The Mirror of Islam
By
Allama Rajab Ali & Rev.Nolis
आईना इस्लाम
जिसमें अहले-इस्लाम के डेढ़ सौ (150) फ़िर्क़ों के नाम और उनके उसूल अक़ाइद व
ईमान मुन्दरज है।
जिसको अल्लामा रज्जब अली और पादरी नोलस साहब मिशनरी ने कमाल तहक़ीक़ से
तस्नीफ़ किया।
लखनऊ 1897 ई॰
आईना इस्लाम
दीबाचा
मुक़द्दस कलाम के एक मुक़ाम में सय्यदना मसीह के एक सहाबी अपने बयान को इल्हाम से अरक़ाम (तहरीर) फ़रमाता है कि :-
“मैंने मक़िदूनिया जाते वक़्त तुझसे इलमतास की थी कि इफ़िसुस में
रहना ताकि बा’ज़ों को ताकीद करे कि और तरह की तालीम ना दें और
कहानियों और बेहद बस्त नामों पर लिहाज़ ना करें ये सब कुछ तकरार
का बाइस होता है ना कि ईमान में तर्तीब इलाही का।”
मगर हमारे प्यारे और मु’अज़्ज़ज़ भाई अहले-इस्लाम नहीं समझते और मुहम्मदी बिरादर नहीं जानते कि ता’स्सुब और बेजा तरफ़दारी एक ऐसा मर्ज़ है कि जो इन्साफ़ और हक़ जोई की आँख पर पर्दा डाल देता और बनी-आदम को सिरात-ए-मुस्तक़ीम (सीधी राह) से रोक कर अबदी हलाकत की राह पर चलाता है हाँ अक़्ल परस्ती इसी का नाम है कि इन्सान जो फ़ानी और हादिस है अपनी चतुराई और अय्यारी पर फ़रेफ्ता और नाज़ाँ हो कर इल्हाम रब्बानी और कलाम यज़्दानी से मुन्किर हो जाता और ना-हक़ की तकरारों और बेफ़ाइदा मुबाहिसों पर मुतवज्जोह हो कर अपने अज़ीज़ और बे बदल औक़ात को ज़ाए करता है मुबारक ख़ुदा हम सब पर अपनी रूह पाक नाज़िल फ़रमाए ताकि हम सब कि सब आदमजा़द राह-ए-हक़ पहचान कर हयात-ए-अबदी और हमेशा की ज़िंदगी हासिल करें तफ़्सील इस मुजम्मल अम्र की ये है कि अहले-इस्लाम भाईयों की अक्सर तहरीरात ख़ुसूसुन मौलवी रहमत-उल्लाह और वज़ीर ख़ान की तस्नीफ़ात से मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर होना) होता है कि अहले-इस्लाम मौसूफ़ मज़्हब मसीही की निस्बत यूं फ़र्माते हैं कि :-
“बिलफ़र्ज़ अगर मान भी लें कि मसीही मज़्हब हक़ और ख़ुदा की तरफ़ से है तो भी कस्रत फ़िर्क़ों के बाइस जो मज़्हब मज़्कूर में पाए जाते हैं दिल में एक गोना शक पड़ता है कि आया ना मालूम कौनसा फ़िर्क़ा हक़ और सच्च है और कौनसा बातिल और ग़ैर-ए-हक़ ज़ीराक कस्रत फ़िर्क़ों की किसी मज़्हब में क्यों ना हों एक पक्की दलील ज़ो’फ़ उस मज़्हब की है जिसमें वो फ़िर्क़ों दाख़िल हों और जो मज़्हब-ए-मसीही में कस्रत फ़िर्क़ों की है सो कोई मसीही इनसे इन्कार नहीं कर सकता मसलन इन बहुत से फ़िर्क़ों में से चंद ये हैं, चर्च आफ़ इंगलैंड लंदन, इंडेंपिन्डेंट बप्टिस्ट मिशन जर्मन कलीसिया अमरीकन प्रेस्ब्रिटेरियन रोमन कैथोलिक और भी और यरूशलेम कलीसिया व आन्ताकिया व इफ़सुस व अज़ मरहिना व अथेनी व कुन्तिया व रोम व इस्कंदरियाह व गरतागोकी कलीसियाएं जिनका मुफ़स्सल ज़िक्र इन्जील ख़ुसूसुन एक मो’अतबर किताब यानी तारीख़ कलीसिया विलियम म्यूर साहब में दर्ज और मुन्दरज है पस इस का क्या मूजिब है और अगर हक़ समझें तो किस फ़िर्क़ा को और ना हक़ जाने तो किस को और गुमान ग़ालिब क्या बल्कि यक़ीन है कि विलायत में और भी फ़िर्क़े हों लिहाज़ा मसीही मज़्हब इस ज़माने में सच्च और हक़ नहीं है इला आख़िरा।”
अंदरें सूरत चूँकि हर एक मसीही मज़्हब के ख़ादिम दीन और वा’इज़ को निहायत लाज़िम और वाजिब है कि अहले-इस्लाम के एतराज़ मज़्कूर की कुल तौर पर तर्दीद तहरीर करें और ना इस वास्ते कि उनके तकरार का जवाब भी तकरार हुए बल्कि ईमानदारी और हक़ जोई की दिल-पसंद राह से जो तहक़ीक़ और तदफ़ीन और भी तरफ़ैन व जानबीन को फ़ाइदाबख्श हो अरक़ाम (तहरीर) किया जाये ताकि इन्साफ़ दोस्तों और आरिफ़ों की नज़र में इस तहरीर से रुहानी फ़ायदा हासिल हो और भी मुक़द्दमा मुतनाज़ा’ इन्फ़िसाल पाए लिहाज़ा मुझ पादरी शमुएल नोलस साहब मिशनरी और अल्लामा रज्जब अली ने अहले-इस्लाम के एतराज़ मस्तूर का सही जवाब तहरीर करके इसी मज़्मून में अहले-इस्लाम के डेढ़ सौ (150) फ़िर्क़ों का नाम और उसूल अक़ाइद व ईमान अज़बस उन्हीं की निहायत मोअतबर और अज़बस कि मो’तमद किताबों से इंतिख़ाब करके दर्ज औराक़ हज़ा किया ताकि मुंसिफ़ और रास्तबाज़ आदमियों को मालूम और मफ़्हूम हो जाए कि अहले-इस्लाम ख़ुसूसुन मौलवी रहमत-उल्लाह और वज़ीर ख़ान की तहरीरात और इद्दिआ (दाअवेदार होना) कैसी ग़ैर-ए-हक़ और नारास्त पाया एतबार से ख़ारिज है और हक़ीक़ी मसीही लोग कैसे हक़ जू व रास्त-गों हैं और नाम इस तस्नीफ़ का “आईना इस्लाम” रखा गया हमारी दुआ जनाब बारी त’आला से ये है कि वो नाज़रीन रिसाला हज़ा पर रूह-उल-क़ुद्स नाज़िल करे और उन को बरकत बख़्शे और भी उन पर आफ़्ताब सदाक़त का जलवा और सुबह के नूरानी सितारे की रोशनी और सीहोन का नूर डाले ताकि उस को इन्साफ़ और हक़ जोई की राह से मिला ख़ित्ता फ़र्मा कर इस तस्नीफ़ की इल्लत-ए-ग़ाई (मक़सद) यानी ज़िंदगी अबदी और हयात सरमदी को हासिल करें आमीन।
वाक़ेअ 9 सितंबर 1888 ई॰ को पादरी नोलस साहब ने बमुक़ाम नैनीताल नज़र-ए-सानी फ़रमाई।
आग़ाज़-ए-मतलब
मौलवी रहमत-उल्लाह और वज़ीर ख़ान वग़ैरह अहले-इस्लाम भाईयों पर पोशीदा व मख़फ़ी (छुपा) ना रहे कि आप साहिबों के एतराज़ मुन्दरिजा बाला के दो जवाब अरक़ाम करेंगे पहला मुताबकि दूसरा इल्ज़ामी चुनान्चे पहले मुताबकि जवाब तहरीर किया जाता है अल्लाह हमारा हामी और मददगार होए।
वाज़ेह व ज़ाहिर हो कि हक़ीक़त-ए-हाल ये है कि जिन मसीही मज़्हब की कलीसियाओं मज़्कूर बाला अहले-इस्लाम मुतफ़र्रिक़ और मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़े समझते हैं वाक़ेअ में वो फ़िर्क़े नहीं बल्कि उनका लक़ब जमाअतें या कलीसियाएं हैं इस में कुछ शक नहीं और ना हम मसीही लोगों को इस में कलाम है और अगर बक़ौल आप लोगों के फ़र्ज़ और तस्लीम भी करलें कि जिन जिन जमा’अतों को आप फ़िर्क़े नाम रखते और वही जिस जिस कलीसिया पर आप फ़िर्क़े के म’अनी जमाते ठीक और दुरुस्त हैं तो भी आप साहिबों का मतलब पूरा ना होगा ज़ीराक जमाअतें या कलीसियाएं उसूल अक़ाइद व ईमान में यहां तक मुत्तफ़िक़ उल-राए अल-म’अनी और बाहम मुवाफ़िक़ और मुताबिक़ हैं कि अगर अहले-इस्लाम पर सौ और जुस्तजू और सई (कोशिश) करें तो कभी ज़रा सी मुख़ालिफ़त और मुबाइनत ना पाएंगे अलबत्ता फ़रुआत और अदना अम्रों और ख़ुसूसुन इंतिज़ाम कलीसियाओं में अगर कहीं अदम मुवाफ़िक़त हो तो शायद हो और अगर अहयानन या दीदा व दानिस्ता फ़रुआत और अदना अम्रों ख़ास करके जमा’अतों के बंदो बस्त में अदम मुताबिक़त मुवाफ़िक़त हो तो इन्साफ़ करना और आदिल ख़ुदा से डरना चाहिए कि हक़ीक़त और हक़ीक़त मज़्हब में क्या नुक़्सान और नुक़्स लाज़िम आता है इस मसअले के हम लोग क़ाइल और मक़िर हैं कि कलीसियाएं मुतज़क्किरा बाला में अलैहदा अलैहदा नामों के बाइस फ़र्क़ मालूम होता है पर दर-हक़ीक़त वो इस्मी (नामों का) फ़र्क़ किसी तरह से उसूल ईमान में ख़लल-अंदाज़ नहीं है और नामों में अलैहदगी एक ज़रूरी वाला बदी अम्र है क्योंकि ये कलीसियाएं जिनका नाम अहले-इस्लाम ने तहरीर फ़रमाया है अलग-अलग जगहों और मुल्कों और मुक़ामों के रहने वाली हैं और ख़ुदावंद के मुबारक काम और मुक़द्दस इन्जील के मुंतशिर और फैलाने के वास्ते अलैहदा अलैहदा दस्तूर भी मुक़र्रर और मु’ईन हैं मगर इन जमा’अतों ने उसूल ईमान व अक़ाइद में ग़ैर-मुम्किन बल्कि मुहाल-ए-मुत्लक़ है कि मुबाएंत और मुख़ालिफ़त पाई जाये बल्कि तहक़ीक़ और तफ़्तीश करने से मालूम और मफ़्हूम हो जाएगा कि कलीसिया मुन्दरिजा बाला में कुल्ली मुवाफ़िक़त और मुताबिक़त है और अहले-इस्लाम को वाज़ेह और ज़ाहिर हो कि उसूल ईमान और अक़ीदे मसीहियों के ये हैं जिन पर कुल दारो मदार इस मज़्हब हक़ का है।
पहला कि ख़ुदा और वाहिद और लाशरीक व वाजिब-उल-वजूद और वजूब लि-ज़ाता हैई
दूसरा : अल्लाह त’आला की पाक ज़ात में तीन उक़नूम हैं जो एक ही अज़लियत व अबदियत और जलाल बुज़ुर्गी और हश्मत और इक़्तिदार रखे और ये तीनों एक हैं।
