” (आले-इमरान आयत 43)
अगर आपने इस क़ुर्आनी आया शरीफा पर “तदब्बुर व गौर” किया होता तो आपको मालूम हो जाता कि क़ुर्आन का मतलब निशानी से बईना वही है जो इन्जील का मफ़्हूम है (आयत 11) यानी जो मो’जिज़ात आँख़ुदावंद करते थे वो इस बात का “निशान” देते थे कि इन मो’जिज़ात के करने वाला किस क़िस्म का इन्सान है। यानी वो आँख़ुदावंद के जज़्बात, ख़यालात, महसूसात और वारदात-ए-क़ल्ब ग़रज़ कि आपकी शख़्सियत के मज़हर थे। यही वजह थी कि लोग उनको देखकर आप पर “ईमान” भी लाते थे हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) के सब के सब मो’जिज़ात पुर-म’अनी निशान थे जो लोगों के अज़हान को रुहानी हक़ाइक़ की जानिब मुंतक़िल करते थे। ये मो’जिज़ात बज़ात-ए-ख़ुद ऐसे अहम नहीं थे जैसे वो रोशन हक़ाइक़ जिनकी जानिब उनके ज़रीये तवज्जोह मुनातिफ़ होती थी और जिन की ये ख़बर देते थे। मसलन पाँच हज़ार को खिलाने के मो’जिज़े से लोगों पर ये ज़ाहिर हो गया कि सय्यदना मसीह “ज़िंदगी की रोटी” हैं। (6:1, 59) जन्म के अंधे को बीनाई देने (9 बाब) से हर ख़ास व आम पर ये रोशन हो गया कि आँख़ुदावंद “दुनिया के नूर हैं।” (8:12) लाज़र को मुर्दों में से ज़िंदा करके (यूहन्ना 11 बाब) आपने सब दीदावरों (देखने वालों) पर ज़ाहिर कर दिया कि आप “क़ियामत और ज़िंदगी हैं।” (11:25)
हज़रत इब्ने-अल्लाह (मसीह) ने पानी को ताक़त देने वाले अंगूर का रस बना कर आलम व अलमियान पर इस हक़ीक़त को मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) कर दिया कि यहूदियत का ख़ुम-ख़ाना ख़ाली हो गया और अब आप इस नए अहद के बानी हैं जो इन्सान ज़’ईफ़ अलनियान को ताक़त और क़ुव्वत देकर उस को दुनिया के हवादहोस “गुनाह और शैतान पर ग़ालिब आने की तौफ़ीक़ बख़्शता है।” (1:15 ता 18, मत्ती 26:26 ता 28) ये सही तफ़्सीर सूरह इमरान की मज़्कूर बाला आयात की यहूदियत की रस्मी इबादत वग़ैरह को देखकर आशिक़ान बादा इलाही कहते थे।
सच्च कह दूँ ऐ ब्रहमन गर तू बुरा ना माने तेरे सनम कदों के बुत हो गए पुराने
तंग आके मैंने आहर दैर व हरम को छोड़ा वाइज़ का वा’ज़ छोड़ा छोड़े तेरे फ़साने
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती आ। इक नया शिवाला इस देस में बनादें
इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाह अलैह का क़ौल आब-ए-ज़र से लिखने के क़ाबिल है :-
قال لمہ نفھمہ المعانی کذالک بنعیس لک من ابرالافی قشر ہ यानी “अगर तुम मुतालिब क़ुर्आन को इस तरह नहीं समझते तो तुमको क़ुर्आन से सिर्फ उस का छिलका हाथ आया है। जिस तरह बहाइम को गेहूँ में से सिर्फ भूसी हाथ आती है।”
(3)
ये इन्जील नवीस कलिमतुल्लाह (मसीह) के मो’जिज़ात के लिए और लफ़्ज़ इस्तिमाल करता है यानी “काम” (यूहन्ना 5:36, 10:37 ता 38) जिससे इस के लफ़्ज़ निशानी के मफ़्हूम पर रोशनी पड़ती है। अगर हम मज़्कूर बाला सही उसूल तफ़्सीर के मुताबिक़ उन तमाम मुक़ामात का “तदब्बुर और ग़ौर” के साथ मुताल’आ करें जहां अनाजील अरबा में ये अल्फ़ाज़ मुस्त’मल हुए तो हम पर वाज़ेह हो जाएगा, कि इन्जील नवीसों का मतलब ये है कि जिस तरह हमारे काम हमारी रुख़्सत आदत और शख़्सियत की निशानदेही करते हैं उसी तरह कलिमतुल्लाह (मसीह) के मो’जिज़ात आपकी ज़ात व सिफ़ात की निशानदेही करते हैं। (मत्ती 11:2 ता 5) चुनान्चे आपने फ़रमाया :-
“अगर मैं अपने बाप के काम को नहीं करता। तो मेरा यक़ीन ना करो लेकिन अगर मैं करता हूँ तो उन कामों का यक़ीन करो ताकि तुम जानो और समझो कि बाप मुझमें है और मैं बाप में हूँ।” (यूहन्ना 10:37 ता 38)
