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REV. WILLIAM GOLDSACK

Australian Baptist Missionary and Apologist

1871–1957





GOD IN ISLAM

ख़ुदा ए इस्लाम

यानी

अहले-इस्लाम के ईलाही एतेक़ाद की तहक़ीक़

अज़

पादरी डब्ल्यू गोल्डसेक साहिब

اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ ۚ اَلْـحَيُّ الْقَيُّوْمُ

(अल्लाह हय्युल-क़य्यूम के सिवा कोई और खुदा नहीं है)

CHRISTIAN LITERATURE SOCIETY FOR INDIA

PUNJAB BARANOH LUDHIANA 1919.

क्रिश्चियन लिट्रेचर सोसाईटी फॉर इंडिया

ने शाया किया

1919 ईस्वी
फ़हरिस्त-ए-मज़ामीन


शुमार मज़मून

1. तम्हीद

2. वहदत-ए-ख़ुदा

3. सिफ़ात-ए-ख़ुदा

4. अक़ाइद-ए-तजस्सुम ख़ुदा

5. ख़ुदा और इन्सान का बाहमी रिश्ता

6. ख़ुदा बलिहाज़-ए-गुनाह व नजात

तम्हीद

किसी मज़हब की फ़ज़ीलत इस बात में नहीं हो सकती कि वो बहुत से ममालिक का मज़हब है या उस के मानने वाले ज़्यादा हैं बल्कि सिर्फ उसी एक बात में कि ख़ुदा की ज़ात और उस के कैरक्टर के बारे में दीगर मज़ाहिब के मुक़ाबले में आला और अफ़्ज़ल तालीम दे क्योंकि तमाम अख़्लाक़ी शरीयत का दार-ओ-मदार इसी बात पर है।

ख्वाह कोई मज़हब ख़ुदा की तौहीद की तालीम दे ख्वाह इस में इलाहों की कसरत पाई जाये लेकिन ज़्यादा तर काबिल-ए-ग़ौर ये बात है कि ख़ुदा के कैरक्टर और ख़ुदा की सिफ़ात की तारीफ़ इस में मौजूद है या नहीं। क्योंकि कैरक्टर और सिफ़ात को छोड़कर ख़ालिस तौहीद की तालीम उफ़तादा इन्सान को उठाने और उस के दिल में अज़मत एज़दी क़ायम करने के लिए बिल्कुल नाकाफ़ी है । ख़ुदा के लिए कैरक्टर अज़बस बुनियादी और लाबुदी उसूल में से है।

अगर कोई मुहक़्क़िक़ ये दर्याफ़त करना चाहे कि ख़ुदा के हक़ में अहले-इस्लाम का क्या एतिक़ाद है तो आम तौर पर उस के लिए मालूमात के सिर्फ चार वसीले हैं :-

अव्वल: क़ुरआन जो मुजमल व पुरमाअनी कलिमा (لا الہ الا اللہ) ला-इलाहा इल्लल्लाह (अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है) सिखाता है।

दोम: अहादीस जिनमें हज़रत मुहम्मद की ज़बानी तालीम का ज़ख़ीरा मिलता है और बाद के ज़माने के बाअज़ ख़्यालात भी पाए जाते हैं ।

सोम: इज्माअ यानी उलमा-ए-इस्लाम की मुत्तफ़िक़ अलैह राय।

चहारुम: क़ियास यानी तालीम इस्लाम के मुताल्लिक़ उलमा-ए-इस्लाम के अख़ज़ कर्दाह नताइज ।

पस अब ये बात साफ़ ज़ाहिर है कि ख़ुदा के हक़ में अहले-इस्लाम का एतिक़ाद मालूम करने के लिए हर चार शवाहिद मज़कूरा की तहक़ीक़ व तदक़ीक़ निहायत ज़रूरी है।

लिहाज़ा हम इस किताब में इन चार वसीलों यानी क़ुरआन, अहादीस, इज्माअ, क़ियास को दिखला देंगे ताकि पढ़ने वाला उन्हीं से दर्याफ़त करके फ़ैसला कर सके कि ख़ुदा की निस्बत अहले-इस्लाम का एतिक़ाद कहाँ तक काफ़ी और काबिल-ए-क़बूल है।

हज़रत मुहम्मद के ईलाही एतिक़ाद के माख़ज़ ज़रूर बहुत से थे। ग़ालिबन नेचर आपका सबसे बड़ा मुअल्लिम था। चुनांचे क़ुरआन के बाअज़ निहायत फ़सीह मुक़ामात में ख़ुदा की खालिक़ाना अज़मत व बुज़ुर्गी का बयान पाया जाता है ।

जब आप आलम-ए-शबाब में भेड़ बकरीयों की गल्लाबानी करते थे तब भी ज़रूर उस ख़ालिक़ बुलंदी व पस्ती की बुज़ुर्ग हस्ती का ख़्याल आपके दिलो-दिमाग में समा गया होगा। आपको ज़रूर ये ख़्याल आया होगा कि कोई आला हस्ती आपके हर चहार तरफ़ अपने वजूद के मुज़ाहिरे के वसीले से जलवागर है।

चुनांचे बाद के ज़माने में जो ख़्यालात आपने निहायत ख़ूबी व ख़ोश उसलूबी के साथ अपनी बुत-परस्त क़ौम के सामने पेश किए वोह इस ज़माने में आपने सय्यारों, सितारों और तमाम अजराम-ए-फल्की की हरकात और ईलाही दानाई व हिकमत की बय्यन आयात से हासिल किए थे।

फिर कोह-ए-हिरा की ग़ार में आपके मराक़बे ने इस्लामी इमारत का ख़ाका तैयार करने में आपको ज़रूर बहुत मदद दी । हज़रत मुहम्मद की ज़की तबईत और दिलो-दिमाग पर बसा-औक़ात ये हक़ीक़त नक़्श हो गई होगी कि :-

ख़ुदाए तआला अह्कम-उल-हाकिमीन हमेशा अलानिया शानो-शौकत और क़र्रोफ़र के साथ और रादोबरक़ के शूर व शाब से बातनद और तूफान-ए-अज़ीम के रुअब के साथ ही अपनी क़ादिर हस्ती का इज़्हार नहीं करता बल्कि बख़िलाफ़ इस के बसा-औक़ात आलिम ख़ामोशी में निहायत धीमी आवाज़ से नेचर के ज़रीये से अपने आपको तमाम कौन व मकान का ख़ालिक़ व मालिक और क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदावंद साबित करता है।

पस ज़ाहिर है कि ख़ुदा की निस्बत हज़रत मुहम्मद के इब्तिदाई ख़्यालात की बुनियाद उन्हीं हैरतख़ेज़ नेचरी नज़ारों पर थी जो आप के हर चहार तरफ़ थे। चुनांचे बार-बार क़ुरआन की निहायत शुस्ता और फ़सीह नज़म में आप अहले-अरब को इस इल्लत-उल-इलल की याद व इबादत की तरफ़ बुलाते हैं। क़ुरआन की इन इब्तदाई सूरतों में ख़ुदाए क़ादिर की क़ुदरत वही का निहायत उम्दा नमूना यूं मुंदरज है :-

هُوَ الَّذِيْ يُرِيْكُمُ الْبَرْقَ خَوْفًا وَّطَمَعًا وَّيُنْشِئُ السَّحَابَ الثِّقَالَ 12۝ۚ وَيُسَبِّحُ الرَّعْدُ بِحَمْدِهٖ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ مِنْ خِيْفَتِهٖ ۚ وَيُرْسِلُ الصَّوَاعِقَ فَيُصِيْبُ بِهَا مَنْ يَّشَاۗءُ وَهُمْ يُجَادِلُوْنَ فِي اللّٰهِ ۚ وَهُوَ شَدِيْدُ الْمِحَالِ 13۝ۭ

वही है ख़ौफ़ व उम्मीद के लिए तुम्हें बिजली दिखलाता है और वही भारी बादलों को लाता है। रअद उस की हम्द बयान करता है और फ़रिश्तगान भी डरते हुए उस की तौसीफ़ करते हैं। वो रअद को भेजता है और उस के वसीले से जिसे चाहता है पकड़ लेता है । फिर भी वो ख़ुदा की बाबत झगड़ते हैं लेकिन वो सख़्त क़ुव्वत वाला है I

फिर सूरह बक़रा की 164, 165 वीं आयात में यूं मर्क़ूम है :-

وَإِلَـهُكُمْ إِلَهٌ وَاحِدٌ لاَّ إِلَهَ إِلاَّ هُوَ الرَّحْمَنُ الرَّحِيمُ إِنَّ فِي خَلْقِ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ وَاخْتِلاَفِ اللَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَالْفُلْكِ الَّتِي تَجْرِي فِي الْبَحْرِ بِمَا يَنفَعُ النَّاسَ وَمَا أَنزَلَ اللّهُ مِنَ السَّمَاء مِن مَّاء فَأَحْيَا بِهِ الأرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا وَبَثَّ فِيهَا مِن كُلِّ دَآبَّةٍ وَتَصْرِيفِ الرِّيَاحِ وَالسَّحَابِ الْمُسَخِّرِ بَيْنَ السَّمَاء وَالأَرْضِ لآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَعْقِلُونَ

तुम्हारा ख़ुदा ख़ुदाए वाहिद है । इस के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है । वो रहमान और रहीम है। ज़मीन व आस्मान की पैदाइश में और शब-ओ-रोज़ के इख़्तिलाफ़ में दरिया में चलने वाली कश्ती में जिससे लोगों को नफ़ा पहुंचता है और बारिश में जो ख़ुदा आस्मान से नाज़िल फ़रमाता है जिससे ज़मीन को इस की मौत के बाद ज़िंदा करता है और चौपायों को इस पर मुंतशिर करता है और ज़मीन व आस्मान के दर्मियान हवाओं और बादलों की तसख़ीर मैं समझदार लोगों के लिए निशानीयां हैं |

फिर ख़ुदा के बारे में हज़रत मुहम्मद के एतिक़ाद का दूसरा माख़ज़ आपके हम-असर फ़िर्क़ा हनीफ़ था। फ़िर्क़ा हनीफ़ के लोगों ने हर तरह की बुत-परस्ती को तर्क करके तमाम दीगर अहले-अरब के ख़िलाफ़ सिर्फ़ ख़ुदाए वाहिद की परस्तिश व इबादत इख़्तियार की थी।

हज़रत मुहम्मद का उन लोगों से ज़रूर मेल-जोल था। अगर ख़ुदा की बाबत आपकी तालीमात का अक़ाइद व मसाइल हनीफ़ से मुक़ाबला किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि ख़ुदाए तआला के बारे में आपके ख़्यालात ज़्यादातर इसी फ़िरक़े से अख़ज़ किए गए हैं।

सिवोम : ख़ुदा के हक़ में हज़रत मुहम्मद के ख़्यालात और अक़ाइद ज़्यादा उन में यहूदीयों और ईसाईयों की सोहबत से मोअस्सर हैं जो आपके ज़माने में मुल्क अरब में आबाद थे अगर कोई इन तमाम यहूदी कहानीयों को पढ़े जो क़ुरआन में बार-बार दुहराई गई हैं और हज़रत मुहम्मद के दावा के मनाने के लिए इबादत में शामिल की गई हैं तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि ख़ुदा और दुनिया में ख़ुदा की हुकूमत के ख़्यालात में हज़रत मुहम्मद कहाँ तक यहूदीयों के कर्ज़दार हैं फिर उस के साथ ही अगर आप के तसव्वुरात का जोश और शायराना तबीयत भी मद्द-ए-नज़र हो तो बख़ूबी समझ में आ जाएगा कि अहले-इस्लाम का ईलाही एतिक़ाद किन किन तासीरात से पैदा हुआ हैं।

तमाम मुहक़्क़िक़ीन-ए-इस्लाम इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि इस्लाम का सारा ज़ोर ख़ुदा की तौहीद पर है। जो मुशरिक अपने बुतों को छोड़कर ला-इलाह इल्लल्लाह (لا الہ الا اللہ) कहना सीख लेता है वो फ़ौरन शख़्सी इज़्ज़त बल्कि दीवानगी हासिल करता है जिसके वसीले से वो तमाम मुश्किलात पर ग़ालिब आने के लायक़ ख़्याल किया जाता है लेकिन जैसा कि हम इस से पेशतर कह चुके कि ख़ुदा की ख़ालिस तौहीद की तालीम इन्सान की इस्लाह करने और उस के लिए पाकीज़गी का ख़ास ख़्याल करने के काबिल नहीं है क्योंकि इन सारी बातों का दार-ओ-मदार ख़ुदा के कैरक्टर और उस की सिफ़ात पर है।