तीसरा : सिर्फ सय्यदना मसीह के पाक कफ़्फ़ारे से आदमजा़द की नजात है अब अगर हज़रात-ए-अहले-इस्लाम ममदूह को मसीहियों की मो’अतमिद किताबों अला-उल-ख़ुसूस इन्जील-ए-मुक़द्दस के उसूल ईमान में किसी जमा’अत या कलीसिया के बाहम मुख़ालिफ़त और फ़र्क़ है तो ज़रूर है कि निशान देने पर ऐसा ना कर सके इस्लाम के फ़ाज़िलों पर क्या मुन्हसिर है कि कोई मुर्तद और मुन्किर भी नहीं कह सकता कि कलीसियाएं मज़्कूर में से फ़ुलां कलीसिया अल्लाह त’आला को वाहिद व लाशरीक और वाजिब-उल-वजूद वजूब लि-ज़ाता कहती है और फ़ुलां कलीसिया इस उसूल से साफ़ इन्कार करती है और यह ये कि फ़ुलां जमा’अत अल्लाह त’आला की पाक ज़ात में तीन उक़नूम को जो एक ही अज़लियत व अबदियत और जलाल बुज़ुर्गी और मशियत और इक़्तिदार रखते और तीनों एक है मानती है और फ़ुलां जमा’अत इस उसूल को रद्द करती है या आंका फ़ुलां कलीसिया सिर्फ़ सय्यदना मसीह के पाक कफ़्फ़ारे से आदमजा़द को नजात मिलने से इक़रार करती और ईमान लाती है और फ़ुलां जमा’अत इस उसूल से मुन्किर है आलम फ़हीम और फ़ाज़िल सलीम का ये काम है कि अपने हर एक क़ौल को दलाईल काते’ और बराहीन साते’ से साबित कि आम लोगों की मानिंद मह्ज़ दा’वे ही दा’वे हुए अहले-इस्लाम मज़्हब मसीही की मुतज़क्किरा बाला कलीसियाओं की मुख़ालिफ़त का बाइस और सबब तो दर्याफ़्त करते हैं पर पहले नाइत्तिफ़ाक़ी को इन्जील या किसी और मो’अतबर किताबों से हमारी तरह साबित हैं फ़र्माते ज़ेर कि हम लोगों ने अहले-इस्लाम की अज़बस की मो’तमद और मुरव्वज व मशहूर किताबों से उनके डेढ़ सौ (150) फ़िर्क़ों की मुख़ालिफ़त को ऐसा साबित किया है जो साबित करने का हक़ था पर अहले-इस्लाम ने ऐसा नहीं किया बल्कि सुनी सुनाई बात तहरीर कर दी और बेचारे मसीहियों पर त’अन कर दिया चुनान्चे एक हमारे दोस्त और भाई ग़ुलाम हुसैन ख़ान नाम की तहरीर से ऐसा मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) हुआ कि विलायत में मसीहियों के बहुत से फ़िर्क़े हैं ये वो बात है किریاق ازعراق آوردہ شود مارگزیدہ مردہ شود بہلا अगर मसीहियों के बहुत से फ़िर्क़े विलायत में हैं तो अपने इद्दिआ (दाअवेदार होने) को ज़ीरक और दानिशमंद आदमियों की तरह बख़ूबी साबित करके ऐसा एतराज़ किया होता अल-ग़र्ज़ इन्साफ़ और हक़ जोई से ये अम्र बईद है कि इन्सान दा’वा करे और सबूत ना दे अहले-इस्लाम को अज़बस कि लाज़िम और वाजिब है कि हक़ जोई के वास्ते रूह-उल-क़ुद्स से मदद और इ’आनत तलब करें तो यक़ीन-ए-कामिल है कि आफ़्ताब सदाक़त का जलवा और सुबह के नूरानी सितारे की रोशनी और सीहोन का नूर पाकर और इस नाज़ुक मुक़द्दमे को समझ कर हयात-ए-अबदी और ज़िंदगी सरमदी ज़रूर ही पाएंगे वाला फ़ला।
बाक़ी रहा इस अम्र का जवाब कि मसीहियों में एक रोमन कैथोलिक फ़िर्क़ा है और कि वो बुत-परस्ती करता है सो दर-हक़ीक़त मसीहियों में ये फ़िर्क़ा था और किसी ना किसी तरह से एक क़िस्म की बुत-परस्ती भी करता था इस में कुछ शक नहीं पर ग़ौर और इन्साफ़ करना चाहिए कि आया मुम्किन है कि कोई फ़िर्क़ा बुत-परस्ती भी करे और मसीही होने का दा’वा भी पेश लाए ज़ीराक किताब-ए-मुक़द्दस के हर हिस्से में हर क़िस्म की बुत-परस्ती के बाबत एक सख़्त मुमानि’अत है और ख़ुसूसुन इन्जील-ए-मुबारक में बुत-परस्ती के बारे में इस दर्जे तक मुमानि’अत अयाँ और मुन्कशिफ़ (ज़ाहिर) है कि हर आला व अदना और आलिम व जाहिल जानता और पहचानता है कि इन्जील की ता’लीमात बुत-परस्ती को बिल्कुल नेस्त व नाबूद करने वाली है बल्कि इन्जील की सरीह ता’लीमात के असर से अक्सर मुल्कों और जज़ीरों मिस्ल हिन्दुस्तान और सीलून और फ़ीजी और आसाम और बा’ज़ खित्ते चीन से बुत-परस्ती नेस्त व नाबूद हो गई और होती जाती है अल-हक़ इन्जील बुत-परस्ती और ख़ुद-परस्ती की तबाह और बर्बाद करने वाली है इस में कुछ शुब्हा नहीं पस अगर रोमन कैथोलिक फ़िर्क़ा बुत-परस्ती करके मसीही कहलाएँ तो ऐसा है जैसा मुसलमान भाईयों में ज़ाहिरन और एलानिया पीर-परस्ती और क़ब्र परस्ती और ताज़िया परस्ती करके अहले-इस्लाम के अहले-इस्लाम बने रहते हैं तो क्या इस से ये लाज़िम है कि आया मुसलमानों का मिल्लत व मज़्हब ज़ईफ़ है और मिन-जानिब इलाह नहीं हरगिज़ ऐसा नतीजा नहीं निकलता कि गो मज़्हब इस्लाम दर-हक़ीक़त मिन-जानिब इलाह नहीं मगर हम लोग इन दलीलों और वजहों से इस को मिन-जानिब अल्लाह ना होने के लिए साबित नहीं करते बल्कि वो और बराहीन साते’ और दलाईल काते’ हैं कि जिन के रु से मज़्हब इस्लाम ग़ैर अल-ग़र्ज़ मज़्हब मसीही हैं अगर रोमन कैथोलिक फ़िर्क़े का शुमार होता और कि वो बुत-परस्ती भी करता है तो क्या इस वजह से मसीही मज़्हब जो पाक और मुक़द्दस है हक़ और सच्च नहीं समझा जाता ऐसा नहीं हो सकता और अहले-इस्लाम को ये बात अब तक मालूम नहीं कि कलीसियाए जामा’ ने इस फ़िर्क़े को मर्दूद और मन्सूख़ कर दिया है और कि वो इसी नज़र से रोज़ बरोज़ कम हुआ जाता है यहां तक कि अक्सर मुल्कों में इस फ़िर्क़े का नामो-निशान तक भी नहीं रहा और क़रीना (बहमी ताल्लुक़) क़वी है कि ये फ़िर्क़ा बहुत जल्दी अदम और नीस्ती में मिल जाएगा ख़ुलासा कि रोमन कैथोलिक फ़िर्क़े के होने से मसीही मज़्हब ग़ैर-ए-हक़ तसव्वुर या तस्दीक़ नहीं हो सकता ज़ीराक इस मज़्हब का दारोमदार इन्जील मुक़द्दस पर है और बस।
और जो अहले-इस्लाम मौसूफ़ ने लार्ड सर विलियम म्यूर साहब की तारीख़ कलीसिया और इन्जील पाक का हवाला दिया है सो मह्ज़ ग़लत है अहले-इस्लाम की समझ में क्या आ गया कि ऐसा झूटा हवाला देकर अपने नामे आमाल को और बर्बाद किया रीज़ाक लार्ड साहब ममदूह ने ऐसा नहीं कहा और न इंजील पाक के किसी मुक़ाम और किसी मौक़े पर ना ज़िक्र है बल्कि लार्ड साहब मौसूफ़ तारीख़ मज़्कूर में जहान कलीसियाओं का ज़िक्र करते हैं कहीं इशारे और किनाये के तौर पर भी नहीं अरक़ाम फ़र्माते कि इन कलीसियाओं और जमा’अतों का उसूल ईमान व अक़ीदा अलैहदा अलैहदा है तारीख़ मस्तूर और इन्जील मुक़द्दस के अक्सर मुक़ामों से साफ़ ज़ाहिर है कि जो उसूल ईमान व अक़ीदा और यरूशलेम की कलीसिया का है फ़िल-हक़ीक़त वही अक़ीदा और उसूल ईमान अन्ताकिया इफ्सुस असरमाना एथीनी कोज़ीनता रुम सिकंदरिया क्रेतागो की कलीसियाओं और जमा’अतों का है अलग-अलग मुल्कों की जमा’अतों से ये नतीजा कभी नहीं निकलता कि आया उनके उसूल ईमान व अक़ीदे से भी जुदा-जुदा हैं हाँ तारीख़ मज़्कूर में तो नहीं पर इन्जील पाक के बा’ज़ मुक़ामों में पौलुस रसूल और यूहन्ना रसूल के इल्हाम के रु से बा’ज़ कलीसियाओं को ख़फ़ीफ़ बातों में इल्ज़ाम देते हैं ताकि उनके अख़्लाक़ तहज़ीब और शाइस्ता हो जाएं ना कि उनके मुख़्तलिफ़ अक़ीदों का कहीं ज़िक्र और इस्बात हो और बिलफ़र्ज़ अगर ऐसा हुआ भी तो अस्ल बात में जो मुराद अक़ाइद मुन्दरिजा बाला से है क्या फ़र्क़ आता है और कलीसिया के म’अनी दीनदार शख्सों की जमा’अत है ना कि अलग-अलग फ़िर्क़ों से ग़र्ज़ है मसलन मुसलमानों की निस्बत अगर कहा जाये कि अरबी मुसलमान ईरानी मुसलमान और हिन्दुस्तानी मुसलमान और यह कहकर नतीजा निकालें कि अहले-इस्लाम में मुख़्तलिफ़ फ़िर्क़े हैं जिनका उसूल ईमान अलग-अलग है तो कोई आक़िल और ज़ीरक इस बात को तस्लीम ना करेगा यही हाल मसीही कलीसियाओं का है अल-अर्ज़ अहले-इस्लाम का एतराज़ बे-जा है और यह कि चर्च आफ़ इंगलैंड लंडन इंडपेंडन्ट बप्टिस्ट मिशन जर्मन कलीसिया अमरीकन प्रेसबेटरियन रोमन कैथोलिक के सिवा सब उसूल ईमान और अक़ाइद में बाहम कुल्ली मुवाफ़िक़त और मुताबिक़त रखती हैं और भी यरूशलेम की कलीसिया का जो उसूल ईमान है वही अन्ताकिया और इफ्सुस और अज़मरना और एथीनी और कुरंथी और रोम और सिकंदरिया और क्रेतागोई की कलीसियाओं का है और ना लार्ड सर विलियम म्यूर साहब तारीख़ कलीसिया में उनके उसूल ईमान व अक़ाइद में फ़र्क़ करते और ना इन्जील मुक़द्दस में कहीं ये ज़िक्र पाया जाता है अब हज़रात अहले-इस्लाम की ख़िदमत में हमारी ये इल्तिमास है कि आप लोग किताब पाक की ता’लीमात में ज़रा ग़ौर करें और आस्मानी रोशनी को ख़ुदा बाप से मांग कर हक़ मज़्हब का नतीजा निकालें ताकि हमेशा की ज़िंदगी हासिल होए मुताबक़ी
इल्ज़ामी जवाब
अब इरादा है कि अहले-इस्लाम के फ़िर्क़ों का नाम और ता’दाद जहां तक हो सके और ख़ुसूसुन उनके उसूल ईमान व अक़ाइद का हाल बमूजब तश्रीह और तफ़्सील ख़ुद उलमा और फुज़लाए अहले-इस्लाम ही के जैसा कि अल्लामा अबु अल-क़ासिम राज़ी व ग़यास उल-मिल्लत वालदैन ख़ुसूसुन मुल्ला मुहम्मद मुहसिन फ़ानी अल-ख़ुसूस शाह अब्दुल क़ादिर जीलानी के तहरीर किया जाए और तरफ़ा माजरा ये है कि वो फ़िर्क़े बाहम उसूल ईमान में मुख़ालिफ़ और मुबाईन हैं ताकि अहले-इस्लाम मौसूफ़ के क़ौल बमूजब कि कस्रत फ़िर्क़ों की एक पक्की दलील ज़ो’फ़ इस मज़्हब की है जिसमें फ़िर्क़े दाख़िल हैं अहले-इस्लाम का मज़्हब ज़ईफ़ तसव्वुर बातस्दीक़ किया जाये अब अहले-इस्लाम ममदूह को लाज़िम व वाजिब है कि पहले अपनी उन किताबों को जिनमें ये ज़िक्र कमाल तश्रीह और तफ़्सील के साथ मर्क़ूम है मुलाहिज़ा फ़रमाएं और फिर मसीही वालों पर अगर मुनासिब और वाजिब हो तो ऐसे ऐसे बे-बुनियाद एतराज़ ना करें और वाज़ेह हो कि फुज़लाए ममदूह की तस्नीफ़ात के जिनसे ये हाल तल्ख़ीस किया जाता है हमारे पास मौजूद हैं जो कोई चाहे मुलाहिज़ा करे।