आँख़ुदावंद के मो’जिज़ात मुहब्बत, रहम और हम्दर्दी का इज़्हार करते हैं। और यह निशान देते हैं कि इन कामों का करने वाला मुहब्बत मुजस्सम है। आँख़ुदावंद का हर मसीहाई दम ख़ुदा की ज़ात की निस्बत निशानदेही करता है। (यूहन्ना 4:34, 17:4 वग़ैरह) और बनी नू’अ इन्सान पर वाज़ेह हो जाता है कि ख़ुदा मुहब्बत है और हज़रत कलिमतुल्लाह (मसीह) इस लाज़वाल और अज़ली और अबदी मुहब्बत के मज़हर हैं। “ख़ुदा को कभी किसी ने नहीं देखा। इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है उसी ने ज़ाहिर किया।” (यूहन्ना 11:18) इसी नुक्ते को समझाने के लिए मुक़द्दसा मर्यम और मुन्जी आलमीन (मसीह) की निस्बत क़ुर्आन में वारिद हुआ है :-
وَجَعَلْنَاهَا وَابْنَهَا آيَةً لِّلْعَالَمِينَ
यानी अल्लाह फ़रमाता है कि :-
“हमने मर्यम को और उस के बेटे को दुनिया जहान के लिए निशानी बनाया।” (अम्बिया 91)
यानी ख़ुदा ने हज़रत रूह-उल्लाह (मसीह) को दुनिया में इस ग़र्ज़ से भेजा ताकि आपके ख़यालात, जज़्बात और अफ़’आल ख़ुदा की निशानदेही का काम दें। और दुनिया को उनके ज़रीये ये इल्म हो जाए कि ख़ुदा किस क़िस्म का ख़ुदा है। इस क़ुर्आनी आयत की तफ़्सीर इन्जील यूहन्ना में दर्ज है जहां हज़रत कलिमतुल्लाह फ़र्माते हैं :-
“अगर तुमने मुझे जाना होता तो मेरे बाप को भी जानते। अब तुम बाप को जानते हो और उसे देख लिया है।..... जिसने मुझे देखा उस ने बाप को देखा।.... मैं बाप में हूँ और बाप मुझमें है।” (14 बाब)
देखिए, क़ुर्आन में किस तरह “सलीस अरबी” ज़बान में बाइबल की तफ़्सील मौजूद है। (शू’रा-आयत 193, अन’आम 156, यूनुस 38 वग़ैरह)
मौलवी साहब की किताब को ज़ेवर अख़्लाक़ हमीदा से आरास्ता होना चाहिए था। लेकिन हमें अफ़्सोस है कि ये किताब हर क़िस्म क़ी अख़्लाक़ी खूबियों से मु’अर्रा (दूर) है। इस में आँख़ुदावंद की ज़ात-ए-क़ुदसी सिफ़ात पर बार-बार ऐसे सोक़याना हमले किए गए हैं जो किसी कलमा-गो मुसलमान के लिए जो अल्लाह पर उस के रसूलों पर और उस की किताबों पर ईमान रखता हो किसी तरह जायज़ नहीं। ये किताब ऐसी दिल-आज़ार है कि क़ानून की ज़द में आती है। लेकिन हम जो मसीही हैं, मुसलमानों का सा रवय्या इख़्तियार करके गर्वनमैंट पर ज़ोर नहीं देते कि वो मुक़द्दमा चलाए। हाँ अगर पंजाब में इस्लामी गर्वनमैंट होती तो वो ख़ुद इस किताब का नोटिस लेते।
कहाँ ऐसी आज़ादियां थीं मयस्सर
अनाल हक़ कहो और फांसी ना पाओ
मौलवी साहब के लगू और लाया’नी एतराज़ात आपके इस क़ौल को सच साबित करते हैं कि :-
“जाहिलों के हाथों से येसू मसीह नहीं बच सकता।” (इस्लाम और मसीहियत सफ्ह 165)
आपने इस क़िस्म के एतराज़ करके मसीहियों की दिल फ़िगारी में कोई दक़ीक़ा फ़र्द गुज़ाश्त नहीं किया। लेकिन आपके से दिल-आज़ार एतराज़ात की निस्बत हज़रत सुलेमान फ़रमाता है कि :-
“ये ऐसे हैं जैसा परिंदा हवा में उड़ता है और उस की रफ़्तार का कोई सुराग़ नहीं मिलता। बल्कि जिस हवा पर उस के परों का सदमा पड़ा था। और जिसे उस के फड़फड़ाते हुए बाज़ू चीरते हुए गुज़र गए। उस में बा’दा उस के गुज़रने का निशान भी पाया नहीं जाता। या जैसे तीर निशाना की तरफ़ छोड़ा जाता है और जिस हवा को चीरता हुआ जाता है वो दर्रा गल जाती है। यहां तक कि लोगों को ख़बर नहीं हुई कि किस रास्ते से किया।” (किताब अल-हिकमत 5:1 ता 12)
एतराज़ करने के जुनून में आप क़ुर्आन भूल गए जिसमें वारिद है :-
يُرِيدُونَ لِيُطْفِؤُوا نُورَ اللَّهِ بِأَفْوَاهِهِمْ وَاللَّهُ مُتِمُّ نُورِهِ وَلَوْ كَرِهَ الْكَافِرُونَ
यानी आप जैसे लोग :-
“अल्लाह के नूर को मुँह की फूंकें मार कर बुझाना चाहते हैं। लेकिन अल्लाह अपने नूर को पूरा करता है। ख़्वाह काफ़िर इस बात को नापसंद ही करें।” (सूरह सफ़ आयत 8)
इस क़िस्म की सत्ता ख़ाना तहरीरात की वजह से मसीहियों ने बेज़ार हो कर क़ादियानीयों को मुँह लगाना छोड़ दिया है। हम मो’तरज़ीन को ख़ुलूस-ए-दिल से नसीहत करते हैं।
چوں نداری کمال فضل آں بہ کہ زبان دردہاں نگہ داری
آدمی رازباں فضیحت کر جوزبے مغزراسبکساری
ख़ुदा करे कि मो’तरज़ीन अपने लाया’नी एतराज़ों और नापाक हमलों से तौबा करें।
حیرتے دارم زادنشمند ِمجلس باز پرُس
توبہ فرمایاں چراخود توبہ کمتر میکنند؟