अब मुसलमान पढ़ने वाला तमाम तास्सुबाना ख़्यालात से ख़ाली हो कर हमारे साथ इस अम्र की तहक़ीक़ में मशग़ूल हुए कि कुतुब इस्लाम में ख़ुदा के बारे में क्या तालीम पाई जाती है। साथ ही ये भी ख़्याल रहे कि अगर कहीं ज़बान सख़्त मालूम हो तो वो उस के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि उन अक़ाइद के ख़िलाफ़ है जो ख़ुदा ए पाक की शान के शायां नहीं हैं जिनको ख़ुदा का हर एक मुख़लिस बंदा वाजिबी ग़ैरत से रद्द करेगा।

अब हम अहले-इस्लाम के इब्तिदाई और बाद के तक्मील याफताह ईलाही एतिक़ाद की तहक़ीक़ करते वक़्त अक्सर औक़ात उस का मसीही एतिक़ाद से जिसकी बुनियाद तौरेत व इंजील के इल्हाम पर है मुक़ाबला करेंगे और हमारी दुआ है कि वो “वहदहू लाशरीक इलाह” (وحدہ لاشریک الہ) राह-ए-रास्त पर हमारी हिदायत व रहबरी करे



ख़ुदाए-ए-इस्लाम

बाब अव़्वल
वहदत-ए-ख़ुदा

क़ुरआन में वहदत-ए-ख़ुदा पर बकसरत इबारात पाई जाती हैं और उन में से बाअज़ फ़साहत ओ बलाग़त से पुर हैं। मसलन सूरह इख़्लास में यूं मर्क़ूम है :-

قُلْ هُوَ اللَّهُ أَحَدٌاللَّهُ الصَّمَدُلَمْ يَلِدْ وَلَمْ يُولَدْوَلَمْ يَكُن لَّهُ كُفُوًا أَحَدٌ

कह अल्लाह एक है और अल्लाह अज़ली है, वो जनता नहीं और ना जना गया है और ना कोई उस की मानिंद है |

हज़रत मुहम्मद मुतवातिर नेचर को ख़ुदा की वहदत की दलील के तौर पर पेश करते थे । चुनांचे ऐसी इबारात के नमूने के तौर पर हम इस जगह आयतल-कुर्सी दर्ज करते हैं जो कि सूरह बक़रा में यूं मुंदरज है :-

اللّهُ لاَ إِلَـهَ إِلاَّ هُوَ الْحَيُّ الْقَيُّومُ لاَ تَأْخُذُهُ سِنَةٌ وَلاَ نَوْمٌ لَّهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الأَرْضِ مَن ذَا الَّذِي يَشْفَعُ عِنْدَهُ إِلاَّ بِإِذْنِهِ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَمَا خَلْفَهُمْ وَلاَ يُحِيطُونَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِهِ إِلاَّ بِمَا شَاء وَسِعَ كُرْسِيُّهُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضَ وَلاَ يَؤُودُهُ حِفْظُهُمَا وَهُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيمُ

सूरह बक़रा 255 : अल्लाह हय्युल-क़य्यूम के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है। ना वो उन्गता है और ना सोता है आस्मान व ज़मीन की सब मामूरी उसी की है। कौन उस के पास शफ़ाअत कर सकता है सिवाए उस के जिसको वो इजाज़त दे ? जो कुछ उन के आगे और पीछे है वो सब जानता है और वह उस के इल्म के किसी हिस्से पर हावी नहीं सिवाए इस पर जो उसे पसंद आता है। इस की सल्तनत तमाम ज़मीन वा आस्मान पर है और वो इन दोनों की हिफ़ाज़त से मांदा नहीं होता क्योंकि वो बुज़ुर्ग व बरतर है|

क़ुरआन में बार-बार तौहीद ईलाही के सबूत में शिर्क की नामाअक़ूली पेश की गई है । चुनांचे सूरह मोमिन की 92 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

مَا اتَّخَذَ اللّٰهُ مِنْ وَّلَدٍ وَّمَا كَانَ مَعَهٗ مِنْ اِلٰهٍ اِذًا لَّذَهَبَ كُلُّ اِلٰهٍۢ بِمَا خَلَقَ وَلَعَلَا بَعْضُهُمْ عَلٰي بَعْضٍ ۭ سُبْحٰنَ اللّٰهِ عَمَّا يَصِفُوْنَ ؀ۙ

ख़ुदा का कभी कोई बेटा नहीं हुआ ना कभी उस के साथ कोई ख़ुदा था। क्योंकि इस हाल में हर एक ख़ुदा अपनी मख़्लूक़ ले भागता और बाअज़ अपने आपको दूसरों पर बरतरी देते अल्लाह इन सब बातों से पाक है जो वो उस के हक़ में कहते हैं |

फिर सूरह अम्बिया की 22 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

لَوْ كَانَ فِيهِمَا آلِهَةٌ إِلَّا اللَّهُ لَفَسَدَتَا

अगर ज़मीन व आस्मान में ख़ुदा के सिवा और माबूद होते तो ज़रूर वो दोनों (ज़मीन व आस्मान) ख़राब हो जाते यानी उन माबूदों के बाहमी मुक़ाबला और नाइत्तिफ़ाक़ी के सबब से तमाम मख़्लूक़ात दरहम-बरहम और तबाह हो जाती।

हज़रत मुहम्मद ने बदरजा ग़ायत बुत-परस्ती की तर्दीद की और सिवाए एक मुख़्तसर और आरिज़ी वफ़क़ा के हमेशा तर्दीद करते रहे । बुतों को "शर शैतानी" के नाम से नामज़द किया और मुतवातिर मकरूह व मर्दूद ठहराया।

साफ़ बयान किया कि बुत हमारे नफ़ा व नुक़्सान की क़ुदरत नहीं रखते और बुत-परस्तों की सज़ा को निहायत होलनाक सूरत में पेश किया।

आपने सिर्फ लामज़हब अरबों ही की बुत-परस्ती को मलऊन व मज़मुम क़रार नहीं दिया बल्कि एक और एतिक़ाद को जिसके मुताबिक़ फ़रिश्तगान को बीवीयों और बेटीयों के तौर पर ख़ुदा से मंसूब किया जाता था । निहायत हजुयह अल्फ़ाज़ में मज़मूम बयान किया। चुनांचे सूरह बनी- इस्राईल की 42 आयत में मर्क़ूम है :-

أَفَأَصْفَاكُمْ رَبُّكُم بِالْبَنِينَ وَاتَّخَذَ مِنَ الْمَلآئِكَةِ إِنَاثًا

क्या तुमको तुम्हारे रब ने बेटे चुन दिए और अपने लिए फ़रिश्तों से बेटियां लें?

इसी तरह से ईलाही इंतिज़ाम में ख़ुदा के साथ किसी को शरीक मानने के ख़्याल की भी क़ुरआन ने तर्दीद की चुनांचे सूरह इनआम की एक सौ पहली आयत में यूं मुंदरज है :-

तो भी वो जिन्नों को उस का शरीक बनाते हैं हालाँकि उस ने उन्हें पैदा किया है।

लेकिन हज़रत मुहम्मद ने सिर्फ बुत-परस्ती की तर्दीद नहीं की बल्कि मसीहीयों को मुशरिक ठहराया और उन पर तीन ख़ुदा मानने का इल्ज़ाम लगाया। इस इल्ज़ाम की बुनियाद तालीम तस्लीस पर थी जिसमें मसीह की ईलाही अम्बियत शामिल है।

यहूदीयों पर भी ये इल्ज़ाम लगाया कि वो उज़ैर को ख़ुदा का बेटा कहते हैं हालाँकि ना उन किताबों में इस का ज़िक्र है और ना उन की रिवायात ही में इस का कुछ पता मिलता है कि उन्होंने कभी उज़ैर को इब्नुल्लाह या ख़ुदा का बेटा कहा।

तस्लीस की निस्बत जो बेशुमार हवालेजात क़ुरआन में पाए जाते हैं उन से साफ़ ज़ाहिर होता है कि रासिख़-उल-एतक़ाद मसीहीयों में तस्लीस की जो तालीम मानी और सिखाई जाती है आप उसे मुतलक़ नहीं समझे। एक से ज़्यादा मर्तबा ग़लती से बाप, बेटे और मर्यम को तस्लीस के अक़ानीम सलासा के तौर पर पेश किया है । चुनांचे सूरह माइदा की 77 वीं आयत से 79 वीं आयत तक यूं मर्क़ूम है :-

لَّقَدْ كَفَرَ الَّذِينَ قَالُواْ إِنَّ اللّهَ ثَالِثُ ثَلاَثَةٍ وَمَا مِنْ إِلَـهٍ إِلاَّ إِلَـهٌ وَاحِدٌ وَإِن لَّمْ يَنتَهُواْ عَمَّا يَقُولُونَ لَيَمَسَّنَّ الَّذِينَ كَفَرُواْ مِنْهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ أَفَلاَ يَتُوبُونَ إِلَى اللّهِ وَيَسْتَغْفِرُونَهُ وَاللّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ مَّا الْمَسِيحُ ابْنُ مَرْيَمَ إِلاَّ رَسُولٌ قَدْ خَلَتْ مِن قَبْلِهِ الرُّسُلُ وَأُمُّهُ صِدِّيقَةٌ كَانَايَأْكُلاَنِالطَّعَامَ

काफ़िर कहते हैं यक़ीनन अल्लाह तीन में का तीसरा है। मसीह इब्ने मर्यम महिज़ एक रसूल है।
उस से पेशतर रसूल हो चुके हैं और उस की माँ मोमिना थी। वो दोनों खाना खाते थे |

पस अब क़ुरआन ही के बयान से अज़हर-मिन-अश्शम्स है कि तस्लीस की जिस तालीम को मसीही मानते और सिखाते हैं हज़रत मुहम्मद ने इस की तर्दीद नहीं की बल्कि लाइल्मी के सबब से एक ख़्याली और वहमी तीन ख़ुदाओं के ईमान की मुख़ालिफ़त करते रहे। चुनांचे सूरह माइदा की 116 वीं आयत में मुंदरज है :-

وَإِذْ قَالَ اللّهُ يَا عِيسَى ابْنَ مَرْيَمَ أَأَنتَ قُلتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُونِي وَأُمِّيَ إِلَـهَيْنِ مِن دُونِ اللّهِ

और जब ख़ुदा ने कहा ए ईसा मर्यम के बेटे क्या तूने लोगों से कहा कि मुझको और मेरी माँ को अल्लाह के सिवा दो माबूद मानो ?

हज़रत मुहम्मद की ग़लती मफ़ाअफ़ थी एक तो आप ने अक़ानीम तस्लीस में रूहुल-क़ुद्दुस की जगह मर्यम को शामिल किया और दूसरे ये ख़्याल किया कि मसीही लोग अक़ानीम सलासा तस्लीस को जुदा जुदा तीन ख़ुदा मान कर उन की इबादत करते हैं । पस जिस बात की क़ुरआन बड़े ज़ोर-ओ-शोर से तर्दीद करता है वो इलाहों की कसरत है।

मसीही लोग भी ऐसे मुशरिकाना ख़्याल व एतक़ाद की तर्दीद करने में मुसलामानों से कम ग़ैरत मंद नहीं हैं। हम नहीं समझ सकते कि नेक नीयत व हक़ पसंद मुसलमान हज़रत मुहम्मद कि इन ग़लतीयों की मौजूदगी में किस तरह कह सकते हैं कि क़ुरआन कलाम-उल्लाह है जो जिब्राईल फ़रिश्ता की मार्फ़त हज़रत मुहम्मद पर नाज़िल हुआ।

इस मुक़ाम पर ये अम्र निहायत ही काबिल-ए-ग़ौर है कि अरब में इल्म अल-अशया-ए-क़दीमा की मालूमात ज़बान और तवारीख़ के फ़तवा की पूरे तौर से तस्दीक़ कर रही हैं और उन से साफ़ ज़ाहिर होता है कि जो मसीही अरब में आबाद थे वो अक़ानीम सलासा तस्लीस में बाप, बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस ही को शामिल करते थे क्योंकि यमन में डाक्टर ऐडवर्ड गलीसर साहिब ने मसीही लोगों की यादगारों को दर्याफ़त किया तो उन पर 542 ईस्वी का ये लिखा पाया कि :-

"ख़ुदा ए रहीम और उस के मसीह और रूह-उल-क़ूद्दूस की क़ुदरत से"