अहले-इस्लाम के डेढ़ सौ (150) फ़िर्क़ों की ता’दाद व नाम व
उसूल ईमान
(1) पहला फ़िर्क़ा अलविया (فرقہ علویہ)
इस फ़िर्क़े वाले हज़रत अली इब्ने अबी तालिब को जो पैग़म्बर इस्लाम के चचा ज़ाद भाई और उन के दामाद भी थे नबी कहते हैं और उनका दा’वा ये है कि फ़िल-हक़ीक़त वो दर्जा नबुव्वत कि जो हज़रत अली को नाज़िल होने पर था मस्लिहतन मुहम्मद साहब को नाज़िल हुआ गोया कि मुहम्मद साहब एक आरिज़ी और मजाज़ी तौर पर नबी थे ना कि हक़ीक़ी तौर पर।
(2) दूसरा फ़िर्क़ा अबदिया (فرقہ ابدیہ)
इस फ़िर्क़े वालों का उसूल ईमान ये है कि हज़रत अली हज़रत मुहम्मद की नबुव्वत में शरीक हैं और एक दर्जा नबुव्वत का दोनों साहिबों को हासिल था।
(3) तीसरा फ़िर्क़ा शी’आ (فرقہ شیعہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि हज़रत अली पैग़म्बर इस्लाम के तमाम अस्हाबों से आला व बरतर हैं और अगर कोई आदमजा़द ऐसा ईमान ना रखे वो काफ़िर है और इमाम हसन और इमाम हुसैन की शहादत मुसलमानों का नजात का ख़ास बाइस है और अबू बक्र और उमर और उस्मान और तलहा और ज़ुबैर वग़ैरह हज़रत मुहम्मद के ख़लीफों के हक़ में बुरा कहना और गाली देना इबादत है और चार शादियों के इलावा मुत’आ करना भी जायज़ और दुरुस्त है।
(4) चौथा फ़िर्क़ा इस्हाक़िया (فرقہ اسحاقیہ)
इस फ़िर्क़े वाले ये ईमान रखते हैं कि नबुव्वत और पैग़म्बरी अभी तक ख़त्म नहीं हुई और कि पैग़म्बर इस्लाम ख़त्म रसुल ख़ातिम पैग़ंबरान नहीं।
(5) पांचवां फ़िर्क़ा ज़ैदिया (فرقہ زیدیہ)
उनका उसूल ईमान ये है कि नमाज़ में जो एक तरह पर रब-उल-आलमीन की जनाब में हुज़ूरी है हज़रत अली की औलाद के सिवा किसी और को इमाम ना करना चाहिए गो क़ुर्आन और हदीसों में इस अम्र की ख़ुसूसियत ना हो और कि बेऔलाद हज़रत अली के इबादत-ए-ख़ुदा जायज़ नहीं।
(6) छटा फ़िर्क़ा अब्बासिया (فرقہ عباسیہ)
इस फ़िर्क़े वालों का उसूल ईमान ये है कि अब्बास नामे अब्दुल मुत्तलिब के बेटों के सिवा जो पैग़म्बर इस्लाम के भाईयों में से हैं किसी को इमाम नहीं जानना चाहिए हालाँकि मो’अतमद अलैह किताबों से साफ़ साबित है कि बारह (12) इमाम हैं यानी हज़रत अली, हसन, हुसैन, ज़ैन-उल-आबिदीन, मुहम्मद बाक़िर, जाफ़र सादिक़, मूसा काज़िम अली, रज़ा नक़ी, तक़ी, अस्करी, मह्दी।
(7) सातवाँ फ़िर्क़ा इमामिया (فرقہ امامیہ)
उसूल ईमान उनका ये है कि ज़मीन इमाम-ए-ग़ैब से ख़ाली नहीं रहती और भी सिवाए बनी हाशिम के किसी के पीछे नमाज़ ना अदा करनी चाहिए और हाशिम हज़रत मुहम्मद के जद्दे आला का नाम है।
(8) आठवां फ़िर्क़ा नादसिया (فرقہ نادسیہ)
इस फ़िर्क़े का उसूल ईमान ये है कि हर कोई जो अपने आपको बड़ा तसव्वुर करता है वो काफ़िर है और कि ये हदीस कुदसी कि لولاک لماخلقت الافلاک जिसका तर्जुमा ये है कि “ऐ मुहम्मद अगर तुझको ना पैदा करता तो ज़मीन और आस्मान को भी ना पैदा करता” मह्ज़ ग़लत है।
(9) नवां फ़िर्क़ा मुतनासीहना (فرقہ متناسیحنہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े का ये है कि जब इन्सान की रूह क़ालिब से निकल जाती है तब किसी दूसरे क़ालिब में आती है। मैं कहता हूँ कि बईना ये अक़ीदा हिंदूओं का है जिसको वो लोग आवागवान कहते हैं और मालूम होता है कि मौलवी जलाल उद्दीन रूमी जिस पर सुन्नी अहले-इस्लाम बड़े नाज़ाँ हैं यही मज़्हब व मिल्लत रखते थे ज़ीराक क़ौल उनका है ہفت دوہفتادہ قالب دیداام ہمچو سبرہ بارہار ویئدہ ام"
(10) दसवाँ फ़िर्क़ा ला’ईनियाह (فرقہ لاعینیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि तलहा और ज़ुबैर पर जो पैग़म्बर इस्लाम के अस्हाबों से थे और भी मुसम्मात आईशा पर जो हज़रत मुहम्मद की ज़ौजा (बीवी) और अबू बक्र की बेटी थी लानत कहनी चाहिए हालाँकि हज़रत मुहम्मद ने उनको अशरा मुबश्शरा (दस (10) जन्नती सहाबा) में शुमार किया था।
(11) ग्यारहवां फ़िर्क़ा राज’इया (فرقہ راجعیہ)
इस फ़िर्क़े का उसूल ईमान ये है कि हज़रत अली फिर दुनिया में आएंगे और अब बादल में रहते हैं।
(12) बारहवाँ फ़िर्क़ा मर्तज़िया (فرقہ مرتضیہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े का ये है कि मुसलमान बादशाह के साथ शामिल हो कर जिहाद और लड़ाई करनी वाजिब है और क़ुर्आन की तालीम जिसमें जिहाद का हुक्म है दलाईल अपने दा’वे के समझते हैं।
(13) तेरहवां फ़िर्क़ा इर्ज़क़िया (فرقہ ارزقیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का करामत वलियों और इमामों को बातिल करके कहता है कि कोई शख़्स आलम-ए-ख़्वाब और रोया में ग़ैब की बात नहीं देख सकता ज़ीराक वह्य और इल्हाम का नाज़िल होना मुनक़ते’ हो चुका है। हम कहते हैं कि काश वो लोग दानियाल नबी के सहीफ़े के 9 बाब की 24 वग़ैरह आयात को आख़िर बात तक पढ़ें तो कि ये अम्र हक़ और सच्च है कि अठारह सौ सत्तर (1870 ई॰) साल गुज़रे कि ख़ास तौर पर वह्य का नाज़िल होना मुनक़ते’ हो चुका है फिर हज़रत मुहम्मद पर कहाँ से नाज़िल हुई फ़ताम्मुल।
(14) चौधवां फ़िर्क़ा रियाज़िया (فرقہ ریاضیہ)
इस फ़िर्क़े का अक़ीदा है कि ईमान क्या चीज़ है वो एक नेक-बख़्त आदमी का क़ौल और परहेज़गार आदमी का फ़े’अल और नियत और सुन्नत है।
(15) पंद्रहवां फ़िर्क़ा ता’लबिया (فرقہ تعلبیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि हमारे सारे काम जिनकी हमको ज़रूरत और ख़्वाहिश है आप हासिल हो जाते हैं ख़ुदा त’आला और उस की क़ुद्रत और मशियत की कुछ ज़रूरत नहीं।
(16) सोलहवां फ़िर्क़ा ख़ाज़मिया (فرقہ خازمیہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े का ये है कि ईमान की फ़र्ज़ियत अभी तक पहचानी नहीं गई और ना मालूम कि क्या और कहाँ तक है।
(17) सतरहवां फ़िर्क़ा
इस फ़िर्क़े के ईमान की बुनियाद ये है कि जिहाद में काफ़िरों के मुक़ाबले से ख़्वावह दुगने हों भागना कुफ़्र है। हम कहते हैं कि शायद ये कभी मुसलमानों ने नहीं सुना कि ख़ुदा मुहब्बत है इसलिए जहान देखो मुसलमानों के उसूल ईमान में जिहाद और लड़ाई का ज़िक्र है मुहब्बत और उल्फ़त का नाम तक नहीं अल-अज़मत अल्लाह ये अजब मज़्हब और तरफ़ा मिल्लत और हैरत-अंगेज़ दीन है।
(18) अठारवां फ़िर्क़ा कोज़िया (فرقہ کوزیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि बहुत मालिश के बग़ैर बदन पाक नहीं हो सकता और जब तक बदन पाक ना हो इबादत जायज़ नहीं।
(19) उन्नीसवां फ़िर्क़ा कंज़िया (فرقہ کنزیہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि ज़कात दीनी फ़र्ज़ नहीं और क़ुर्आन में वो आयत जिसमें इस का ज़िक्र है अल-हाक़ी (तहरीफ़) है किसी लालची और सग-ए-दुनिया ने वज़ा’ करके दाख़िल कर दी है।
(20) बीसवां फ़िर्क़ा मो’तज़िला (فرقہ معتزلہ)
अहले-इस्लाम में ये बड़ा ज़बरदस्त और हकीम फ़िर्क़ा है क़ुर्आन के निहायत मो’तमद मुफ़स्सिर इसी फ़िर्क़े में से हुए जैसा कि क़ुर्आन की तफ़्सीर कसाफ़त का मुसन्निफ़ अल्लामा ज़मख़शरी वग़ैरह है।
(26) छब्बीसवां फ़िर्क़ा अफ़’आलिया (فرقہ افعالیہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े का ये है कि इन्सान के लिए उस के फ़े’अल हैं और वो भी क़ुद्रत और इख़्तियार के बग़ैर है।
(27) सत्ताईसवा फ़िर्क़ा म’इया (فرقہ معیہ)
उसूल ईमान इनका ये है कि आदमी के वास्ते फ़े’अल और क़ुद्रत है बग़ैर ताक़त देने अल्लाह त’आला के। हम कहते हैं कि इनके अक़ीदे से साबित है कि इन्सान मज्बूर है।
(28) उठाईसवां फ़िर्क़ा तारिकिया (فرقہ تارکیہ)
इस फ़िर्क़े वालों का अक़ीदा ये है कि ईमान के बाद कोई दूसरी चीज़ फ़र्ज़ नहीं और ना किसी फ़े’अल और अमल के करने से इन्सान को कुछ फ़ायदा है।
(29) उनत्तीसवां फ़िर्क़ा बहसिया (فرقہ بحثیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है के ख़ैरात करनी लाहासिल है हर एक शख़्स अपनी तक़्दीर के मुवाफ़िक़ खाता पीता है पस किसी को कोई चीज़ देनी कुछ ज़रूरत और फ़र्ज़ नहीं।
(30) तीसवां फ़िर्क़ा तमिया (فرقہ تمیہ)
अक़ीदा इनका ये है कि भलाई से वो भलाई मुराद है कि जिसने इन्सान की रूह तसल्ली पज़ीर होए।
(31) इकत्तीसवां फ़िर्क़ा कसाअयतिया (فرقہ کساایتہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि सवाब और अज़ाब इन्सान के अमलों और फ़े’अलों से नहीं होता।
(32) बतीसवां फ़िर्क़ा सबितिया (فرقہ صبیتہ)
अक़ीदा इनका ये है कि दोस्त हरगिज़ दोस्त को अज़ाब नहीं देता हरगाह कि अल्लाह त’आला मख़्लूक़ात का दोस्त है पस जहन्नम में किसी को नहीं डालेगा।
(33) तैतिस्वां फ़िर्क़ा खूफिया (فرقہ خوفیہ)
उसूल ईमान इनका ये है कि दोस्त दोस्त को नहीं डराता पस वा’अदे और वईद ख़ुदा ए त’आला के कुछ अस्ल नहीं रखते।
(34) चौंतीसवां फ़िर्क़ा फ़िक्रिया (فرقہ فکریہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि हक़ त’आला की मा’र्फ़त में फ़िक्र करना एक ख़ास-उल-ख़ास इबादत है इस से बेहतर और कोई इबादत नहीं।
(35) पैतीसवां फ़िर्क़ा जिस्मिया (فرقہ جسمیہ)
इस फ़िर्क़े वालों का अक़ीदा ये है कि जहान में जो लोग क़िस्मत और नसीब के क़ाबिल हैं ग़लती पर हैं ज़ीराक क़िस्मत और नसीब कुछ चीज़ नहीं।
(36) छत्तीसवां फ़िर्क़ा हुज्जतिया (فرقہ حجتیہ)
अक़ीदा इस हरीफ़ और चालाक फ़िर्क़े का ये है कि जिस सूरत में तमाम वारदात और माजरे हक़ त’आला की मशियत और उस के हुक्म से हैं तो इस सूरत में इन्सान पर कुछ हुज्जत नहीं जो जहन्नम में जाये और अज़ाब में गिरफ़्तार होए।
(37) सैतीसवां फ़िर्क़ा क़दरिया (فرقہ قدریہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि इन्सान अपने फ़े’अलों और अमलों का मुख़्तार है और हर एक अम्र में ख़ुदा-ए-त’आला की मदद और इ’आनत का मुहताज नहीं।
(38) अड़तीसवां फ़िर्क़ा अहदिया (فرقہ احدیہ)
इस फ़िर्क़े का अक़ीदा ये है कि फ़राइज़ यानी ख़ुदा के हुक्मों का हमको इक़रार है और पैग़म्बर इस्लाम के कामों से इन्कार यानी जो उन्होंने काम किए हम ना करेंगे।
(39) उन्तालीसवां फ़िर्क़ा मसनिया (فرقہ مثنویہ)
ये फ़िर्क़ा अजीब उसूल ईमान रखता है कहता है कि हर एक नेकी और भलाई हक़ त’आला की तरफ़ से और हर एक शर और बुराई अहरमन से।
हम कहते हैं कि इस फ़िर्क़े का उसूल ईमान गैरों के अक़ीदे से मिलता है ज़ीराक वो लोग अपनी किताब ज़ंद व पाज़िंद के बमूजब जिसको गबर लोग अपने ख़याल में इल्हामी समझते कहते हैं कि म’आज़-अल्लाह दो ख़ुदा हैं एक यज़्दान जो नेकी का ख़ुदा है और दूसरा अहरमन जो बुराई का ख़ुदा है पस अहले-इस्लाम के इस फ़िर्क़े से साफ़ मालूम होता है कि ये फ़िर्क़ा ज़रदुश्त यानी गब्रों का अक़ीदा रखता है और फिर ये मज़्हब इस्लाम में दाख़िल है।
(40) चालीसवां फ़िर्क़ा केसानिया (فرقہ کیسانیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि हमारे अफ़’आल और आमाल फ़ानी और ज़वाल पज़ीर हैं लिहाज़ा अज़ाब और सवाब के लायक़ नहीं।
(41) इकतालीसवां फ़िर्क़ा शैतानिया (فرقہ شیطانیہ)
इस फ़िर्क़े का उसूल ईमान ये है कि शैतान कुछ वजूद नहीं रखता सिर्फ़ अहले ग़र्ज़ और दुनिया-दार लोगों की हिर्फ़त है।
(42) बयालीसवां फ़िर्क़ा शरीकिया (فرقہ شریکیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि ईमान एक मख़्लूक़ चीज़ है कभी होता है और कभी नहीं होता फिर इस को हासिल करना क़िस्म महालात से है।
(43) तैतालीसवां फ़िर्क़ा वहिमिया (فرقہ وہمیہ)
इस फ़िर्क़े वालों का अक़ीदा है कि हमारे अफ़’आल व आमाल की ख़्वाह शाइस्ता हों और चाहे नाशाइस्ता जज़ा और सज़ा नहीं।
(44) चवालीसवां फ़िर्क़ा रविदिया (فرقہ رویدیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि ये दुनिया क़दीम और लाज़वाल है फ़ानी और हादिस हरगिज़ नहीं जैसे वाक़ियात अब हो रहे हैं हमेशा तक वैसे ही होते रहेंगे।
(45) पैंतालीसवां फ़िर्क़ा नाकसिया (فرقہ ناکسیہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े वालों का ये है कि हरगाह इमाम वक़्त ख़ुरूज करे उस वक़्त जिहाद और कुफ़्फ़ार से लड़ाई करना जायज़ है।
(46) छियालीसवां फ़िर्क़ा मुबतरिया (فرقہ مبتریہ)
इस फ़िर्क़े वालों का अक़ीदा ये है कि गुनेहगारों की तौबा व इस्तग़फ़ार क़ुबूल नहीं क्योंकि वो ज़ी अक़्ल हो कर क्यों ख़ताकार होते हैं।
(47) सैतालीसवां फ़िर्क़ा क़ास्तिया (فرقہ قاسطیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि इल्म व हिकमत और मेहनत व मशक्क़त और रुपया पैसा हासिल करना ख़ुदा के हुक्मों में से है।
(48) अड़तालीसवां फ़िर्क़ा निज़ामिया (فرقہ نظامیہ)
ये फ़िर्क़ा इस्लाम में एक अजीब फ़िर्क़ा है उसूल ईमान इस हरीफ़ फ़िर्क़े का ये है कि अल्लाह त’आला को शेय और चीज़ कहना जायज़ और रवा है और इस फ़िर्क़े के मुर्शिद अल्लामा निज़ाम का क़ौल है कि इन्सान सिर्फ़ रूह ही का नाम है और इज्मा’ उम्मत को हरगिज़ ना मानना चाहिए और कुफ़्र व ईमान और बंदगी व गुनाह और मुहम्मद साहब के काम व शैतान के काम बराबर हैं हज़रत उमर ख़लीफ़ा सानी पैग़म्बर इस्लाम और हज़रत अली की आदात हुज्जाज ज़ालिम की आदात में कुछ फ़र्क़ नहीं और क़ुर्आन की इबारात मोअजिज़ा नहीं और जो कुछ इस जहान में पाया जाता है सब बहिश्त में होगा।
(49) उनपचासवां फ़िर्क़ा मतूलुफिया (فرقہ متولفیہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि हम नहीं जानते कि शर और गुनाह ख़ुदा की मशियत और हुक्म से है या बेमशियत और हुक्म के बहर-सूरत हमको इस मसअले में शक कुल्ली है।
(50) पचासवां फ़िर्क़ा जहिमिया (فرقہ جہمیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि ईमान दिल से इलाक़ा रखता है ना ज़बान से और अज़ाब क़ब्र और मुन्किर व नकीर के सवालों और भी हौज़-ए-कौसर और मलक-उल-मौत से इन्कार करते हैं और इस से इन्कार है कि अल्लाह त’आला किसी नबी या वली से हम-कलाम हुआ है।
(51) इक्कावनवां फ़िर्क़ा मा’तलिया (اکیانواں فرقہ معطلیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि ख़ुदा त’आला के नाम और सिफ़ात मख़्लूक़ात और हादिस हैं ना क़दीम व अबदी ज़ीराक जैसा जैसा उस की सिफ़तों का ज़हूर होता रहा वैसा वैसा नाम उन सिफ़ात का रखा गया।
(52) बानवां फ़िर्क़ा मत्राबसिया (فرقہ مترابصیہ)
इस फ़िर्क़े का अक़ीदा ये है कि इल्म और क़ुद्रत और भी मशियत मख़्लूक़ हैं और यह मख़्लूक़ात क़दीम और अबदी है ज़वाल पज़ीर और फ़ानी नहीं है।
(53) त्रेपनवां फ़िर्क़ा मतराक्बिया (فرقہ متراقبیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि हक़ त’आला एक मकान में है यानी ला-महदूद नहीं बल्कि मुक़य्यद और महदूद है।
(54) चौवनवां फ़िर्क़ा वारिया (فرقہ واریہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि ईमानदार जहन्नम में ना डाले जाएगा और बे ईमान जब जहन्नम में पड़ेंगे फिर मख़लिसी ना पाएंगे।
(55) पचपनवां फ़िर्क़ा हरक़िया (فرقہ حرقیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि जो आदमी दोज़ख़ में डाले जाएंगे सो वो इस क़द्र जलेंगे कि असर और निशान उनका दोज़ख़ में ना रहेगा।
(56) छप्पनवां फ़िर्क़ा मख़लूक़िया (فرقہ مخلوقیہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि क़ुर्आन और तौरेत और इन्जील और ज़बूर कलाम बशर हैं और भी मख़्लूक़ मुंतज़िम लोगों ने दुनियावी बंदो बस्त के लिए कलाम इलाही मशहूर कर दिया है।
(57) सत्तानवां फ़िर्क़ा अबरिया (فرقہ عبریہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े के मुरीदों और मुर्शिदों का ये है कि मुहम्मद साहब दीन इस्लाम के बानी एक मर्द ज़ीरक और अक़्लमंद और हकीम थे पर रसूल और पैग़म्बर ना थे।
(58) अठावनवां फ़िर्क़ा फ़ानिया (فرقہ فانیہ)
इस फ़िर्क़े वालों का अक़ीदा है कि जन्नत और दोज़ख़ दोनों फ़ना हो जाएंगे और दर सूरत का ऐसा हाल है तो पहर अला आबाद बहिश्त की ख़ुशी और जहन्नम का अज़ाब ग़लत है।
(59) उनसाठवां फ़िर्क़ा ज़िनादिक़िया (فرقہ زنادقیہ)
उसूल ईमान इस का ये है कि मे’अराज रूह से है ना जिस्म से दीद मुहम्मद ना ब चश्म दिगर। बल्कि बदाँ चश्म कि दारो बशर। ग़लत मह्ज़ है और हक़ त’आला दुनिया में नज़र आता है और ये आलम क़दीम और अबदी है और क़ियामत कुछ चीज़ नहीं।
(60) साठवां फ़िर्क़ा क़िबरिया (فرقہ قبریہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े का ये है कि जो लोग अज़ाब क़ब्र के क़ाइल हैं ग़लती पर हैं ज़ीराक क़ब्र में अज़ाब और तक्लीफ़ नहीं ये सिर्फ़ जाहिलों को डराना है।
(61) इक्सठवां फ़िर्क़ा वाक़फिया (فرقہ واقفیہ)
इस फ़िर्क़े के ईमान का उसूल ये है कि क़ुर्आन के मख़्लूक़ यानी कलाम बशर होने में हमको तवक़्क़ुफ़ है।
(62) बासठवां फ़िर्क़ा लफ्ज़िया (فرقہ لفظیہ)
उसूल ईमान इस गिरोह का ये है कि क़ुर्आन के अल्फ़ाज़ क़ारी के हैं मगर म’अनी अलबत्ता मिन-जानिब अल्लाह हैं।
(63) त्रेसठवां फ़िर्क़ा मरजिया (فرقہ مرجیہ)