मसीहीयों के ईलाही एतिक़ाद की बुनियाद इन अल्फ़ाज़ पर है जो सय्यदना मसीह ने इस्तिमाल किए जैसा कि इंजील मरकुस के 12 वें बाब की 29 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

“ए इस्राईल सुन ख़ुदावंद हमारा ख़ुदा एक ही ख़ुदावंद है”

मसीही एतिक़ाद में तस्लीस-फ़ील-तौहीद है ना कि जुदा जुदा तीन ख़ुदाओं की तालीम। लेकिन हज़रत मुहम्मद ने ग़लतफ़हमी की और इस ग़लतफ़हमी में आपके मोमिनीन भी इस वक़्त से आज तक शरीक होते चले आए हैं। आपने मसीह की ईलाही इब्नीयत को ना समझा और यह ख़्याल करके कि मसीही लोग मसीह को ख़ुदा का जिस्मानी बेटा मानते हैं इस की तर्दीद की। आपकी ये ग़लतफ़हमी क़ुरआन से बख़ूबी ज़ाहिर है चुनांचे मिसाल के तौर पर हम एक दो आयतें नक़ल करते हैं। सूरह इन्आम की एक सौ पहली आयत में मुंदरज है :-

بَدِيعُ السَّمَاوَاتِ وَالأَرْضِ أَنَّى يَكُونُ لَهُ وَلَدٌ وَلَمْ تَكُن لَّهُ صَاحِبَةٌ

वो ज़मीन व आस्मान का ख़ालिक़ है। उस का बेटा कहाँ से होगा जबकि उस की कोई बीवी नहीं है ।

फिर सूरह मोमिन की 92 वीं आयत में मर्क़ूम है :-

مَا اتَّخَذَ اللہُ مِنْ وَّلَدٍ

ख़ुदा का कोई बेटा नहीं है।

मुफ़स्सिर ज़मख़शरी की तफ़्सीर के मुताले से किसी क़दर मालूम हो सकता है कि इब्नीयते-मसीह के बारे में मुसलामानों के क्या ख़्यालात हैं । चुनांचे मुफ़स्सिर मज़कूर सूरह निसा की 169 वीं आयत की तफ़्सीर में लिखता है कि :-

“इस मुक़ाम पर क़ुरआन उन्ही के (मसीहीयों के) अल्फ़ाज़ को पेश करता है कि ख़ुदा और मसीह और मर्यम तीन ख़ुदा हैं और मसीह ख़ुदा और मर्यम का बेटा है”

जब मुसलामानों के ज़हन में तस्लीस के बारे में ऐसे ख़्यालात हैं तो कुछ ताज्जुब नहीं कि अक़ीदा तस्लीस को तौहीद का मुनाफ़ी समझते हैं लेकिन अगर ठीक तौर से समझ लिया जाये तो मसला तस्लीस हरगिज़ हरगिज़ मुनाफ़ी तौहीद नहीं हो सकता। मसीही भी ख़ुदा की वहदत व तौहीद पर बहुत ज़ोर देते हैं और मुसलामानों की तरह मानते हैं कि सिर्फ एक ही ख़ुदा है। मर्यम को ख़ुदा मानना और उस की ख़ुदा की सी इबादत करना और मसीह को ख़ुदा के सिवा एक और ख़ुदा मानना तमाम मसीहीयों के नज़्दीक कुफ़्र अज़ीम है। लेकिन ये कहना कि "एक ज़िंदा व अज़ली ख़ुदा की ज़ात-ए-पाक में या उस क़ुद्दूस की वाहिद ज़ात व हस्ती के अंदर अंदर “अक़ानीम सलासा” हैं हरगिज़ हरगिज़ तौहीद ईलाही के ख़िलाफ़ नहीं है। बल्कि बख़िलाफ़ उस के ये हक़ीक़त दीन और फ़ल्सफ़ा में बहुत सी बातों के समझने में मदद करती है और "कलिमतुल्लाह" और “रूह-अल्लाह” वग़ैरा मसीह के अलक़ाब पर जोकि किसी महिज़ इन्सान के हक़ में इस्तिमाल नहीं हो सकते बख़ूबी रोशनी डालती है।

हमें यक़ीन है कि अगर बिरादरान अहले-इस्लाम अपने पुराने ख़्यालात को छोड़कर और मसीह की इब्नीयत के जिस्मानी ख़्याल को तर्क करके उसे रुहानी तालीम के तौर पर समझने की कोशिश करें तो उन को मसीही तालीम तस्लीस में कोई ऐसी बात नहीं आऐगी जिससे ख़ुदा की वहदत की मुख़ालिफ़त हो।

पहले तमाम मख़्लूक़ात से ख़ुदा के वजूद का जुदा तसव्वुर करें और उसे उसकी बेनज़ीर व पुर-जलाल तौहीद के तख़्त पर देखें और फिर ज़हन की आँखें खोल कर वाहिद-ए-ख़ुदा की ज़ात पर ग़ौर करें। जैसा कि ख़ुदा की सिफ़ात में कसरत देखते हैं मुम्किन है कि इस की वाहिद ज़ात में भी कसरत का मुशाहिदा करें। लेकिन इस ज़ाती व सिफ़ाती कसरत से इस की वहदत में कुछ फ़र्क़ नहीं आता। वो वैसा ही लासानी और वहिदहु लाशरीक-ला रहता है।

पस मसीहीयों और मुहम्मदियों में अम्र मुतनाज़ा ये नहीं कि आया ख़ुदा एक है या एक से ज़्यादा हैं बल्कि असल मबहस ये है कि वाहिद-ए-ख़ुदा की ज़ात कैसी है और उस ज़ात में कौनसे राज़ मख़फ़ी व सरबस्ता हैं।

अगर अहले इस्लाम ख़ुदा की ज़ात पर इस तरह से ग़ौर करना शुरू करें तो हमें पुख़्ता यक़ीन है कि इन की बहुत सी मुश्किलात काफ़ूर हो जाएगी । इस मुक़ाम पर ये अम्र मलहूज़ ज़ाहिर है कि ख़ुदा की तस्लीस फ़ील तौहीद ज़ात-ए-ईलाही का मुकाशफ़ा है और मसीहीयों के ईमान की बुनियाद इसी हक़ीक़त पर है। ये मुम्किन है कि इस के मुताल्लिक़ बहुत सी मुश्किलात हों लेकिन ये मुश्किलात उन मुश्किलात से हरगिज़ हरगिज़ बड़ी ख़्याल नहीं की जा सकतीं जो उस ख़ुश्क तौहीद से इलाक़ा रखती हैं जिसके लिहाज़ से ख़ुदा हमेशा से एक सुनसान तन्हाई में मौजूद है। या यूं कहें कि मुहिब बे-महबूब है या आलम बिला-मालूम है।

हम हर चहार तरफ़ से राज़ रमूज़ से महसूर हैं और उन इसरार से तस्लीस फ़ील तौहीद की निस्बत बहुत से इशारात मिलते हैं। मसलन आफ़्ताब में क़ुव्वत, गर्मी, और रोशनी या हर इन्सान फ़र्द-ए-वाहिद में जिस्म, ज़हन और रूह पर है। पस अगर ख़ुदा की ज़ात-ए-वाहिद में हस्तीयों की कसरत पाई जाये तो कुछ ताज्जुब की बात नहीं है बहर-ए-हाल जबकि हम मख़्लूक़ात के इसरार को समझने से आजिज़ व क़ासीर हैं तो क्या “ये छोटा मुँह और बड़ी बात” का मिस्दाक़ बनना नहीं है कि हम ईलाही ज़ात के इसरार को समझने का दावा करें और ख़ुद राय बन कर उस की ज़ात में तस्लीस के इम्कान के मुन्किर हों।

बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनके लिहाज़ से ईलाही वहदत में किसी ना किसी तरह की कसरत माननी पड़ती है। मसलन इन्सानियत का एक आला व पाक तरीन तक़ाज़ा "मुहब्बत" है । इन्सान मुहब्बत करता है और यह भी आरज़ू रखता है कि इस के हम रुत्बा हम-जीन्स इस से मुहब्बत रखें क्या हम ये कह सकते हैं कि ख़ुदा ख़ुद इन्सान का ख़ालिक़ किसी वक़्त इस वस्फ़ "मुहब्बत" से ख़ाली था? क्या वो दुनिया और फ़रिश्तगान की पैदाइश से पेशतर ख़ाली अज़ मुहब्बत ख़ुश्क वहदत में मौजूद था ?

इस किस्म के ख़ुदा की शख़्सियत बमुश्किल ही मुतसव्वर हो सकती है। क्योंकि शख़्सियत का मफ़्हूम ऐसी ज़ात है जिसको अपनी और अपने ख़वास की हस्ती का इल्म व एहसास हो यानी उस के लिए आलम व माअलोम होना ज़रूर है । हमा औसत वालों ने भी इस हक़ीक़त का इक़रार किया है और एक तरह की तस्लीस क़ायम की है जिस का दार-ओ-मदार कायनात ही पर रखा है। इन के ख़्यालात के मुताबिक़ ख़ुदा अपने आपको कायनात से तमीज़ करता है और इस तरह अपनी हस्ती के एहसास की सिफ़त से मुत्तसिफ़ है। चुनांचे लिखा है कि :-

"चूँकि ख़ुदा अज़ली है वो हमेशा अपनी ज़ात के एहसास के लिए अपने मुक़ाबले में फ़ित्रत को क़ायम रखता है"

मसीही उलमा इस ईलाही ज़ात के एहसास का ज़रीया सय्यदना मसीह ख़ुदा के अज़ली बेटे में पाते हैं । लिहाज़ा मसीही फ़ल्सफ़ा ईलाही इल्हाम से पूरी पूरी मुताबिक़त रखता है। अगर अहले इस्लाम मुंदरजा बाला बयान को सय्यदना मसीह के बयान के साथ मिला कर देखें तो साफ़ मालूम हो जाएगा। कि इस्लामी ख़ुश्क तौहीद के मुक़ाबले में तस्लीस फ़ील तौहीद की तालीम निहायत ही आला व तसल्ली बख़्श है ।

सय्यदना मसीह के दुआइया अल्फ़ाज़ कैसे पुरमानी हैं चुनांचे वो फ़रमाता है :- "ए बाप तू उस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेशतर तेरे साथ रखता था मुझे अपने साथ जलाली बना दे" फिर फ़रमाया "तूने बनाए आलम से पेशतर मुझसे मुहब्बत रखी"(युहन्ना 17:5, 24)

असमा-ए ईलाही मुंदरजा क़ुरआन में से एक "अल-क़य्यूम" है लेकिन क्या अल-क़य्यूम का ये तक़ाज़ा नहीं कि किसी तरह की कसरत उस ज़ात वाहिद के अंदर अंदर पाई जाये ताकि उस ज़ात का कामिल इज़्हार हो? शहर-ए-लाहौर की पुरानी मस्जिदों में से एक की दीवार पर "अल्लाह काफ़ी" कुंदा है जिससे ये ज़ाहिर होता है कि ख़ुदाए तआला की ज़ात में वो सब कुछ मौजूद है जो उस के कामिल इज़्हार के लिए ज़रूर है।

फिर "अल-वदूद" कहलाता है । इस से भी अज़हर-मिन-अश्शम्स है कि वो मुहब्बत व महबूब और मुहब्बत के तमाम लवाज़म अपनी ज़ात-ए-वाहिद में रखता है और किसी बैरूनी चीज़ का मुहताज नहीं है। अगर ख़ुदा वाजिब-उल-वजूद और अल-क़य्यूम है तो ज़रूर उस की अज़ली मुहब्बत के लवाज़म उस की ज़ात-ए-पाक में मौजूद हैं।

इस्लामी ख़ुश्क उलूहियत के ख़्याल के मुताबिक़ तो ख़ुदा सिफ़त-ए-मुहब्बत से आरी ठहरता है दरहालीका उस के मख़्लूक़ इन्सान में मुहब्बत का जज़्बा मौजूद है। लेकिन ये बात तो ग़ैर मुतसव्वर है क्योंकि ख़ालिक़ अपनी ज़ात व सिफ़ात में मख़्लूक़ सा अदना नहीं हो सकता।