ये गिरोह इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ है कि कुल पैग़म्बर और नबी वास्ते इंतिज़ाम जहान के कामों के जहन्नम का ख़ौफ़ और जन्नत की उम्मीद ज़ाहिर करते हैं वर्ना हक़ त’आला बंदों के अज़ाब करने से बेनियाज़ है और कुछ पर्वा नहीं रखता।
(64) चौसठवां फ़िर्क़ा ताज़किया (فرقہ تازکیہ)
इस फ़िर्क़े का उसूल ये है कि जब इन्सान ईमान लाता है फिर उस पर कोई अम्र और फ़र्ज़ नहीं है।
(65) पैंसठवां फ़िर्क़ा शाबईया (فرقہ شابئیہ)
इस फ़िर्क़े वालों का ये अक़ीदा है कि जिस शख़्स ने ये कलमा यानी ला-इलाहा इल्लल्लाह कहा फिर जो कुछ चाहे सो करे कुछ अज़ाब और बाज़ परुस ना होगा।
(66) छियासठवां फ़िर्क़ा राजिया (فرقہ راجیہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि इन्सान ना बंदगी और इता’अत से मक़्बूल होता और ना ख़ता और गुनाह से ख़ाती और आसी हो जाता है।
(67) सड़सठवां फ़िर्क़ा शाकिया (فرقہ شاکیہ)
इस गिरोह वाले कहते हैं कि हमको अपने में शक है और ये भी हम जानते हैं कि शायद ये रूह जो हम में सुकूनत पज़ीर है यही ईमान है।
(68) अड़सठवां फ़िर्क़ा नहिमिया (فرقہ نہیمہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि इल्म इलाही ईमान है और हर कोई जो अल्लाह त’आला की मर्ज़ी और ग़ैर-मर्ज़ी को नहीं जानता ज़रूर वो काफ़िर और बेईमान है उस को सज़ा होगी।
(69) उनसत्तरवां फ़िर्क़ा ‘अमलिया (فرقہ عملیہ)
इन गिरोह वालों का ईमान है कि इन्सान का अमल ही ईमान है और ईमान सिवा इस के और चीज़ नहीं है।
(70) सत्तरवां फ़िर्क़ा मनक़ुसिया (فرقہ منقوصیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि ईमान कभी ज़्यादा होता है और कभी कम।
(71) इकहत्तरवां फ़िर्क़ा मस्तसिया (فرقہ مستثیہ)
इस गिरोह का ईमान ये है कि ख़ुदा ने चाहा तो हम ईमान रखते हैं और अगर ख़ुदा की मशियत में नहीं तो हम ईमानदार नहीं हो सकते।
(72) बहत्तरवां फ़िर्क़ा अशरिया (فرقہ اشریہ)
इस फ़िर्क़े का अक़ीदा ये है कि दीन के मुक़द्दमें में उलमा का क़ौल बिल्कुल बातिल है और कि पक्की दलील कि जगह उनका क़ौल जायज़ और रवा नहीं समझा जाता।
(73) तिहत्तरवां फ़िर्क़ा बद’इया (فرقہ بدعیہ)
इस गिरोह का अक़ीदा ये है कि अमीर शख़्स की फ़रमांबर्दारी वाजिब और फ़र्ज़ है हर-चंद कि वो ख़ता और गुनाह का हुक्म दे।
(74) चोहत्तरवां फ़िर्क़ा मुशब्बिया ( فرقہ مشبیہ)
इस फ़िर्क़े का उसूल ईमान ये है कि दर-हक़ीक़त हक़ त’आला ने हज़रत आदम को अपनी सूरत पर पैदा किया और हक़ त’आला सूरत रखता है।
(75) पछत्तरवां फ़िर्क़ा हश्विया (فرقہ حشویہ)
इस फ़िर्क़े का उसूल ईमान ये है कि लोग जो वाजिब और सुन्नत और फ़र्ज़ में फ़र्क़ करते है ग़लती और गुमराही पर हैं ज़ीराक ये तीनों एक हैं और इन तीनों अम्रों में फ़र्क़ करना गुनाह बल्कि कुफ़्र है।
(76) छियोत्तरवां फ़िर्क़ा मंसूरीरिया (فرقہ منصوریہ)
इस हरीफ़ व अय्यार फ़िर्क़े का सर गिरोह अबी मंसूर है इस फ़िर्क़े वाले कहते हैं कि हमारा पीर आस्मान पर गया और रब-उल-आलमीन ने उस के सर पर अपना मुबारक हाथ फेरा और हमारे मुर्शीद का क़ौल है कि हज़रत येसू मसीह को ख़ुदा ने सबसे पहले पैदा किया और उन के बाद हज़रत अली को पैदा किया और ये कि नबी-अल्लाह हमेशा तक इस दुनिया में आते रहेंगे इन्क़िता’ उनका हरगिज़ ना होगा और जो मुहम्मद साहब को क़ुर्आन ख़त्म नबुव्वत कहता है ग़लत है और जिब्रईल फ़रिश्ता सहू से पैग़म्बर इस्लाम को क़ुर्आन दे गया वर्ना हज़रत अली को देना चाहिए था ज़ीराक अली मुहम्मद साहब से बेहतर है और वो अहले इल्म था और यह उम्मी मह्ज़ था।
(77) सितत्तरवां फ़िर्क़ा युनानिया (فرقہ ینانیہ)
इस फ़िर्क़े वाले कहते हैं कि ख़ुदावंद त’आला आदमी की सूरत में है इसलिए आदम को अपनी सूरत और शक्ल पर पैदा किया है और रुहानी व जिस्मानी सूरत का इम्तियाज़ कुछ ज़रूर नहीं।
(78) इटहत्तरवां फ़िर्क़ा तयारिया (فرقہ طیاریہ)
इस फ़िर्क़े का ईमान ये है कि हज़रत आदम में ख़ुदा की रूह थी और कि जब इन्सान की रूह क़ालिब से निकल जाती है फिर इस जहान में किसी और क़ालिब में हवा हो कर आती रहती है।
(79) उनस्सीवां फ़िर्क़ा सालमिया (فرقہ سالمیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि क़ियामत के दिन अल्लाह त’आला इन्सान की शक्ल में बसूरत मुहम्मद साहब ज़ाहिर होगा और कि ख़ुदा के पास कोई ऐसा राज़ है कि अगर वो खुल जाये तो उस की सब तदबीर बिगड़ जाये नबियों के पास भी वैसा ही कोई भेद है और अगर ये फ़ाश हो जाए तो उन की नबुव्वत और रिसालत बातिल हो जाए और हश्र के रोज़ काफ़िरों को भी ख़ुदा का दीदार होगा और इब्लीस ने अगरचे पहली बार आदम को सज्दा नहीं किया मगर दूसरी बार किया है और वो जन्नत में भी कभी नहीं गया और मुहम्मद साहब दा’अवा-ए-नुबूव्वत से पहले क़ुर्आन को याद करते थे जब याद हो चुका तब नबुव्वत का इद्दिआ (दा’अवा) कर दिया।
(80) अस्सीवां फ़िर्क़ा खिताबिया (فرقہ خطابیہ)
इस गिरोह का अक़ीदा ये है कि क़दीम से हर ज़माने में दो तरह के रसूल मब’ऊस हुआ करते थे एक चुपका रसूल दूसरा बोलता पस मुहम्मद साहब बोलते नबी थे और हज़रत अली चुपके रसूल।
(81) इक्यासीवां फ़िर्क़ा म’अमरिया (فرقہ معمریہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि ज़िंदगी व मौत वग़ैरह चीज़ें ख़ुदा ने पैदा नहीं कीं ये ख़ुद बख़ुद पैदा हो गई हैं और क़ुर्आन भी ख़्वाहिश जिस्मानी ने तालीफ़ कर दिया है ख़ुदा की मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ तस्नीफ़ नहीं हुआ और ख़ुदा अज़ली व अबदी और क़दीम नहीं चंद दिनों से हो गया है।
(82) बयासिवां फ़िर्क़ा क़ासिमिया (فرقہ قاسمیہ)
इस गिरोह का अक़ीदा ये है कि ख़ुदा समी’अ और बसीर व हाज़िर नाज़िर नहीं और क़ुर्आन इलाही कलाम नहीं है बल्कि इन्सान के ख़यालात व तोहमात हैं।
(83) त्रियासीवां फ़िर्क़ा क़लाबिया (فرقہ کلابیہ)
उसूल ईमान इस गिरोह का ये है कि क़ुर्आन के हुरूफ़ इन्सान के तरफ़ से हैं और मज़्मून बारी त’आला की जानिब से है और ख़ुदा की सिफ़ात कुछ चीज़ नहीं और जन्नत व दोज़ख़ दोनों फ़ानी और ज़वाल-पज़ीर हैं।
(84) चौरासीवां फ़िर्क़ा सुन्नी (فرقہ سنی)
इस गिरोह वालों का ये ईमान है कि एक ख़ुदा है बे-इरादा व इल्म के और मुहम्मद साहब नबी बरहक़ हैं और इन्सान अपने अमलों से जज़ा या सज़ा बहिश्त या दोज़ख़ पाएगा और हर चीज़ का फ़ा’इल मुतलक़ जनाब बारी त’आला है क्या ख़ैर और क्या शर उस की तरफ़ से है और मुहम्मद साहब के अस्हाबों को ये तबर्रा याद करना ऐन कुफ़्र है और चार इमाम हैं इमाम-ए-आज़म, इमाम शाफ़ई, इमाम हम्बल, इमाम मालिक और दीन का दारोमदार चार अम्रों पर है क़ुर्आन ,पैग़म्बर इस्लाम की अहादीस, इमामों के अक़्वाल, इज्तिमा उम्मत, और तरफ़ा ये कि इस गिरोह वाले इसी फ़िर्क़े को हक़ और सच्च समझते हैं बाक़ी और फ़िर्क़ों को रद्द करते और उनकी तर्दीद में बड़ी-बड़ी किताबें तस्नीफ़ करते और मुता’अ वग़ैरह को जायज़ नहीं जानते ये लोग औरों की निस्बत कस्रत से हैं।
(85) पिच्यासीवां फ़िर्क़ा ख़ारजिया (فرقہ خارجیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि हज़रत अली जो पैग़म्बर इस्लाम के दामाद और चचाज़ाद भाई हैं काफ़िर थे और उनका क़ौल है बारह इमाम जिन पर अस्ना अशरिया वाले क़ुर्बान और फ़िदा हैं मा’असूम नहीं थे और कहते हैं कि इमाम हसन एक औरत के लिए मस्मूम किया गया और इमाम हुसैन इमामत के वास्ते कर्बला में यज़ीद अमीर मुल्क-ए-शाम के सिपहसालार शिम्र नाम के हाथ से मारा गया ऐसों को इमाम और हादी समझना सरीह कुफ़्र और बेदनी है।
(86) छियासीवां फ़िर्क़ा इस्माईलिया (فرقہ اسمعیلیہ)
तारीख़ निगार-स्तान और तारीख़ गज़ीदा और ख़ुसूसुन ज़ीनत-उल-तारीख़ में मर्क़ूम है कि उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि एक इन्सानी इख़्तिरा और किसी पक्की अय्यारी से तालीफ़ हुआ ज़ेर कि इस में झूट को सच्च के साथ ऐसा पैवस्ता किया है कि बे-कामिल ग़ौर के हर एक इन्सान उस को समझ नहीं सकता और इन्सान की रूह जब एक कालबुद से अलग होती है तो फिर दूसरे और तीसरे अली ग़ैर-उल-निहाईत कालिबों में आकर दुनिया में आती है। लिहाज़ा हम कहते हैं कि ये जहान बराबर वैसा ही रहेगा अलबत्ता कुछ तग़य्युर और तबद्दुल हुआ करेगा और हर एक शख़्स जो इस तालीम को नापसंद करता है गर्दन मारने के क़ाबिल है। अल-ग़र्ज़ ये मुसलमान मुल्हिद मुक़ाम रूदबार-उल-मौत में गरज़ीन के क़रीब रहते हैं और हसन बिन सबाह के मरीद हैं एक ज़माने में ख़्वाजा नसीर उद्दीन तूसी से जो इमामिया मज़्हब वालों के बड़े नामी गिरामी मुज्तहिद थे मुबाहिसा हुआ आख़िरकार नतीजा इस का ये हुआ कि हलाकों ख़ान एक मशहूर फ़र्मा नर्व ए तुर्किस्तान ने बमूजब अग़वा से मुहक़्क़िक़ तूसी के उनसे लड़ाई की जिसका अंजाम कुछ बेहतर ना हुआ।
(87) सित्यासीवां फ़िर्क़ा ज़रफिया (فرقہ ظرفیہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि वो शख़्स जो ख़ुदा की हस्ती और उस के वजूद का क़ाइल हो और रसूलों का इन्कार करे और जो कि क़ुर्आन की तालीम है उस को भी रद्द करे वो काफ़िर और मुश्रिक नहीं है बल्कि काफ़िर और मुश्रिक वो शख़्स है जो वाजिब-उल-वजूद ख़ुदा की हस्ती से मुन्किर हो और मुहम्मद साहब और हज़रत अली की निस्बत उनका क़ौल है कि ये दोनों क़ातिल खूँरेज़ औरतों के मुरीद और दुनियावी इन्सान थे नजात और मग़्फिरत की उनसे उम्मीद रखनी एक लगू और बे बुनियाद और नादानी की बात है।
(88) इठ्यासीवां फ़िर्क़ा निसारिया (فرقہ نصاریہ)
इस गिरोह वाले हज़रत अली को वाजिब-उल-वजूद और वजूब-ए-लिज़ाता जानते और मानते हैं और कहते हैं कि बज़ाहिर पैग़म्बर इस्लाम हज़रत अली के ससुर थे पर दर-हक़ीक़त मुहम्मद साहब की नबुव्वत अली की दी हुई थी उनका क़ौल ये भी है कि अगर इन्सान गुनाह करके छोड़ दे और तौबा करे तो वो पाक और बे-गुनाह हो सकता है और इन्सान को मुंजी की ज़रूरत नहीं अल्लाह त’आला आप इन्सान को प्यार करता है और नजात दे सकता है किसी की कुछ ज़रूरत नहीं। हम कहते हैं कि इन लोगों का ये तो हाल है और फिर मुसलमान के मुसलमान बने हुए हैं उनको पक्की समझ इनायत करे।
(89) नवासीवां फ़िर्क़ा तमीमिया (فرقہ تمیمیہ)
उसूल ईमान इस गिरोह का ये है कि अगर कोई एक बार झूट बोले या कोई ज़रा सा गुनाह करे और उस पर इसरार करता रहे वो मुश्रिक है और जो आदमी चोरी शराबखोरी वग़ैरह गुनाह करे फिर करके छोड़ दे और अपनी आदत ना डाले तो वो अहले-इस्लाम है और मुहम्मद साहब उस की शफ़ाअत करेंगे।
(90) नव्वेवां फ़िर्क़ा हाज़मिया (فرقہ حازمیہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े का ये है कि दुश्मनी और दोस्ती ये दोनों सिफ़तें ख़ुदा की हैं और इन्सान हर एक काम और हरकत में मज्बूर है जैसा ख़ुदा की मशियत में होता है वैसा वो करता है।
(91) इक्यानवां फ़िर्क़ा अयाज़िया (فرقہ ایاضیہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े वालों का ये है कि अल्लाह त’आला का फ़र्ज़ सारे जहान के आदमजा़द पर ये है कि वो उस पर ईमान लाएं और हर एक कबीरा गुनाह शिर्क नहीं है बल्कि हर एक कबीरा गुनाह कुफ़रान-ए-ने’अमत अलबत्ता है।
(92) बानयुवां फ़िर्क़ा निरी’इया (فرقہ نیریعیہ)
इस फ़िर्क़े के लोगों का उसूल ईमान ये है कि इमाम जाफ़र सादिक़ जो कि हज़रत अली की औलाद में से है ख़ुदा हैं और जिस शक्ल और सूरत से वो इस जहान में नमूदार हुए असली सूरत ना थी बल्कि असली सूरत की मानिंद थी उस की परस्तिश जायज़ है और उसी पर ईमान लाना फ़र्ज़ है।
(93) तिरानवां फ़िर्क़ा जारुदिया (فرقہ جارودیہ)
अक़ीदा इस गिरोह का ये है कि हज़रत अली मुहम्मद साहब के असली जांनशीन और पहले नायब थे और इमाम हुसैन हज़रत अली के बेटे तक इमामत रही है बाद इस के जितने इमाम आए सब झूटे और मक्कार थे उनको शाफ़ी’ या हादी जानना नादानी है।
(94) चौरनवेवां फ़िर्क़ा मरजिया (فرقہ مرجیہ)
उसूल ईमान इस गिरोह का ये है कि क़ुर्आन मख़्लूक़ और कलाम बशर है और कि ख़ुदा ना कलाम करता और ना दिखलाई देता है और कि वो लामकाँ है और अर्श कुर्सी जन्नत और दोज़ख़ क़दीम और अज़ली हैं अज़ाब क़ब्र और अदालत के दिन की मीज़ान झूट बात है और ख़ुदा त’आला कोई सिफ़त नहीं रखता और ईमान सिर्फ दिल से ख़ुदा को जानना ना ज़बान से इक़रार करना है।
(95) पिच्यानवेवां फ़िर्क़ा सालहिया (فرقہ صالحیہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े का ये है कि ख़ुदा का जानना ईमान है और ना जानना कुफ़्र है और अल्लाह त’आला की पाक ज़ात में तस्लीस को मानना और उक़नूम सलासा का क़ाइल होना कुफ़्र नहीं है बल्कि यही इबादत है और इस पर ईमान लाना नजात का बाइस है।
(96) छियानवेवां फ़िर्क़ा योनिसिया (فرقہ یونسیہ)
उसूल ईमान इस गिरोह का ये है कि ख़ुदा की पहचान और उस के हुज़ूर ज़ारी और फ़िरोतनी बजा लानी ईमान और नजात का बाइस है और अगर इस में से कुछ भी कम हो जाए तो आदमी काफ़िर हो जाता है।
(97) सित्यान्वेवां फ़िर्क़ा हज़ीलिया (فرقہ ہذیلیہ)
अक़ीदा इस फ़िर्क़े वालों का ये है कि अल्लाह त’आला समी’अ और बसीर है और उस का कलाम कुछ मख़्लूक़ है और कुछ ग़ैर-मख़्लूक़ और उस की क़ुद्रत ग़ैर-महदूद नहीं है और जब ख़ुदा-परस्त लोग जन्नत में दाख़िल होंगे तब उनमें चलने फिरने का ज़ोर ना होगा और तरफ़ा ये कि अल्लाह त’आला में भी उस वक़्त ये क़ुद्रत ना होगी कि उन लोगों को चलने फिरने की ताक़त दे।
(98) अठानवेवां फ़िर्क़ा दहरिया (فرقہ دہریہ)
उसूल ईमान इस फ़िर्क़े का ये है कि कोई ख़ुदा नहीं और अगर फ़र्ज़ और तस्लीम भी करें कि कोई ख़ुदा है तो कुछ सिफ़त नहीं रखता और उस में इल्म और क़ुद्रत और ज़िंदगी नहीं है और ना देखने सुनने की लियाक़त रखता है और क़ुर्आन निरा कलाम बशर है और अल्लाह त’आला आदमियों के कामों और फ़े’अलों का ख़ालिक़ नहीं बल्कि वो अपने अफ़’आल के आप ख़ालिक़ हैं और यह दुनिया क़दीम से है और यूं ही रहेगी और इन्सान मरता नहीं सिर्फ बदल जाता है और ना नेक फ़े’अलों की जज़ा है और ना बद फ़े’अलों की सज़ा पाबंदी शरा’अ अगर हो सके तो अच्छी बात है और अगर ना हो सके तो कुछ ख़ौफ़ नहीं।
(99) निन्यानवेवां फ़िर्क़ा सूफ़िया (فرقہ صوفیہ)
अहले-इस्लाम में ये फ़िर्क़ा सब का मक़्बूल है अगरचे इमामिया मज़्हब के उलमा हमेशा अपनी तस्नीफ़ात में इस फ़िर्क़े वालों पर एतराज़ करते हैं मगर दर-हक़ीक़त अगर मुसलमान में कोई फ़िर्क़ा उम्दा तसव्वुर किया जाये तो यही एक है। उसूल ईमान इनका ये है कि इस जहान का पैदा करने वाला एक ख़ुदा है जो अपनी ज़ात और सिफ़ात में ग़ैर-मुतग़य्यर (ना बदला हुआ) और अज़ली व अबदी और क़दीम और क़ादिर-ए-मुतलक़ और रहीम और करीम और मेहरबान और हन्नान और आदिल और हाज़िर व नाज़िर और वाजिब-उल-वजूद और वजूब लिज़ाता है और जन्नत व दोज़ख़ भी है नापाक गुनेहगार ख़ूनी ख़ुदा के मुन्किर जहन्नम में अबद तक रहेंगे और मुक़द्दस अहले-इर्फ़ान लोग हमेशा तक बहिश्त में रहेंगे और बहिश्त में दुनियावी चीज़ कोई ना होगी बल्कि अबदी व ग़ैर-फ़ानी चीज़ें होंगी और वहां सिवाए सताइश और इबादत हक़ीक़ी माबूद के और कुछ ना होगा और जनाब बारी त’आला ने जब मौजूदात को अदम से पैदा नहीं किया था तब उस की ज़ात का नाम वहदत था और जिस वक़्त उस के इरादे ने ज़ाहिर हो कर मौजूदात को पैदा करना चाहा उस वक़्त उसी ज़ात का नाम वहदानियत हुआ और पहली तजल्ली और दूसरी तजल्ली के त’अय्युन में कुछ ज़ाहिरी फ़र्क़ है मगर बातिन में कुछ इम्तियाज़ नहीं ज़ीराक हर दो तजल्ली की अज़लियत और अबदियत और शान और ज़ात एक ही है यानी बे किसी तरह की नुक़्स के वहदत कस्रत की तरफ़ और कस्रत वहदत की जानिब रुजू करती है यहां तक कि वहदत में फ़ुतूर नहीं पड़ता और इसी तौहीद से कमा-हक़्क़ा आगाह होना ईमान की अलामत है और इस में कुछ शक नहीं कि हर मुत्तफ़िक़ और मुख़्तलिफ़ के साथ ब मुहब्बत पेश आना ख़ुदा के ख़ास हुक्मों में से एक हुक्म है और इस के मुन्किर को सज़ा ज़रूर होगी और यह दुनिया चंद रोज़ा और फ़ानी और अल्लाह त’आला के ख़यालात का इज़्हार है और मसीह का त’अय्युन बातिन की निस्बत अहदियत जम’अ हज़रत अलबैत का है इसी सबब से उस को रूह-उल्लाह के नाम से पुकारना फ़र्ज़ है ज़ीराक रूह कामिल से है कि अल्लाह त’आला के कुल अस्मा और ज़ात और सिफ़ात का मज़हर और जामे’अ है। चुनान्चे ये सब हाल जो तल्ख़ीस किया गया है ज़ेल की किताबों से लिया गया है। ज़ख़ीरा इर्फ़ान अज़ तस्नीफ़ात हकीम काशानी और गुलशन राज़ महमूदी और शरह जीलानी मुलक़्क़ब ब इस्तिलाहात सूफ़िया।
अब जानना चाहिए कि जब ज़ी इल्म और मुतलाशी और हक़ जो अहले-इस्लाम को क़ुर्आन और अहादीस से ख़ास मतलब मयस्सर ना हुआ तो मसीहियों की सोहबत और बात चीत से चंद ख़यालात यादगार के तौर पर लिख रखे और फिर किसी आलिम ने उन ख़यालात की शरह कमाल तफ़्सील और फ़साहत से लिख दी वर्ना क़ुर्आन की तालीम ऐसी नहीं यही सबब है कि मुसलमानों का ये फ़िर्क़ा अज़-बस कि मु’अद्दब और मुहज़्ज़ब-उल-अख्लाक़ व हलीम और मक़्बूल है क़ुर्आन में सिवाए क़त्ल और जिहाद और लूट मार और कस्रत इज़्दिवाज़ के और है क्या?