अल-ग़र्ज़ चूँकि तस्लीस की तालीम में मुश्किलात पेश आती हैं इस लिए ये इन्सानी इख़तिरा नहीं है और यह भी याद रहे कि ये तालीम मुवह्हिद यहूदीयों से राइज हुई जिनका मैलान-ए-ख़ातिर उस के ख़िलाफ़ होना चाहिए था। जो कुछ कहा जा सकता है वो सब कहने के बाद इन्सान को लाज़िम है कि ख़ुदा की ज़ात का इर्फ़ान हासिल करने के लिए ईलाही इल्हाम को अपना रहनुमा बनाए । क्योंकि इन्सान अपनी जुस्तजू से ख़ुदा को नहीं पा सकता और अपने नाक़िस इल्म के वसीले से इस की लामहदूद ज़ात की गहराई तक नहीं पहुंच सकता । ख़ुदा को पूरे तौर से जानने के लिए ज़रूर है कि हम ख़ुद ख़ुदा हों या बरअक्स उस के यूं कहें कि जिसको इन्सान पूरे तौर से जान सके वो ख़ुदा भी नहीं हो सकता ।

मज़कूरा बाला बयानात के मुताबिक़ जबकि ख़ुदा की ज़ात-ए-वाहिद में किसी तरह की कसरत का होना ज़रूर है और कलाम-उल्लाह से इस की ज़ात के बारे में तस्लीस फ़ील तौहीद की तालीम मिलती है तो ईमान मज़बूत होता है और उम्मीद ताज़ा होती है। जब सय्यदना मसीह अपने मुतहय्यर शागिर्दों के सामने आस्मान पर सऊद फ़र्मा रहे थे इसने उन्हें फ़रमाया :-

"जाओ और क़ौमों को बाप बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस के नाम से (ना कि नामों से) बपतिस्मा देकर शागिर्द बनाओ"

मसीही लोग इसी नाम की मुनादी करते हैं। बाप तमाम चीज़ों का मंबा व सर-चशमा है । बेटा अज़ल से बाप के साथ है और रूहुल-क़ुद्दुस बाप और बेटे से सादीर है और एक ही ख़ुदा है।

इस्लाम में ख़ुदा अपनी ख़ुश्क तौहीद और बेगानावार बुज़ुर्गों में ऐसा नज़र आता है कि इस की ज़ात सिफ़ात जो बयान की जाती है इस में क़ायम नहीं होतीं। लिहाज़ा इस्लाम ख़ुदा की तारीफ़ में क़ासिर है और तौरेत व इंजील की ईलाही तालीम और मुकाशफ़ात का मुख़ालिफ़ है।



बाब दोम

सिफ़ात-ए-ख़ुदा

क़ुरआन और अहादीस में जो सिफ़ातें ख़ुदा से मंसूब की गई हैं उन को उमूमन अज़ली बयान किया है वह निनान्वे (99) असमा-ए ईलाही के नाम से मशहूर हैं। लिहाज़ा ख़ुदा की सिफ़ात पर ग़ौरो-फ़िक्र करते वक़्त उन निनान्वे असमा-ए सिफ़ात पर ग़ौर करना अज़-बस ज़रूरी है।

ख़ुदा का इस्म-उल-ज़ात या ज़ाती नाम अल्लाह है। ताज्जुब की बात है कि ये नाम निनान्वे नामों की फ़हरिस्त में शामिल नहीं है। असमा-ए सिफ़ात की दो किस्में हैं :-

اسماء الجلالیہ دوم اسماء الجمالیہ

अव़्वल अस्मा-ए-अल-जलालीयह दोम अस्मा-ए-अलजमालिया ।

ये सब नाम आप ही अपनी शरह करते हैं । मसलन अल-रहमान पहली किस्म की फ़हरिस्त में आता है लेकिन अल-मुंतक़िम दूसरी किस्म की फ़हरिस्त में आएगा। इस्लाम के इल्म ईलाही में इन नामों की एहमीयत का ज़िक्र करते वक़्त मुबालग़ा करना मुश्किल है क्योंकि उनके वसीले से निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ मालूम हो जाता है कि ख़ुदा की सिफ़ात और कैरक्टर के बारे में अहले-इस्लाम का ख़्याल व एतक़ाद क्या है। इन नामों के विर्द का बहुत ही बड़ा सवाब है। चुनांचे मिश्कात में यूं मर्क़ूम है :-

من احصاھادخل الجنہ

जो कोई इनका विर्द करता है बहिश्त में जाएगा

इस में ज़रा भी शक नहीं कि बहुत से दीनी मुअल्लिमों की ग़लती इस में नहीं जो कुछ वो ख़ुदा से मंसूब करते हैं बल्कि इस बात में है कि वो बहुत से ऐसे उमूर को नज़र-अंदाज करते हैं जिन्हें ख़ुदा से मंसूब करना चाहिए।

इन निनान्वे वस्फ़ी नामों में से ज़्यादा तर ख़ुदा के कहारी व जब्बारी का इज़्हार करते हैं और उस के जलाल का बयान करने वाले बहुत ही थोड़े हैं। बेशक ये सच्च है कि क़ुरआन में एक सूरह के सिवा सब के शुरू में ख़ुदा को "रहीम व रहमान" लिखा है और बार बार उस को ग़ाफ़िर-अलज़नोब बयान किया है लेकिन ये हक़ीक़त फिर भी क़ायम रहती है कि क़ुरआन ख़ुदा को ज़्यादा तर साहिबे क़ुदरत और मुतलक़-उल-अनान हाकिम ही बयान करता है और ख़ुदा की फ़रमांबर्दारी की बुनियाद उस का ख़ौफ़ और मुहब्बत बिल्कुल मफ़क़ूद है।

ख़ुदा के अख़्लाक़ के मुताल्लिक़ सिर्फ चार अल्फ़ाज़ इस्तिमाल किए गए हैं और अगरचे हम तस्लीम करते हैं कि एक तरह से ये अख़्लाक़ी सिफ़ात हैं तो भी क़ुरआन में सिर्फ दोही अल्फ़ाज़ मिलते हैं और इस्लामी इल्मे ईलाही में उन के भी मआनी मुश्तबा व मशकूक हैं।

ख़ुदा की कहारी व जब्बारी की सिफ़ात क़ुरआन में बार-बार ज़िक्र की गई हैं। ख़ुदा कि अख़्लाक़ी सिफ़ात का ख़ुलासा या माहसल इन दो आयतों में पाया जाता है जिनमें मुंदरज है कि अल्लाह पाक और सादिक़-उल-क़ोल है। क़ुरआन बताता है और अहादीस से इस की तशरीह की जाती है कि हज़रत मुहम्मद को किसी हद तक ख़ुदा की जिस्मानी सिफ़ात का ख़्याल तो था लेकिन इस की अख़्लाक़ी सिफ़ात का ख़्याल या तो था ही नहीं या बिल्कुल ग़लत था।

आपने फ़ित्रत में ख़ुदा की क़ुदरत को देखा लेकिन इस की पाकीज़गी और उस के अदल व इन्साफ़ की झलक आपको नसीब ना हुई।

जब ख़ुदा के निनान्वे नामों की फ़हरिस्त में "बाप" नज़र नहीं आता तो मसीही आदमी को इस से सख़्त हैरत होती है। अगर क़ुरआन व अहादीस का बग़ौर मुतआला किया जाये तो बाइबल के मुकर्रर ऐलान "ख़ुदा जहान को प्यार करता है" का ना पाया जाना अज़हद परेशानी पैदा करता है जिस दीन में इब्तदाए आलम से पेशतर ही से ख़ुदा जहान को प्यार करने वाला नहीं इस में ये तालीम कहाँ पाई जा सकती है कि कायनात की तख़्लीक़ के बाद से खुदा अपनी मख़्लूक़ात को प्यार करता है।

लफ़्ज़ "इस्लाम" इस अम्र के इज़्हार के लिए काफ़ी है कि ख़ुदा और इन्सान में बजाय बाप और बेटे के आक़ा और ग़ुलाम का रिश्ता है। और इन्सान का रुत्बा सिर्फ यही है कि क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा की मर्ज़ी का महिज़ मग़्लूब ही हो।

अहले-इस्लाम बहैसियत-ए-मजमूई इन निनान्वे असमा-ए-सिफ़ात से बहुत ही मुतास्सिर हुए हैं । कलिमा तौहीद “ला-इलाहा-इल्लल्लाह” के बाद सबसे ज़्यादा "अल्लाहु-अकबर" मुसलामानों दर्द ज़बान है। पस अहले-इस्लाम का तसव्वुर जो ख़ुदा के बारे में है इस में कुछ मुहब्बत नहीं जो आबिद को माबूद की तरफ़ तबअन माइल करके फ़रमांबर्दार बनाए ताकि वो मुहब्बत और दिली रग़बत से ख़ुदा की मर्ज़ी का मुतीअ बने।

ख़ुदा का इस्लामी तसव्वुर ये तक़ाज़ा करता है कि ख़ुदा की एक जाबिर हुक्म की मानिंद ग़ुलामाना फ़रमांबर्दारी की जाये और इस का नतीजा ये है कि फ़र्ज़ंदाना मुहब्बत में बहुत कमी वाक़्य हुई है।

हज़रत मुहम्मद ने मसीह की इब्नीयत की तर्दीद की और इस का अस्बाब ये था कि आप उस को रुहानी पैराया में ना बयान कर सके और ना समझ सके लेकिन ख़ुदा को आपने ऐसा जिस्मानी तसव्वुर कर लिया कि गोया वो तख़्त पर बैठा अपने हाथ से तक़्दीर हाय नेक व बद लिख रहा था।

अब क्या हम नहीं कह सकते कि हज़रत मुहम्मद का ख़याल-ए-ख़ुदा की शख़्सियत के बारे में बिल्कुल ग़लत था और इसी वास्ते आप इस ख़्याल में उलझ गए कि मसीह की इब्नीयत की निस्बत मसीही तालीम को यूं तसव्वुर किया कि इस के मुताबिक़ गोया वो मर्यम ताहिरा से जिस्मानी तौर पर पैदा हुआ।



बाब सोम

अक़ाइद-ए-तजस्सुम-ए-ख़ुदा

क़ुरआन को बग़ौर पढ़ने से मालूम होता है कि बहिश्त व दोज़ख़ के मुताल्लिक़ बयानात माद्दी है I क्योंकि हज़रत मुहम्मद ने ज़्यादा-तर अहले-बहिश्त की नफ़्सानी ऐश व इशरत और हाल-ए-दोज़ख़ के जिस्मानी अज़ाब ही के बयान में अपने तमाम तसव्वुरात को सर्फ किया है |

क़ुरआन और अहादीस में ईमानदारों को बहिश्त में बहुत सी नफ़्सानी ख़ुशीयों के वाअदे दीए गए हैं। इन ख़ुशीयों के बयान निहायत मुफ़स्सिल और मुशर्रेह तौर पर मुंदरज हैं। चुनांचे लिखा है कि शराब तुहूर की नहरें जारी होंगी और मोटी मोटी स्याह आँखों वली हूरें अहले-जन्नत की ख़ुशी को कामिल करेंगी।

बख़िलाफ़ उस के दोज़ख़ निहायत ही हैबतनाक जगह है। वहां अहले-दोज़ख़ को आतिशी लिबास पहनाया जाएगा और उबलता हुआ पानी उन के सरों पर डला जाएगा । जिसकी गर्मी से उन की आँतें पिघल कर निकल जाएगी और लोहे के गुर्ज़ों से उन को मारेंगे। ख़ून और पीप का मुरक्कब उन्हें खाने को मिलेगा और उन बदबख़्तों को साँप और बिच्छू मुतवातिर डंक मारते रहेंगे ।

हज़रत मुहम्मद का ख़्याल उस जिस्मानी सोज़िश के अज़ाब से आगे नहीं बढ़ सका। इस किस्म की सज़ा को बहुत से शहीदों ने मुस्कुराते हुए बर्दाश्त किया। ताज्जुब की बात ये है कि आपके जहन्नुम में ज़हनी और अक्ली सज़ा का नाम तक नहीं पाया जाता।

पस कुछ ताज्जुब का मुक़ाम नहीं कि जब हज़रत मुहम्मद का दिमाग़ ऐसे माद्दी बहिश्त व दोज़ख़ के ख़्याल से पूर था तो आप ने ख़ुदा को भी ऐसा ही माद्दी बयान फ़रमाया।

चुनांचे क़ुरआन में बहुत से मुक़ामात पर ख़ुदा के चेहरे उस के हाथों और उस की आँखों का ज़िक्र है और उसे एक तख़्त पर बैठा हुआ तसव्वुर किया है। मुफ़स्सिर हुसैन लिखता है कि इस तख़्त के आठ हज़ार पाए हैं और हर दो पाइयों का दर्मयानी फ़ासिला तीस लाख मील है !