सूफ़िया फ़िर्क़े का उसूल ईमान फ़िल-हक़ीक़त मसीहियों की इन्जील मुक़द्दस का एक जलवा है और जिस मुल्क के मुसन्निफ़ रहने वाले हैं उस मुल्क में मसीही लोग दबे दबाए और मुती’अ और मह्कूम बादशाहान-ए-इस्लाम के बकस्रत हैं यानी इस्फ़िहान, ख़्वारिज़्म, समरक़ंद, आज़रबाइजान और तेहरान वग़ैरह पर मसीहियों की ख़ुश अख़्लाक़ी और मुहब्बत और इलाही तालीम कब छुप सकती थी आख़िरकार तासीर बख़्श हुई और होगी और बस।
(100) सौवां फ़िर्क़ा वहाबिया (فرقہ وہابیہ)
ये फ़िर्क़ा मुसलमानों में एक अजीब फ़िर्क़ा है अक़ीदा इनका ये है कि दर-हक़ीक़त दुनिया का पैदा करने वाला वाजिब-उल-वजूद कि जो कामिल तौर पर सिफ़ात सबुनित और सलबियत की रखता है मौजूद है और क़ब्र परस्ती और पीर परस्ती कुफ़्र है और पैदाइश में मुहम्मद साहब और हशरात-उल-अर्ज़ बराबर हैं मगर बातिन की निस्बत वो नबी है इस्लाम के मुन्किरों से जिहाद करना नजात और शहादत का बाइस है और ख़ाना का’अबा के गिर्दागिर्द तवाफ़ करना बुत-परस्ती है और जितने मज़्हब और फ़िर्क़े हैं सिवाए वहाबिया मज़्हब के बुतलान हैं मगर हाँ मज़्हब यहूदी जिसके पेशरू हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम हैं और मसीही मज़्हब जिसके गुरु और मुर्शिद हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम हैं हक़ है पर वो मन्सूख़ हो गया है अब उस की पैरवी किसी शख़्स पर फ़र्ज़ नहीं और जनाब बारी त’आला अपनी ज़ात और सिफ़ात में पाक और बे’ऐब हैं लिहाज़ा शरारत उनकी जानिब से नहीं और ख़ुदा के सिवा किसी और इन्सान से मदद और इ’आनत तलब करनी कुफ़्र है और पीर फ़क़ीर लोग मदद देने से आजिज़ हैं और अल्लाह त’आला अगरचे ख़िलाफ़ अक़्ल कर सकता है मगर ख़िलाफ़ आदत और बरअक्स मुहाल आदी के कुछ नहीं कर सकता हर चंद क़ादिर-ए-मुतलक़ है।
ख़ातिमा मजीद और फिर्क़े
अब तक हमने मुसलमानों के निहायत मशहूर व मा’रूफ़ फ़िर्क़ों का ज़िक्र और उनके उसूल व अक़ाइद व ईमान का हाल अज़-बस कि मुख़्तसर तौर पर अरक़ाम किया है मगर सौ फ़िर्क़ों मुतज़क्किरा बाला के मा-सिवा और फ़िर्क़े भी हैं जिनका हाल तूल मक़ाल होने के बाइस छोड़ दिया है पर यहां सिर्फ उनका नाम तहरीर करेंगे ताकि अहले-इस्लाम भाईयों को उज़्र की जगह ना रहे और वो ये हैं कि :-
(1) करामिया। (2) हालिया। (3) बातिनिया। (4) इबाहिया। (5) बराहिमिया। (6) अश’अरीया। (7) सोफ़सताईया। (8) फ़िलासफ़ा। (9) समीनिया। (10) मजुसिया। (11) मदरायिया शह मदार के मुरीद (12) सुहरवर्दिया ये शेख़ शहाब उद्दीन साकिन सुहरवर्द के पैरोकार। (13) क़ादरिया ये शेख़ अब्दुल क़ादिर मुही-उद्दीन अरबी जीलानी के मुरीद। (14) चिश्तिया मुईन-उद्दीन चिश्ती के मुरीद। (15) नक़्शबंदिया हज़रत उस्मान ग़नी पैग़म्बर अस्सलाम के तीसरे अस्हाब के पैरौ। (16) क़लंदर ये ये बू-अली क़लंदर पानी पति के मुरीद। (17) जलालिया (18) सदा सुहाग। (19) बेनवा पाकी रहमाई (21) क़रीना (22) अज़ीज़िया। (23) फ़र्रनकिया। (23) जो इब्ने फ़रंगी को अपना नजातदिहंदा जानते और मानते हैं। (25) आलीया। (26) मुग़ीरिया जो मुग़ीरह को हादी समझते हैं। (27) हसीनिया जो अबी मंसूर को अपना नजात देने वाला जानते हैं। (28) क़राबतिया। (29) मुबारकिया। (30) शमतिया। (31) अम्मारिया। (32) मख़तूरिया। (33) मुस्विया। (34) सलमानिया। (35 तबरिया। (36) अलग़मिया। (37) याकूबिया। (38) शिम्रिया। (39) यूनानिया। (40) बुख़ारिया। (41) गीलानिया। (42) शोबीया। (43) ख़सफिया। (44) मुआविया। (45) मर्सिया। (46) जबाईआ। (47) हाश्मिया। (48) शाफिया। (49) मालकिया। (50) हंबलिया।
मासिवा एक सौ (100) फ़िर्क़ों के कि जिनका नाम और उसूल और अक़ाइद व ईमान ऊपर मर्क़ूम किया गया है ये पचास (50) फ़िर्क़े हैं जिनका उसूल ईमान लिखना ख़ाली अज़ तूल बिला ताइल ना था लिहाज़ा इनके नाम पर इक्तिफ़ा किया जाता है मुहक़्क़िक़ और हक़ जू आदमी को लाज़िम और वाजिब है अगर इन पचास फ़िर्क़ों का उसूल अक़ाइद और ईमान मालूम और मफ़्हूम करना हो तो अहले-इस्लाम की मुतज़क्किरा बाला किताबों में मुलाहिज़ा फ़र्मा लें और वो किताबें निहायत मो’अतमिद और अज़-बस कि मशहूर और मुरव्वज हैं चुनान्चे हम लोगों ने अहले-इस्लाम लोगों से बकीमत ख़रीद कर के सनद के वास्ते अपने पास रखी हैं जो कोई साहब चाहे देख ले तब मौलवी रहमत-उल्लाह साहब और वज़ीर ख़ान ख़ुसूसुन ग़ुलाम हुसैन ख़ान के दा’अवों पर लिहाज़ और इन्साफ़ फ़रमाइए। पोशीदा ना रहे कि जैसा हम मसीहियों में तीन अम्र जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया है अस्ल उसूल ईमान हैं वैसा मज़्हब इस्लाम में तीन अम्र उसूल हैं वह हज़ा :-
पहला कि ख़ुदा वाहिद और लाशरीक और वाजिब-उल-वजूद और वही वजूब लिज़ाता है।
दूसरा कि मुहम्मद साहब बानी दीन इस्लाम नबी बरहक़ और शाफी यौम मह्शर और मुंजी बनी-आदम है।
तीसरा कि क़ुर्आन कलाम इलाही है
और जैसा कि मसीही कलीसियाएं और जमा’अतें जिनका नाम अहले-इस्लाम ने फ़िर्क़े रखा है और कि जिन पर वाही तबाही और नाहक़ एतराज़ किया है मसीही उसूल में कुल्ली मुवाफ़िक़त और मुताबिक़त रखती हैं यहां तक कि फ़रुआत और ख़फ़ीफ़ बातों में बाहम बदर्जा गायत मुवाफ़िक़ और मुतलक़ हैं वैसा अहले-इस्लाम के फ़िर्क़े मुतज़क्किरा सदर बाहम मुवाफ़िक़त और मुताबिक़त नहीं रखते और तरफ़ा माजरा ये है कि ना सिर्फ उसूल ईमान और अक़ाइद में बाहम मुख़्तलिफ़ और माबाइन हैं हत्ता कि फ़रुआत और जुज़वी अम्रों में निहायत इख़्तिलाफ़ और मबाइनत रखते हैं अगर कोई ज़रा भी ग़ौर करेगा तो ना मह्ज़ अहले-इस्लाम मौसूफ़ की बातों को लगू और बेहूदा समझेगा बल्कि मज़्हब इस्लाम को भी जिसमें ये बेशुमार और अजीब मुतज़ाद फ़िर्क़े दाख़िल हैं बिल्कुल बे-बुनियाद और इन्सानी इख़्तिरा तसव्वुर बातस्दीक़ करेगा और हर चंद कि इस रिसाला के मुलाहिज़ा करने वालों को उनकी मुबानियत और मुख़ालिफ़त का माजरा बख़ूबी ज़ाहिर और मालूम हो जाएगा मगर तो भी एहतियात की नज़र से अज़-बस कि वाजिब मालूम होता है कि अहले-इस्लाम के फ़र्को के ख़याल उसूल ईमान मुहम्मदी की निस्बत यहां तहरीर और तर्कीम किए जाएं।
वाज़ेह हो कि फ़िर्क़ा तालबिया व महकमिया और मुस्विया व मामरिया और क़ासिमिया व नसारिया और नीरीइया व दहरिया जिनका ज़िक्र नम्बर 15, 22, 39, 81, 82, 88, 92, 98 में किया गया है वाजिब-उल-वजूद और वजूब लिज़ाता ख़ुदा से इन्कार करते और कि उस के पाक वजूद और मुबारक हस्ती के मुन्करीन और उन मुन्किरों और मुल्हिदों के ख़यालों की तर्दीद मुफ़स्सिलन व मशरुहन हमने रिसाला इलाही बराहीन में लिखी अल-ग़र्ज़ मुसलमानों के उमतिया फ़िर्क़े ख़ुदा के वजूद से मुन्किर हैं यानी मुसलमानों के फ़िर्क़े मुसलमानों के ही अस्ल उसूल को सरीहन रद्द करते हैं।
और फ़िर्क़ा अलविया व शि’आ और इस्हाक़िया व नादसिया और मैमूनिया वाहिदिया और शनविया व निज़ामिया और जहीमिया व अबरियाह और मरजिया व मंसूरिया और तरफिया व नसारिया जिनका ज़िक्र नम्बर 1, 3, 4, 8, 21, 38, 39, 48, 50, 57, 63, 76, 87, 88 में मुन्दरज हो चुका है मुहम्मद साहब के नबी बरहक़ और शाफी’अ रोज़-ए-क़यामत होने से साफ़ इन्कार करते हैं और उन को बनी-आदम का नजातदिहंदा नहीं समझते ख़ुलासा कि मुसलमानों के चौदह फ़िर्क़े पैग़म्बर इस्लाम की रिसालत और शफ़ा’अत से मुन्किर हो कर अहले-इस्लाम के दूसरे अस्लुल-उसूल को बातिल और आतल करते हैं और अजब वाक़िया ये कि फिर मुसलमान के मुसलमान बने हुए हैं और अपना नाम मुसलमान रखवाते हैं चुनान्चे उन पर ज़ाहिर है।