क़ुरआन व अहादीस के इन मुक़ामात की शरअ में मुफ़स्सिरीन को बड़ी मुश्किल पेश आती है और उन्होंने सिर्फ ये तरीक़ा पसंद किया है कि इन बातों को बे-तफ़्सीर और बे-दलील ही तस्लीम किया है।

मिसाल के तौर पर हम मालिक इब्ने अनस के बयान को पेश करते हैं। वो ख़ुदा के तख़्त पर बैठने की निस्बत यूं लिखता है :-

ख़ुदा का तख़्त पर बैठना तो मालूम है लेकिन ये नहीं मालूम कि वो किस तरह बैठा हुआ है। इस को मानना फ़र्ज़ है और किसी तरह की चोन व चरा करना बिद्दत है।

इस मुक़ाम पर ये कहना मुनासिब मालूम होता है कि इस्लाम की तालीम के मुताबिक़ माद्दी लौह-ए-महफ़ूज़ से नक़ल हो कर माद्दी किताब आस्मान से नाज़िल हुई लिहाज़ा उसका मुक़ाम यानी तख्त-ए-ख़ुदा भी माद्दी होना चाहिए।

पस जब माद्दी तख़्त तस्लीम कर लिया तो ख़ुदा को माद्दी मानने में एक ही क़दम बाक़ी रह जाता है। ऐसा मालूम होता है कि इस्लाम ने ये क़दम बाक़ी नहीं रख छोड़ा और ख़ुदा को माद्दी जिस्म व सूरत के साथ तसव्वुर किया है लेकिन फिर भी जैसा कि तिर्मिज़ी के बयान से ज़ाहिर है उलमा-ए-इस्लाम इस अम्र के बाब में निहायत ही शशदर व हैरान हैं।

हज़रत मुहम्मद ने कहा था "ख़ुदा सातों आसमानों के सबसे निचले पर उतर आया" जब तिर्मिज़ी से इस की निस्बत पूछा गया तो उस ने जवाब दिया कि :-

ख़ुदा का उतर आना तो क़रीन-ए-क़ियास और माक़ूल बात है लेकिन ये नहीं मालूम कि किस तरह से उतर आया । इस पर ईमान लाना फ़र्ज़ है लेकिन इस के मुताल्लिक़ तहक़ीक़ात करना मज़मूम व बिदअत है।

बेशक फ़िर्क़ा मोतज़िला और दीगर बिद्दती फ़िर्क़ों के उलमा ने इस किस्म के तमाम माद्दी ख़्यालात की तर्दीद की और तजस्सुम के अल्फ़ाज़ के रुहानी मआनी बयान किए लेकिन रासिख़-उल-एतक़ाद फ़िर्क़ों के उलमा ने उन्हें ख़ूब सरज़निश की और उन में से बहुत से इस जुरआत व तहोर के सबब से मार डाले गए । फिर जब उन को मुक़द्दरत नसीब हुई तो उन्होंने बगदादी सल्तनत के ज़माने में रासिख़ फ़िर्क़ों से वही सुलूक किया।

जलाल-उद्दीन-अल-सिवती उनके ज़ुल्म व तशद्दुद के बाब में बयान करता है कि ख़लीफ़ा अल-वासक ने अहमद (बिन नस्र-अल-कफ़ाई) मुहद्दिस को बग़दाद में तलब किया और इस से क़ुरआन के ख़ल्क़ किए जाने और क़ियामत के दिन दीदारे ईलाही के बारे में सवाल किया ख़लीफ़ा मज़कूरा ख़ुद इन दोनों का मुन्किर था। अहमद ने जवाब दिया :-

ستروں ربکم یوم القیامتہ کما ترون القمر

रोज़ क़ियामत में तुम अपने रब को इस तरह देखोगे जिस तरह चांद को देखते हो अल-वासक ने कहा "तू झोट बोलता है", अहमद ने जवाब दिया नहीं मैं झूट नहीं बोलता बल्कि तू झूट बोलता है इस पर ख़लीफ़ा ने कहा "क्या ख़ुदा एक दायरे में इस माद्दी चीज़ की मानिंद नज़र आएगा जिस को जगह मुक़य्यद कर सकती है और आँखें देख सकती हैं? ये कहकर मोतज़िला पेशवा ने उठकर अपने हाथ से अहमद को क़त्ल किया । ताहम आख़िर-ए-कार रासिख़-उल-एतक़ाद फ़िरक़े के लोग ग़ालिब आए और नतीजतन हर एक पक्के मुसलमान को ये मानना पड़ता है कि क़ियामत के रोज़ ख़ुदा माद्दी तौर पर नज़र आएगा और इस अक़ीदे की बुनियाद क़ुरआन व अहादीस के साफ़ व सरीह अल्फ़ाज़ पर है।

चुनांचे सूरह क़ियामत की 22 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :-

وُجُوهٌ يَوْمَئِذٍ نَّاضِرَةٌإِلَى رَبِّهَا نَاظِرَةٌ

कितने मुँह उस दिन अपने रब की तरफ़ देखते हुए ताज़ा होंगे।

हज़रत मुहम्मद की बहुत सी अहादीस ख़ुदा के माद्दी दीदार के मुताल्लिक़ मौजूद हैं और उन से साफ़ मालूम हो जाता है कि इस अम्र के बारे में आँहज़रत के ख़्यालात कैसे थे यहां तक कि शक व शुबहा की मुतलक़ गुंजाइश नहीं रहती। चुनांचे मिश्कात-अल-मसाबीह में मर्क़ूम है :-

اذا رخل اہل الجنتہ الجنتہ یقول اللہ تعالیٰ تریدون شیئا اریدکمہ فیقولون الم تبیض وجوھنا الم تدخلنا الجنتہ وتنجنا من النارقال فیر فع الحجاب فینظرون الی وجہ اللہ تعالیٰ فما اعطوا اشیئا احبالھمہ من النظرالی ربھم

पैग़म्बर ने फ़रमाया कि जब अहले-जन्नत जन्नत में दाख़िल होंगे तो अल्लाह तआला उन से कहेगा क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें और दूँ ? तब वो कहेंगे क्या तू ने हमारे चेहरों को रोशन नहीं किया और क्या तूने हमको जन्नत में दाख़िल नहीं किया और आतिश-ए-दोज़ख़ से नहीं बचाया? तब ख़ुदा पर्दा उठाएगा और वो अल्लाह तआला के चेहरे पर नज़र करेंगे । उन को दीदार ए ईलाही से ज़्यादा मर्ग़ूब कोई चीज़ नहीं दी जाएगी।

अगर कोई मेराज का बयान पढ़े तो उस पर बख़ूबी ज़ाहिर हो जाएगा । कि उलमा-ए-इस्लाम ने कहाँ तक हज़रत मुहम्मद की शान में मुबालग़ा व गु़लू से काम लिया है। चुनांचे लिखा है कि :-

ख़ुदावंद मुझसे मुलाक़ात करने को आया और मुझ को मर्हबा कहने के लिए अपना हाथ बढ़ाया और मेरे चेहरे पर नज़र की और मेरे कंधे पर हाथ रखा यहां तक कि मैंने उस की उंगलीयों के सरों की ठंडक महसूस किया |

फिर एक और मौक़ा पर जब आप सो रहे थे ख़ुदा मुलाक़ात को आया। चुनांचे मिश्कात अल-मसाबीह में यूं मुंदरज है :-

وضع کفہ بین کنفی حتی وجدت بردملہ بین ثدبی

इस ने अपनी हथेलियों को मेरे कंधों के दर्मियान रखा यहां तक कि मैंने उस की उंगलीयों की ठंडक को अपने सीने में मसहूस किया।

इस बात के सबूत में कि मुंदरजा बाला बयान रासिख़-उल-एतक़ाद मुसलामानों की तालीम है हम जे़ल का बयान जोहराह से नक़ल करते हैं। 107 से 112 सफ़हे तक यूं मर्क़ूम है :-

ख़ुदा को देखना इस दुनिया में भी और आलम-ए-आख़िरत में भी मुम्किन है। इस दुनिया में तो सिर्फ हज़रत मुहम्मद ही को ख़ुदा का दीदार नसीब हुआ है और आलम-ए-आख़िरत में तमाम मोमिनीन उसको देखेंगे बाअज़ का ख़्याल है कि सिर्फ आँखों से देखेंगे। बाअज़ के नज़्दीक तमाम चेहरे से और बाअज़ कहते हैं कि तमाम जिस्म से या जिस्म के तमाम आज़ा से देखेंगे।

मोमिनीन के अज्र के बारे में क़ुरआन में एक मशहूर आयत है और सही अहादीस की सनद से मुफ़स्सिरीन इस आयत से दीदार ईलाही की तरफ़ इशारा पाते हैं। चुनांचे सूरह यूनुस की 27 वीं आयत में मुंदरज है :-

لِلَّذِيْنَ اَحْسَـنُوا الْحُسْنٰى وَزِيَادَۃٌ۝۰ۭ

जिन्होंने भलाई की इन के लिए भलाई और ज़्यादती है |

मुफ़स्सिरीन कहते हैं कि "भलाई" से बहिश्त और गुनाहों की माफ़ी मुराद है और "ज़्यादती" का मफहूम फ़र्हत अफ़्ज़ा दीदार-ए-ख़ुदा है।

चुनांचे खुलासतुल तफासीर का मुसन्निफ़ इस आयत की तफ़्सीर में यूं लिखता है "हुसना से जन्नत और मग़फ़िरत....और ज़्यादती से दीदारे ईलाही मुराद है।

इसी आयत की तफ़्सीर में अब्बास यूं लिखता है :-

الحسنیٰ الجنتہ وزیادہ یعنی النظرالی وجدہ اللہ

हुसना से जन्नत और "ज़्यादती" से ख़ुदा के चेहरे पर नज़र करना मुराद है।

अब मुम्किन है कि कोई यूं कहे कि मुंदरजा बाला हवालजात में जिन मुक़ामात का ज़िक्र हुआ है उन्ही की मानिंद बाइबल में भी ख़ुदा के चेहरे और हाथ वग़ैरा का ज़िक्र पाया जाता है। एक तरह से ये बिल्कुल सच्च है लेकिन बाइबल से माद्दी ख़ुदा की तालीम क़ायम नहीं होती । क्योंकि बाइबल में इस किस्म के जितने मुक़ामात हैं उन के मआनी सिवाए बिल्कुल रुहानी और तश्बीही के और कुछ हो ही नहीं सकते। मसलन साफ़ लिखा है कि :-

"ख़ुदा रूह है" (युहन्ना 4:24)

"कभी किसी आदमी ने ख़ुदा को नहीं देखा" (युहन्ना 1:18)

"ख़ुदाए नादीदाह" (कुलुसियों 1:15)

पुराने अह्दनामे में भी जहां-जहां ख़ुदा के ज़ाहिर होने का ज़िक्र है वहां साफ़ साफ़ बताया गया है कि ख़ुदावंद का "फ़रिश्ता" लोगों के साथ चलता है और उन से हम-कलाम होता था।

मुसलमान मुफ़स्सिरीन के मुबालग़ों से पुर बेठिकाना बयानात और बाइबल के बयान में ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है मुफ़स्सिरीन इस्लाम के इन बयानात की बुनियाद हज़रत मुहम्मद के साफ़ व सरीह अल्फ़ाज़ पर है।

हज़रत मुहम्मद ने ख़ुदा को और शैतान को माद्दी वजूद के साथ मुतसव्वर किया है। चुनांचे मिश्कात अल-मसाबीह में शैतान के बारे में यूं मुंदरज है :-

وقت صلوات الصبح من طلوع الفجر مالمہ نظلع الشمس فاذا اطلعت الشمس نامسیک عن الصلوات فاتھا تطلع بین قرنی الشیطان

नमाज़-ए-सुबह का वक़्त-ए-सुब्ह सादिक़ से तूलूअ आफ़्ताब तक है लेकिन जब आफ़्ताब बुलंद होता है नमाज़ से बाज़ रहो क्योंकि यक़ीनन वो शैतान के दोनों सींगों के दर्मियान से बुलंद होता है ।

मिश्कात में एक और हदीस मर्क़ूम है जो ख़ुदा के मुजस्सम होने और तक़्दीर की ख़ौफ़नाक तालीम देती है। चुनांचे लिखा है :-

قال ان خلق اللہ ادم ثمہ مسخ ظہرہ بیمینہ فاستخرج منہ ذریعہ فقال خلقت ھولا للجنہ وبعمل اہل الجنتہ یعملون ثم مسح ظھرہ بیدہ فاستخرج ذریتہ فقال خلقت ھوالاء اللنار وبعمل اہل الناریعلمون

(कहा मुहम्मद ने) बेशक अल्लाह ने आदम को ख़ल्क़ किया और उसकी पीठ ठोकी अपने दाएं हाथ से और इस से औलाद निकाल कर कहा कि मैंने उनको बहिश्त के लिए पैदा किया है और ये अहले-बहिश्त के काम करेंगे। फिर दुबारा अपने हाथ से इस की पीठ ठोक कर उस की औलाद निकाली और कहा कि इन को मैंने दोज़ख़ के लिए पैदा किया है और यह अहले- दोज़ख़ के काम करेंगे ।

मुंदरजा बाला मक़तबसात से जिनकी मानिंद और भी बहुत से मिल सकते हैं साफ़ ज़ाहिर है कि इस्लाम ख़ुदा को माद्दी जिस्म देने के इल्ज़ाम से बरी नहीं हो सकता। क़ुरआन व अहादीस में जो बहिश्त व दोज़ख़ के माद्दी बयानात पाए जाते हैं ये भी उन्हीं से अख़ज़ किया हुआ ख़्याल है। इस में भी शक नहीं कि ये बयानात जिनको तमाम पक्के मुसलमान लफ़्ज़ी तौर पर सच्च मानते हैं मुजस्सम ख़ुदा के ख़्याल की ताईद करते हैं। फिर इलावा बरीं हज़रत मुहम्मद ने साफ़- साफ़ ये बयान किया है कि शब-ए-मेराज में आप आस्मान पर गए। वहां आदम, मूसा, ईसा और दीगर अम्बिया से मुलाक़ात की और आख़िरकार उम्मत की नमाज़ें कम कराने की दरख़्वास्त लेकर ख़ुदा के हुज़ूर में पहुंचे।

ये बयान निहायत साफ़ और तशबीया व इस्तआरे से बिल्कुल ख़ाली है। इस से भी ये बख़ूबी ज़ाहिर होता है कि ख़ुदा अपनी तमाम मख़्लूक़ से दूर और सब से ऊंचे आस्मान पर एक माद्दी तख़्त पर बैठा है।

ख़ुदा के हक़ में ऐसे ख़्याल व एतक़ाद का अमली नतीजा इस्लामी इबादत के ख़्याल में साफ़ नज़र आता है "रब-उल-अर्श" ने दिन-भर में पाँच मर्तबा नमाज़ पढ़ने का हुक्म दे दिया है और हर एक मोमिन पर इस की बजा आवरी फ़र्ज़ है ख्वाह कैसा ही बे-लज़्ज़त व तकलीफ़दह मालूम हो। बरकत हासिल करने का ज़रीया सिवाए फ़रमांबर्दारी के और कुछ नहीं।

नमाज़ें समझ में आएं या ना आएं लेकिन आँहज़रत ने इन को कलीद-ए-दर-ए-जन्नत बयान फ़रमाया है । पस जो दाना है वही दाख़िल होगा। ख़ुदा के साथ सोहबत रखने का ख़्याल बिल्कुल मफ़क़ूद है। हम ये कहने की जुरआत कर सकते हैं कि क़ुरआन व अहादीस में कहीं एक फ़िक़रा भी नज़र नहीं आता जो युहन्ना रसूल के अल्फ़ाज़ जे़ल के मुक़ाबले में पेश किया जा सके।

हम ख़ुदा के साथ सोहबत रखते हैं “ख़ुदा मुहब्बत है” और जो मुहब्बत में रहता है और ख़ुदा इस में सुकूनत करता है बाइबल की तालीम के बमूजब ख़ुदा हम से दूर नहीं बल्कि हर एक के नज़्दीक है और वो हाथ के बनाए हुए ज़मीनी या आस्मानी मकानों में नहीं रहता क्योंकि हम इसी में चलते फिरते और ज़िंदा हैं जब बिरादरान-ए-अहले-इस्लाम सय्यदना मसीह से ये सीख लेंगे कि “ख़ुदा रूह है” और उसके परसतारों को वाजिब है कि रूह व रास्ती से इस की परस्तिश करें। तब ही रस्म परस्ती की जगह हक़ीक़ी रुहानी इबादत होगी और दूर के आस्मानी तख़्त पर के मुहीब ख़ुदा के ख़्याल के इव्ज़ में ख़ुदा के साथ दिली ताल्लुक़ नसीब होगा ।

तब ही अहले-मसीह की इब्नीयत की रुहानी तालीम को समझ सकेंगे और पाक तस्लीस में ज़ात-ए-बारी के मुताल्लिक़ बहुत से मुश्किल मसाइल हल हो जाएंगे।



बाब चहारुम

ख़ुदा और इन्सान का बाहमी रिश्ता

गुज़शता अबवाब में हम वाज़िह कर चुके हैं कि क़ुरआन व अहादीस ने कैसे नालायक़ व नामुनासिब पीराए में वजूद-ए-ख़ुदा का तसव्वुर पेश किया है। क़ुरआन व अहादीस ख़ुदा तआला को ख़ुश्क वाहिद और मुहब्बत से ख़ाली पेश करते हैं। वो अपनी ज़ात में बेनियाज़ी और वाजिब-उल-वजूद होने की सिफ़ात रखता हुआ नज़र नहीं आता बल्कि बैरूनी अस्बाब का मुहताज है यानी अपनी शख़्सियत के इज़्हार व एहसास के लिए मख़्लूक़ात का हाजत-मंद है।

इलावा बरीं क़ुरआन और अहादीस की ये तालीम कि ख़ुदा माद्दी वजूद या जिस्म रखता है और भी उस की ज़ात-ए-पाक पर धब्बा लगाने वाली है और रूह विरासती की इबादत के लिए सद्द-ए-राह है।

जब हम ख़ालिक़ और मख़्लूक़ और ख़ुसूसन ख़ुदा व इन्सान के बाहमी रिश्ते के पहलू से इस्लाम की तालीम पर नज़र करते हैं तो ज़ात-ए-बारी का तसव्वुर और भी नाक़िस व अदना नज़र आता है और अक़्वाम इस्लाम का तरक़्क़ी ना करना और ख़तरे के वक़्त मायूस व नाउम्मीद होना मुक़ाम-ए-ताज्जुब नहीं रहता ।

इस्लामी ख़ुदा वो आस्मानी बाप नहीं है जो अपने बच्चों पर तरस खाता और ये बात याद रखता है कि वो ख़ाक हैं बल्कि वो एक दूर रहने वाला बिल्कुल बेगाना मुतलक़ अल-अनान बादशाह है जो अपने ग़ुलामों पर अपनी जाबिर मर्ज़ी के मुवाफ़िक़ हुकूमत करता है और उस के लिए कोई किसी तरह का क़ानून या अख़्लाक़ी हद नहीं है।

इन्सान उस के हाथ में एक ऐसी पूतली है जिसका हर एक नेक व बद फे़अल अज़ल ही से मुक़द्दर और इब्तदाए आलम से पेशतर ही से लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम है।

इस तक़्दीर व क़िस्मत की सरीह तालीम का अगर सही नतीजा अख़ज़ किया जाये तो ख़ुदा बदी का बानी ठहरता है। जो लोग इस तालीम को मानते हैं वो सब के सब तिब्बी तौर पर काहिल-उल-वजूद और पस्त हिम्मत हो जाते हैं और इस्लामी ममालिक की मौजूदा हालत उसकी ख़ल्क़ तबाहकुन और बेकार करने वाली तासीर पर शाहिद अदल का हुक्म रखती है।

अब हम इस बात का सबूत इस्लाम ही से पेश करेंगे कि हमने मुंदरजा बाला बयान में कुछ मुबालग़ा नहीं किया।

क़ुरआन व अहादीस में क़िस्मत की तालीम बार-बार पाई जाती है और दोनों इस बात पर ज़ोर देते हैं कि इन्सान नेकी या बदी की मुतलक़ ताक़त नहीं रखता बल्कि बहर-ए-हाल मक़ुयद क़िस्मत है चुनांचे मिश्कात में मर्क़ूम है :-

قال ان اول ما خلق اللہ القام فقال لہ الکتب قال مااکتب قال الکتب القدر فکتب ماکان وما ھوکا ئن الی بد

पैग़म्बर ने फ़रमाया कि यक़ीनन ख़ुदा ने सबसे पहले क़लम को पैदा किया और उसे कहा लिख। पस इस ने जो कुछ था और जो कुछ अबद तक होने वाल था सब लिखा |

फिर उसी किताब की एक और हदीस में यूं मुंदरज है :-

قال رسول اللہ صلع کتب اللہ مقاد دیر اخلائق قبل ان یخلق السموات والارض لنجمسین الفاسنتہ قال وکان عرشہ علیٰ الماء

पैग़म्बर ने फ़रमाया कि ज़मीन व आस्मान की पैदाइश से पच्चास हज़ार साल पेशतर अल्लाह ने तमाम मख़्लूक़ात की मुक़ादीर को लिखा और उस का तख़्त पानी पर था।

क़ुरआन भी इन अहादीस के साथ बिल्कुल मुत्तफ़िक़ और हमज़बाँ व हम-आवाज़ है। चुनांचे सूरह अल-क़मर में 52, 53 आयत तक यूं मर्क़ूम है :-

إِنَّا كُلَّ شَيْءٍ خَلَقْنَاهُ بِقَدَرٍ وَمَا أَمْرُنَا إِلَّا وَاحِدَةٌ كَلَمْحٍ بِالْبَصَرِ وَلَقَدْ أَهْلَكْنَا أَشْيَاعَكُمْ
فَهَلْ مِن مُّدَّكِرٍوَكُلُّ شَيْءٍ فَعَلُوهُ فِي الزُّبُرِ وَكُلُّ صَغِيرٍ وَكَبِيرٍ مُسْتَطَرٌ

हमने हर एक चीज़ पहले ठहराकर ख़ल्क़ की....और जो कुछ उन्होंने किया वो वर्क़ों में लिखा गया और सब छोटे बड़े लिखने में आ चुके।

फिर सूरह बनी-इस्राईल की चौधवीं आयत में लिखा है :-

إِنسَانٍ أَلْزَمْنَاهُ طَآئِرَهُ فِي عُنُقِهِ

हर एक इन्सान की बड़ी क़िस्मत हमने उस की गर्दन से लगा दी है।

नीज़ आदम और मूसा के बहिश्त में बेहस करने का एक क़िस्सा मशहूर है जिससे मालूम होता है कि क़िस्मत के मुताबिक़ इन्सान के सब नेक व बद अफ़्आल अज़ल ही से ख़ुदा ने ठहरा रखे हैं। चुनांचे ये क़िस्सा मिश्कात में यूं मुंदरज है कि :-

एक मर्तबा आदम और मूसा अपने रब के हुज़ूर में बेहस कर रहे थे और मूसा ने कहा तू वो आदम है जिसे ख़ुदा ने अपने हाथ से ख़ल्क़ किया। जिसमें इस ने अपनी रूह फूंकी, जिसको फ़रिश्तों ने सज्दा किया और ख़ुदा ने तुझको बहिश्त में बसाया। बावजूद इस सब के तूने गुनाह किया और तमाम बनी-आदम को ज़लील किया। आदम ने कहा तू वो मूसा है जिसको ख़ुदा ने अपना पैग़ाम और अपनी किताब देकर भेजने का शरफ़ बख़्शा और ख़ुदा ने तुझको वो लौहें दीं जिन पर सब कुछ मर्क़ूम है। तू मुझे बता कि ख़ुदा ने मुझको ख़ल्क़ करने से कितने साल पेशतर तौरेत को लिखा था? मूसा ने कहा चालीस साल। तब आदम ने पूछा क्या तूने इस में ये लिखा देखा कि आदम ने अपने रब के ख़िलाफ़ गुनाह किया! मूसा ने कहा हाँ इस पर आदम ने कहा फिर तू मुझे इस फे़अल पर क्यों मलामत करता है जो ख़ुदा ने मुझे ख़ल्क़ करने से चालीस बरस पहले ही ठहरा रखा था ?