और मो’अतज़िला व ख़ोफिया और शन्विया व नज़ामिया और मख्लूक़िया व अक़फिया और लफ्ज़िया व मंसूरिया रिसालमिया व क़ासिमिया और कलाबिया व इस्माईलिया और तरफिया व नसारिया और मरजिया जिनका माजरा नम्बर 20, 23, 39, 48, 56, 61, 62, 76, 79, 82, 83, 86, 87, 88, 94 में मर्क़ूम किया गया है तीसरे अस्लुल-उसूल यानी क़ुर्आन के इलाही कलाम और रब्बानी इल्हाम होने से मुन्किर बल्कि उनके इस दा’वे को रद्द और मन्सूख़ करते हैं अल-मुख़्तसर अहले-इस्लाम के पंद्रह फ़िर्क़े अहले-इस्लाम ही के तीसरे उसूल को ऐसा बातिल आतल करती हैं गोया मुख़ालिफ़ों की ज़बान से हक़ अम्र पोशीदा नहीं रहता और ये कि हम मसीहियों को मर्हूने मिन्नत फ़रमाकर पैग़म्बर इस्लाम की इब्ताल (गलत साबित करना) रिसालत और भी क़ुर्आन के कलाम बशर होने के इस्बात में इ’आनत और मदद देते हैं।جزاک اللہ فی الادرین خیرا۔
फ़ीलहुमा बख़ूबी साबित और मुतहक़्क़िक़ हुआ कि ख़ुसूसुन अहले-इस्लाम के सैंतीस फ़िर्क़े मुत्तफ़िक़-उल-लफ़्ज़ वल-मा’अनी हो कर अपने मज़्हब के ना सिर्फ फ़ुरूई मसअलों को बल्कि अस्लुल-उसूल को ऐसा बातिल और रद्द करते हैं कि किसी हुज्जती और तकरारी मुहम्मदी को भी जाये अज़ार और कलाम की जगह नहीं छोड़ते और मुतलाशी हक़ को तो बातिल मज़्हब मज़्कूर के बारे में बेक़रार कर देते हैं। बा’ज़ अहले-इस्लाम भाईयों का क़ौल है कि जैसा मसीहियों में रोमन कैथोलिक फ़िर्क़ा मर्दूद और मन्सूख़ है वैसा मुसलमानों के फ़िर्क़ा हाय मज़्कूर भी मर्दूद हैं तो उन अहले-इस्लाम भाईयों को मुनासिब और वाजिब है इस अम्र में ज़रा ग़ौर करें कि रोमन कैथोलिक फ़िर्क़े को तो जमी’अ मसीही कलीसियाओं ने बिल-इत्तफ़ाक़ हो कर रद्द और मन्सूख़ किया है आपके मज़्कूर-उल-सदर फ़िर्क़ों को मुसलमानों ने बिला-इत्तिफ़ाक़ रद्द करना किसी किताब और किसी तज़किरे और किसी तारीख़ से साबित नहीं होता अगर आप इन फ़िर्क़ों को मर्दूद जानें वो आपके फ़िर्क़े को रद्द समझेंगे आप साहिबों का कौन कौन सा फ़िर्क़ा इत्तिफ़ाक़ करके उनको रद्द करेगा क्या शी’अइया और सुन्नी मिलकर या कोई और पर ग़ैर मुम्किन है कि दो फ़िर्क़े सनतीस हकीम और ज़ी इल्म और दानिशमंद फ़िर्क़ों को बातिल करें और हाँ इन हकीम फ़िर्क़ों वालों ने आप लोगों के फ़िर्क़ों को ऐसा रद्द किया है कि आपके आलिमों ने आज तक उनका जवाब नहीं दिया आप उलमाए मो’अतज़िला और फ़ज़लाए निज़ामिया की हैरत-अंगेज़ तस्नीफ़ों को मुलाहिज़ा फ़रमाएं और उन के एतराज़ों का जवाब देकर फिर इस दा’वे पर दम मारें नहीं तो चुप-चाप रहें।
मसीह की दा’वत अहले इस्लाम को
अज़-अंज़ा कि हमने शुरू साला हज़ा से ख़ातिमा तक सिर्फ मुबाहिसा और मुनाज़रा तहरीर किया है और रुहानी अम्रों की तरफ़ तवज्जोह कम की है ज़ीराक अहले-इस्लाम ने आप ही मुबाहिसे का आग़ाज़ किया मगर अब हम निहायत ज़रूरी वाला बदी समझते हैं कि चंद बातें रुहानी वो भी ना सिर्फ अपनी तरफ़ से बल्कि उस जनाब-ए-आली की तरफ़ से तहरीर करें कि जिसका मुबारक और राहत बख़्श ज़िक्र क़ुर्आन में इस ढंग और क़रीना (बहमी ताल्लुक़) से है जैसा सूरह इमरान में दर्ज है कि :-
“यानी जिस वक़्त कहा फरिश्तों ने ऐ मर्यम तहक़ीक़ ख़ुदा बशारत देता है तुझको अपने कलमे से नाम उस का मसीह ईसा मर्यम का बेटा साहब मर्तबा का दुनिया और आख़िरत में और फ़रिश्तों से।”
और फिर जैसा सूरह निसा में मर्क़ूम है कि :-
“यानी तहक़ीक़ मसीह ईसा मर्यम का बेटा ख़ुदा का रसूल है और वो कलमा जो भेजा ख़ुदा ने मर्यम की तरफ़ और उस की रूह।”
और फिर जैसा कि सूरह तहरीम में तहरीर है कि :-
“यानी मर्यम इमरान की बेटी जिसने अपने कुँवारेपन की हिफ़ाज़त की फूंकी हमने उस में अपनी रूह में से यानी येसू मसीह ख़ुदावंद की जानिब से।”
जो हज़रात अहले-इस्लाम की तरफ़ चस्पाँ तसव्वुर बातस्दीक़ हो सकती हैं चंद रुहानी बातें मर्क़ूम की जाती हैं वो फ़रमाता है कि अहले-इस्लाम तुम्हारी ख़ातिर मैं आस्मान से नीचे उतरा ताकि तुमको आस्मान में पहुंचाऊं और याद करो कि तुम्हारे लिए मैंने जिस्म पकड़ा कि तुमको रुहानी इन्सान बनाऊँ और ख़याल करो कि आप लोगों की ख़ातिर मैं नीचे गया ताकि तुमको बुलंद करूँ और तुम्हारे लिए मैं ग़रीब बना ताकि तुमको ग़नी और धनी करूँ ग़ौर करो कि आप लोगों की ख़ातिर मैं दुनिया में रहा ताकि आप लोगों को आस्मान के साकिन बनाऊँ और याद करो कि तुम्हारे लिए मैं सताया गया ताकि तुम्हें आराम मिले ख़याल करो कि तुम्हारी जिहत से ज़ख़्मी हुआ ताकि तुम चंगे हो जाओ ऐ अहले-इस्लाम मेरा मरना आपकी ज़िंदगी के सिवा और कुछ अम्र नहीं ख़याल करो कि आप साहिबों ने गुनाह किए और मैंने वो गुनाह अपने ऊपर उठा लिए और तुम ख़ताकार थे तुम्हारी सज़ा मैंने अपने ऊपर ले ली और तुम मक़रूज़ थे तुम्हारा क़र्ज़ अदा किया अहले-इस्लाम भाईयों तुम पर मौत का फ़त्वा था पर मैं तुम्हारे लिए मरा यहां तक तुम्हें प्यार किया कि तुम्हारा सारा बोझ मैंने अपने ऊपर ले लिया तो क्या आप लोग मेरी इस मुहब्बत को नाचीज़ जानते हो आप तो ऐ इस्लाम वालो मुहब्बत के बदले मुझसे अदावत और नफ़रत करते हो अफ़्सोस कि आप गुनाह को पसंद करते हो और मुझको नहीं और अपने नफ़्स-ए-अम्मारा की पैरवी करते हो मेरी नहीं आप साहिबों ने कौनसी कमी मुझमें देखी कि मुझसे दूर और मजहूर रहते हो किस वास्ते मेरे पास नहीं आना चाहते क्या आप लोग अपनी भलाई ढूँढते हो मुझमें सारी भलाई है और कि मैं ख़ैर मह्ज़ हूँ क्या आराम चाहते हो मुझमें अबदी आराम है क्या तुम ख़ूबसूरती के ख़्वाहिशमंद हो मुझसे ज़्यादा कौन ख़ूबसूरत है क्या आप लोग मर्तबा चाहते हो ख़ुदा के फ़र्ज़न्द से बरतर कौन हो सकता है आया आप बुलंदी चाहते हो आस्मान के बादशाह से आला कौन है आया आप जलाल चाहते हो मुझसे ज़्यादा साहब जलाल व कमाल कौन है क्या तुम दौलत के आर्ज़ूमंद हो मुझमें खज़ाने मौजूद हैं क्या तुम दानाई वज़ीर के ख़्वाहिशमंद हो मैं दानाई का ख़ुदा हूँ आया आप दोस्त की तलाश करते हो मुझसे ज़्यादा वफ़ादार और ग़मख़्वार दोस्त कौन है मैंने अपनी जान तुम्हारे लिए क़ुर्बान कर दी आया आप मददगार की जुस्तजू में हो मुझसे ज़्यादा मदद कौन कर सकता है क्या आप तबीब को चाहते हो मेरे सिवा कौन शिफ़ा देता है आया आप लोग ख़ुशी और फ़र्हत की तलाश में हो मुझसे बेहतर ख़ुशी कौन दे सकता है क्या तुम ग़मगीनी की हालत में तसल्ली दहिंदा के आर्ज़ूमंद हो मेरे बग़ैर कौन तसल्ली देने वाला है आया आप आराम की तमन्ना रखते हो मुझमें आप लोग अपनी जान के लिए आराम और चैन और सुख पा सकते हो। क्या ऐ अहले-इस्लाम आप सुलह की ख़्वाहिश रखते हो मैं तो दिलों में और रूहों में सुलह बख़्शता हूँ क्या आप लोग ज़िंदगी और रोशनी और सच्चाई और राह ढूँढते हो मैं हूँ ज़िंदगी का सरचश्मा और दुनिया की रोशनी और नूर और सच्चाई और राह मेरे सिवा और कोई नहीं एक भी नहीं ऐ इस्लाम वालो क्या आप मुर्शीद और हादी के मुश्ताक़ हो मैं हूँ हक़ीक़ी मुर्शीद और सच्चा रहनुमा पस क्या सबब है कि आप लोग मेरे पास आना नहीं चाहते क्या आप लोग आने की ताक़त नहीं रखते मेरे पास तो आसान बल्कि सहल तौर से आ सकते हो आया आप डरते और ख़ौफ़ करते हो कौन ईमान लाया और मैंने उसे निकाल दिया क्या आप लोगों की ज़ाती और फ़’अली ख़ताएँ रोकती हैं मैं तो हर एक तरह के गुनाहों के कफ़्फ़ारे में मस्लूब हुआ आया आप लोगों के गुनाह के ख़याल आप लोगों को शिकस्ता-दिल करते हैं याद करो कि मैं मुजस्सम हूँ अल-ग़र्ज़ ऐ अहले-इस्लाम जो थके और बड़े बोझ से दबे हो मेरे पास आओ मैं तुम्हें आराम दूंगा।
अब हम ख़ुदा के फ़ज़्ल से इस रिसाले मुख़्तसर को ख़त्म करते और अहले-इस्लाम भाईयों की ख़िदमत बाबरकत में मिन्नत से अर्ज़ परवाज़ करते हैं कि ऐ हमारे मु’अज़्ज़िज़ और मुकर्रम साहिबो आप लोग जिस्मानी और ज़ाहिरी मुनाज़रे की तर्ज़ तर्क कर दीजीए क्योंकि इस में आप लोगों के अज़ीज़ औक़ात भी ज़ाए होती और हम लोगों की बेबदल औक़ात भी बर्बाद जाती हैं बल्कि रुहानी और बातिनी मुबाहिसा शुरू फ़रमाईये ताकि तरफ़ैन को इस से हमेशा की ज़िंदगी हासिल हो हम लोग नहीं चाहते कि ज़ाहिरी मुनाज़रे करें पर लाचार आप लोग हमको इस तरफ़ तवज्जोह दिलाते हैं नहीं तो हम मसीही ख़ादिम आप साहिबों के दुआगो हैं आदाब क़बूलियत का वक़्त है और फ़ैज़ का दिन है मसीह येसू के हुज़ूर हाज़िर हो आमीन।