एक और हदीस बाअज़ के बहिश्त को जाने और बाअज़ के जहन्नुमी होने की तक़्दीर की तालीम देती है। चुनांचे हज़रत अली की रिवायत से मिश्कात में यूं मुंदरज है :-

مامنکمہ احد الا وقد کتب مقعدہ ومن النارو مقعدہ من الجنتہ

तुम में से कोई भी ऐसा नहीं है जिसके लिए ख़ुदा ने बहिश्त या दोज़ख़ में जगह ना लिख रखी हो ।

फिर आँहज़रत की एक और हदीस इसी अंधा धुंद मायूसी ख़ेज़ क़िस्मत की तालीम देती है । आपने फ़रमाया :-

ان للہ عزوجل فرغ الیٰ کل عبدمن خلقہ من خمس من اجلہ وعملہ ومضجعہ واثرہ ورزقہ

बेशक अल्लाह अज़्ज़-ओ-जल ने अपने तमाम बंदगान के लिए पाँच बातें पैदाइश से ठहरा रखी हैं (1) मौत (2) जाये सुकूनत (3) अफ़्आल (4) सफ़रात (5) रिज़्क़ पस कुछ ताज्जुब नहीं कि आपके सहाबा ने ऐसे अक़ीदा को सुनकर हैरानगी से पूछा" तो फिर इन्सान की सई व कोशीश से क्या फ़ायदा है? जिसका आपने क़तई जवाब दिया। "जब ख़ुदा किसी बंदे को बहिश्त के लिए पैदा करता है तो उस के मरते दम तक उसे अहले-बहिश्त की राह पर चलाता है और उस के बाद उसे बहिश्त में ले जाता है और जब वो किसी बंदे को दोज़ख़ के लिए पैदा करता है तो उस के मरते दम तक उसे अहले-दोज़ख़ की राह पर चलाता है और उस के बाद उसे दोज़ख़ में ले जाता है" (देखो मिश्कात अल-मसाबीह किताब अल-ईमान बाब अलक़द्र)

इसी तरह से क़ुरआन में भी शुरू से आख़िर तक क़िस्मत की ऐसी ही अंधा धुंद तालीम पाई जाती है और ख़ुदा बिल्कुल बे क़ानून और अपनी मर्ज़ी का मग़्लूब जाबिर बादशाह बयान किया जाता है । चुनांचे सूरह अल-नहल की 95 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :-

يُضِلُّ مَن يَشَاء وَيَهْدِي مَن يَشَاء

जिस को चाहता है गुमराह करता है और जिस को चाहता है हिदायत करता है।

फिर जैसा अहादीस में है वैसा ही क़ुरआन में भी लिखा है कि ख़ुदा ने बाअज़ लोगों को ख़ास दोज़ख़ के लिए पैदा किया है । मसलन सूरह आराफ़ की 180 वीं आयत में मुंदरज है :-

وَلَقَدْ ذَرَاْنَا لِجَــہَنَّمَ كَثِيْرًا مِّنَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ

बहुत से जिन्नों और इन्सानों को हम ने दोज़ख़ के लिए पैदा किया है |

सूरह सज्दा की 13 वीं आयत में इस फे़अल का जो कि ख़ुदा की शान के शायान नहीं है सबब बयान किया गया है :-

وَلَوْ شِئْنَا لَآتَيْنَا كُلَّ نَفْسٍ هُدَاهَا وَلَكِنْ حَقَّ الْقَوْلُ مِنِّي لَأَمْلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ الْجِنَّةِ وَالنَّاسِ أَجْمَعِينَ

अगर हम चाहते तो सब को हिदायत करते लेकिन मेरा ये क़ौल हक़ है कि मैं जिन्नों और आदमीयों से दोज़ख़ को भर दूंगा ।

ये क़तई तक़्दीर ईलाही ना सिर्फ हर फ़र्दबशर के लिए उस का अंजाम मुक़र्रर करती है बल्कि ज़िंदगी के हर पहलू पर इस की तासीर होती है और इन्सान ख़ुदा के हाथ में एक परखा सा बन जाता है जो अज़खु़द हरकत नहीं कर सकता बल्कि जिधर उल्टा सीधा ख़ुदा चलाता है चलता रहता है जैसा कि सूरह हदीद की 22 वीं आयत में मज़कूर :-

مَا أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٍ فِي الْأَرْضِ وَلَا فِي أَنفُسِكُمْ إِلَّا فِي كِتَابٍ مِّن قَبْلِ أَن نَّبْرَأَهَا

ज़मीन पर या तुम में कोई ऐसी बात हादीस नहीं होती जो इस से पेशतर कि हमने उन
को ख़ल्क़ क्या किताब में ना थी |

पस् इस से साफ़ साबित होता है कि इन्सान को नेकी या बदी इख़्तियार करने का कुछ इख़्तियार नहीं है, यहां तक कि इस का चाहना या किसी बात को पसंद करना भी ख़ुदा की मर्ज़ी या तक़्दीर में आ चुका है।

चुनांचे एक मुक़ाम निहायत ही मशहूर है जोकि रासिख़-उल-एतक़ाद उलमा-ए-इस्लाम अपने मुबाहिसों में बग़दाद के मोतज़िला और दीगर मुल्हिद फ़िर्क़ों के ख़िलाफ़ पेश किया करते थे और आज़ाद ख़्याल मुसलामानों के तमाम दलायल को जो वो आज़ाद मर्ज़ी की ताईद में पेश कर सकते थे रद्द करने वाला समझा जाता था I सूरह दहर की आख़िरी आयात में यूं मर्क़ूम है:-

فَمَن شَاء اتَّخَذَ إِلَى رَبِّهِ سَبِيلًا وَمَا تَشَاؤُونَ إِلَّا أَن يَشَاء اللَّهُ

पस जो कोई चाहे अपने रब की तरफ़ राह इख़्तियार करे और तुम ना चाहोगे जो अल्लाह चाहे |

क़ुरआन व अहादीस की मुक़र्ररा शहादत से साबित हुआ कि इस्लामी ख़ुदा कैसा है। ख़ुदा की कैसी बुरी तस्वीर दिखाई गई है ! इस किस्म के अक़ीदे से इन्सान मायूसी के बहरे बेपायाँ में गिर जाता है और इस की अपनी तमाम सई व कोशिश बेफ़ाइदा बेसूद ठहरती है और किसी तरह से ख़ुदा की मर्ज़ी ढूँढने और बजा लाने से इस तक़्दीर को नहीं बदल सकता जो उस की पैदाइश से हज़ारों साल पेशतर ही लिखी जा चुकी थी। क्या शैतान अपनी होशयारी से इस से बढ़कर कोई ऐसी राह तजवीज़ कर सकता है जिसके वसीले से इन्सान का दिल ज़्यादा सख़्त हो जावे और नतीजतन शिकम परस्ती और शहवत परस्ती की ज़िंदगी बसर करे?

चुनांचे उमर खय्याम लिखता है :-

क्लिक तक़्दीर ने जो लिखना चाहा लिख दिया। अब किसी की नेकी परहेज़गारी और आह व नाला से उस का एक नुक़्ता व शोशा भी टल नहीं सकता |

अहले-इस्लाम जानते हैं कि इन के आमाल नेक हों या बद तो भी मुम्किन है कि ख़ुदा उन को अहले-बहिश्त में शुमार करे ।

वोह बख़ूबी अपना मक़ूला बना सकते हैं कि :-

आओ खाएं पियें और ऐश करें क्योंकि मौत सर पर खड़ी है |

मिश्कात अल-मसाबीह मैं ख़ुद हज़रत मुहम्मद की हदीस मौजूद है :-

ان العبد لیعمل اھل النامی دانہ من اہل الجنتہ ویعمل عمل اھل الجنتہ وانہ من اہل الناس

बेशक मुम्किन है कि इन्सान के आमाल अहले- दोज़ख़ के हों और वह अहले-बहिश्त में से हो
और या उस के काम अहले- जन्नत के हों और वह अहले-दोज़ख़ में से हो।

ऐसे मज़हब ऐसे एतक़ाद-ए-ख़ुदा और ख़ुदा के ऐसे इंतज़ाम-ए-आलम का वाजिबी नतीजा ज़रूर लापरवाई और मुर्दा दिली होगा। क्योंकि अगर इन्सान अटल तक़्दीर या क़िस्मत के क़ब्ज़े में है और इस के नेक व बद-अमाल का कुछ लिहाज़ नहीं किया जाता बल्कि अज़ली फ़ैसले के मुताबिक़ उस को जन्नती या जहन्नुमी क़रार दिया जाता है तो इन्सान की तरफ़ से दीनी और अख़्लाक़ी उमूर में हर तरह की कोशिश लाहासिल व बे-सूद है।

क़िस्मत और तक़्दीर की तालीम को देख कर अगर हम हज़रत मुहम्मद को यह कहते पावें कि हर हालत में तक़्दीर पर शाकिर रहो, ताऊन से मत भागो और बीमारी के दफ़ीअह के सामान बहम पहुंचाने की कोशिश ना करो तो कुछ ताज्जुब नहीं होगा ।

मिश्कात-अल-मसाबीह में आँहज़रत की एक हदीस में यूं मुंदरज है :-

الطاعون جن ۔۔۔واذا وقع بارض وانتمہ بھا فلاتخرجوافرارمنہ

ताऊन सज़ा है जब किसी मुल्क में फैले और तुम इस मुल्क में हो तो उस के सामने से मत भागो |

हाल के इल्म हिफ़्ज़ान-ए-सेहत और तजुर्बात से ये बात पाया सबूत को पहुंच चुकी है कि अगर ताऊन ज़दा मुक़ामात को छोड़ दिया जाये और मुनासिब-ए-तदाबीर हिफ़्ज़-ए-तक़द्दुम और ईलाज व मआलज के तौर पर काम में लाई जाएं तो ताऊन का ज़ोर बहुत कम हो जाता है और उस से नजात मुम्किन हो जाती है लेकिन इस्लाम की तालीम ये है कि अपनी जगह से मत हिलो बल्कि वहीं जमे रहो। जो तक़्दीर में लिखा है बहर-ए-हाल वही होगा।

हमने यहां पर फ़िर्क़ा मोतज़िला की आज़ाद मर्ज़ी की तालीम पर बेहस नहीं की और उस का सबब ये है कि पक्के मुसलामानों के नज़्दीक ये फ़िर्क़ा मुल्हिद है और उस की तालीम भी मर्दूद है। इस मुख़्तसर बयान से हमारी ग़रज़ ये है कि रासिख़-उल-एतक़ाद अहले-इस्लाम के अक़ीदे के मुताबिक़ ख़ुदाए तआला की ज़ात व सिफ़ात को पेश करें।

हमने इस्लामी तालीमात के समझने में ग़लतफ़हमी नहीं की और ना हमने कोई ख़िलाफ़ बयान की है चुनांचे हम इस बात के सबूत में इल्म-ए-ईलाही के वो मुसलमान उस्तादों के बयान पेश करते हैं जिनसे मालूम हो जाएगा कि इस्लामी तालीम मुख़्तसर इन बयानात में मौजूद है और क़ुरआन व अहादीस के साफ़ व सरीह अल्फ़ाज़ पर मबनी है ।

चुनांचे पहले हम मुहम्मद बरकवी का बयान पेश करते हैं :-

इस बात का इक़रार करना वाजिब है कि नेकी और बदी ख़ुदा की अज़ली तक़्दीर और अज़ली इरादे से वक़ूअ में आती है। जो कुछ हुआ है और जो कुछ होगा सब मुक़द्दर है और अज़ल ही से लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम है। मोमिन का ईमान और दीनदार की दीनदारी व नेक आमाल ईलाही पेश-बीनी और मर्ज़ी के मुताबिक़ तक़्दीर में आकर ख़ुदा की मंज़ूरी से लौह-ए-महफ़ूज़ पर लिखे गए हैं बेईमान की बेईमानी और बेदीन की बे-दीनी और बद-आमाल खु़दा के अज़ली इल्म और उसकी मर्ज़ी व तक़्दीर के मुताबिक़ वक़ूअ में आते हैं लेकिन इस में उस की ख़ुशी नहीं है। अगर कोई ये पूछे कि ख़ुदा बदी को क्यों चाहता है और पैदा करता है? तो हम सिर्फ ये जवाब दे सकते हैं कि ज़रूर कोई नेक अंजाम जिन को हम नहीं समझ सकते मद्द-ए-नज़र होंगे |

इमाम ग़ज़ाली इस तालीम को मशहूर मक़सूद लाअसना में यूं बयान फ़रमाते हैं :-

हक़ सुब्हानहू इन चीज़ों को जो हैं अपनी मर्ज़ी से मुक़र्रर करता है और तमाम हादिसात व वाकेयात को वक़ूअ में लाता है । तमाम कायनात में कमो-बेश छोटी बड़ी, नेक व बद, मुफ़ीद व मज़र, ईमान व बे-ईमानी इल्म व जहालत, ख़ुशहाली व तनक हाली I तवान्ग्री व इफ़लास, इताअत व बग़ावत ग़रज़ सब कुछ ख़ुदा की तक़्दीर और उस की मर्ज़ी के क़तई (इरादे) के मुताबिक़ ज़हूर में आता है.....उस की तक़्दीर टल नहीं सकती और जो कुछ उस ने ठहरा दिया है इसके वक़ूअ में आने में ताख़ीर नहीं होती ।

इस्लाम ने ख़ुदा को ऐसा ही अन होना तसव्वुर किया है जिससे तमाम अख़्लाक़ी एहसास नेस्त व नाबूद हो जाते हैं और इन्सानी ज़िम्मेदारी का कुल्ली तौर पर इस्तीसाल हो जाता है क्योंकि जब इन्सान का हर एक फे़अल क़ादिर-ए-मुतलक़ ख़ुदा की मर्ज़ी और तक़्दीर के क़ब्ज़े में है तो अज़हर-मिन-अश्शम्स है कि तमाम इन्सानी अफ़्आल का फाइ्ल दर-हक़ीक़त ख़ुदा ख़ुद ही है।

पस ऐसी हालत में सज़ा देना और दोज़ख़ में डालना अव्वल दर्जे की बे-इंसाफ़ी व बे-रहमी होगी। मोतज़िलों का ये कहना बिल्कुल सच्च है कि अगर ख़ुदा बेदीनी सिखाता है और कुफ़्र के काम करवाता है तो वो ख़ुद बेदीन व काफिर है ! ये तक़्दीर की तालीम इन्सान को इस दर्जे तक कुफ़्र बकने पर आमादा करती है।

ये सच्च है कि बाइबल में ऐसी इबारात पाई जाती हैं जिनसे बर्गुज़ीदगी की तालीम मिलती है लेकिन इस के साथ ही ये साफ़ तालीम मिलती है कि ख़ुदा सबकी भलाई चाहता है वो चाहता है सब उस की नज़दीकी व बरक़त हासिल करें।

नजात हासिल करना भी इन्सान की आज़ादमर्ज़ी पर छोड़ा जाता है और इस तरह से क़िस्मत का फंदा और बंधन बाइबल की तालीम से बिल्कुल ख़ारिज है । बाइबल में बहुत से मुक़ामात पर मर्क़ूम है कि ख़ुदा चाहता है कि तमाम बनी-आदम इर्फ़ान हक़ को पाएं और नजात को हासिल करें लेकिन हम सिर्फ चंद मुक़ामात के इक़तिबास पर इकतिफ़ा करेंगे :-

वो चाहता है कि सारे आदमी नजात पावें और सच्चाई की पहचान तक पहुंचें (1 तमताउस 2:4) वो किसी की हलाकत नहीं चाहता बल्कि ये चाहता है कि सबकी तौबा तक नौबत पहुंचे (2 पतरस 3:9) ख़ुदावंद यहोवाह फ़रमाता है कि मुझे अपनी हयात की क़सम है कि शरीर के मरने में मुझ कुछ ख़ुशी नहीं बल्कि इस में है कि शरीर अपनी राह से बाज़ आए और जिए (हज़क़ीयल 33:11) बाइबल में ख़ुदा पराज़ शफ़क़त व महब्बत बाप की मानिंद है जो अपने बच्चों पर बदरजा कमाल शफ़क़त दिखाता है और उन की नजात के काम को पूरा करने के लिए अपने इकलौते बेटे को भेजता है लेकिन इस्लाम में वो आदम को इसकी औलाद की पैदाइश से पेशतर उन की रूहें दिखाता है और उन को दो हिस्सों में तक़सीम करता है और बाअज़ को इस की दाएं तरफ़ और बाअज़ को बाएं तरफ़ खड़ा कर के फ़रमाता है :-

ھوالافی الجنتہ والابالی دھوالا المناروبالی

ये बहिश्त के लिए हैं और मुझे कुछ परवाह नहीं ये दोज़ख़ के लिए हैं और मुझे कुछ परवाह नहीं ।

मुंदरजा बाला हवाला ऐसे ख़ुदा को पेशा करता है जो एशाई बादशाह की मानिंद चलते चले किसी को इन्आम व इकराम देता है और किसी के नाम पर ये बेसबब अपनी जाबिर तबीयत से मौत का फ़तवा जारी करता है ।

अगर इस्लामी तक़्दीर व क़िस्मत मुंदरजा क़ुरआन व अहादीस को मानें तो नमाज़ रोज़ा और दुआ बंदगी बिल्कुल बेकार व बे-सूद हैं। क्योंकि इन्सान अपने तमाम अफ़्आल व अक़्वाल बल्कि ख़्यालात में भी तक़्दीर की ज़ंजीरों से जकड़ा हुआ है और किसी तरह से नेकी बदी का ज़िम्मेदार और जवाब-देह नहीं ठहर सकता लेकिन इन्सानी ज़मीर शख़्सी ज़िम्मेदारी का एहसास रखती है और इस हक़ीक़त पर निहायत सफ़ाई व सराहत से पुर ज़ोर गवाही देती है।



बाब पंजुम

ख़ुदा बलिहाज़-ए-गुनाह व नजात

इस्लामी तक़्दीर के मुताले से ख़ुदा का इन्सान से रिश्ता मालूम करके और यह जान कर कि इन्सान के तमाम अफ़्आल अज़ल ही से तक़्दीर के बस में हैं ये ख़्याल पैदा होता है कि इस्लाम में गुनाह की तालीम और नजात की तदबीर दोनों नामुमकिन हैं क्योंकि मंतक़ी तौर पर तक़्दीर की तालीम से ये साफ़ नतीजा निकलता है कि नेकी और बदी में कुछ फ़र्क़ नहीं है और सज़ा व जज़ा के भी कुछ मअनी नहीं हैं।

लेकिन इस्लाम की मतनाक़स तालीमात के सबब से गुनाह का मुफ़स्सिल बयान पाया जाता है और सज़ा व जज़ा की बड़ी तदबीर मौजूद है । क़ुरआन की तालीमात से बहुत ही मुतग़ाइर व मतबाईन हैं और ख़ास कर गुनाह और नजात के बाब में तो क़ुरआन बिल्कुल गड-मड और तनाक़िस से पूर है।

हज़रत मुहम्मद ने एक तरफ़ तो तक़्दीर की ऐसी तालीम दी कि इन्सान बिल्कुल बेकस व बे-बस हो गया। आज़ाद मर्ज़ी हाथ से दे बैठा और ऐसे बे-इख़्तियार हो गया जैसे कुम्हार के हाथ मिट्टी । लेकिन इस के साथ ही आँहज़रत ख़ुदा से मेल हासिल करने की इन्सानी आरज़ू को दबा ना सके और शख़्सी आज़ादी व ज़मादारी की हक़ीक़त को नज़र-अंदाज ना कर सके।

तक़्दीर व क़िस्मत को इस मुतग़ाइर तालीम को हकीम उमर खय्याम अपनी रबाईआत में निहायत सफ़ाई से यूं बयान किया है :-

ए तू जिस ने मेरी राह को तरह तरह के ख़तरों से भर दिया और अज़ल ही से मेरे
तमाम अफ़आल ठहरा रखे हैं। मुझको मेरी गुनहगारी के लिए सरज़निश नहीं करेगा।

अगर गुनाह के ताल्लुक़ में इस्लाम के ईलाही तसव्वुर पर ग़ौर किया जाए तो ये हक़ीक़त बिल्कुल आश्कारा हो जाती है कि अख़्लाक़ और दीन में कोई बाहमी रिश्ता बाक़ी नहीं रहता। हक़ीक़ी रास्ती व पाकीज़गी के मुक़ाबले में ख़ुदा रस्म परस्ती और ज़ाहिरी दिखावे की दीनदारी को ज़्यादा चाहता है।

अंदरूनी तक़दीस की चंदाँ परवाह नहीं करता लेकिन ज़ाहिरी रसूम की बजा आवरी बहुत ज़रूरी है। पस गुनाह कोई अज़ली अख़्लाक़ी शरीयत की ख़िलाफ़वरज़ी नहीं है बल्कि महिज़ एक जाबिराना हुक्म की अदमे तामील का नाम है और मुसलमान ताजिरों की अमली ज़िंदगी से इस अम्र की बख़ूबी तशरीह होती है। वो रोज़ाना नमाज़ों के बाब में तो बड़े होशयार और मुहतात हैं लेकिन लेन-देन में बेखटके झूट और फ़रेब से काम लेते हैं।

आम तौर पर ये देखा जाता है कि यूरोप के बाशिंदे झूट बोलते और धोका व फ़रेब करते हैं वो दीनदारी का दावा ही नहीं करते । उन में कम से कम ये ख़ूबी पाई जाती है कि उनका ज़ाहिर व बातिन यकसाँ है।

अगर हज़रत मुहम्मद की अहादीस और दीगर इस्लामी कुतुब फ़िक़्ह मसलन फतावी आलमगीरी वग़ैरा का मुतआला किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि अंदरूनी पाकीज़गी और दीनदारी के इव्ज़ में ज़ाहिरी रसूम की बजा आवरी पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है और रस्म परस्ती के अहकाम रुहानी तालीम के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा हैं।

अहले-इस्लाम पर ऐसी तालीम की बड़ी तासीर हुई है चुनांचे वो ख़ुदा के बारे में ग़लत ख़्याल और ग़लत एतिक़ाद रखने की वजह से हक़ीक़ी इबादत से बहुत दूर जा पड़े हैं और रुहानी इबादत की जगह रस्म परस्ती पर ज़ोर देते हैं ।

हमारे इस बयान की तशरीह व तस्दीक़ के लिए इस्लामी नमाज़ को देखिए और ख़्याल कीजिए कि अहले-इस्लाम किस तरह बिना समझे यूंही तोते की तरह अल्फ़ाज़ को दोहराते हैं ।

हम बेताम्मुल कह सकते हैं कि इस नमाज़ में उठने बैठने की तफ़्सील और क़िरात अल्फ़ाज़ ही का ज़्यादा तर्ज ख़्याल किया जाता है । नमाज़ गुज़ार की नीयत कैसी ही ख़ालिस हो और वो कितनी ही साफ़ दिली से इबादत करे तो भी नमाज़ अजनबी ज़बान में है (क्योंकि अरबों के सिवा बहुत ही कम मुसलमान अरबी ज़बान समझते हैं) और फिर तरफ़ा तुरीय बात है कि अगर उठने बैठने में कहीं ज़रा सी ग़लती हो गई तो नमाज़ टूट गई ।

नमाज़ का सही होना नमाज़ गुज़ार की दिली हालत पर नहीं बल्कि ज़ाहिरी क़वाइद पर मौक़ूफ़ है । चुनांचे हज़रत मुहम्मद ने फ़रमाया :-

ان اللہ لا یقبل لوتہ بغیر طھور

तहक़ीक़ अल्लाह बग़ैर वुज़ू के नमाज़ क़बूल नहीं करता ।

फिर फ़रमाया :-

من ترک موضع شعرتہ من جنتہ لمہ یغسلھا فعل بھا کذا اوکذ امن النار

जिसने बाल बराबर जगह नापाक छोड़ दी और उसे नहीं धोया उस के साथ दोज़ख़ की आग से ऐसा किया जाएगा ।

ये अम्र निहायत ही हैरत-ख़ेज़ है कि अख़्लाक़ी पाकीज़गी की तरफ़ बमुश्किल ही कहीं इशारा मिलता है हालाँकि वुज़ू वग़ैरा के क़वाइद व तशरीहात से किताबें भर पड़ी हैं । फ़िल-जुमला नमाज़ बजाय दिली इबादत के उठने बैठने और चंद ज़ाहिरी क़वाइद की बजा आवरी है।

चुनांचे मिश्कात में ऐसी अहादीस भरी पड़ी हैं जिनसे साबित होता है कि पानी गुनाहों को धो डालता है लेकिन हम इस जगह सिर्फ एक हदीस पेश करेंगे किताब-उल-तहारत में ग़ुस्ल के बयान में ऐसी बहुत सी अहादीस मिलेंगी । आँहज़रत ने फ़रमाया :-

ازا توضا العبد المسلمہ والمومن فغسل وجھد خرج من وجھہ کل خطیبتہ نظر الیھا بعینہ مع الماء عراد مع اخر قطر الماء فاذ اغسل یدیہ خرج من یدیہ کل خطیتہ کان بطشتھا یدہ مع الماء مع اخر فطر الماء فاذا غسل رجیلتہ خرج کل خطیبتہ مشتھار جلاہ مع الماء و مع اخوفٰر الماء حتی یخرج نقتیاس من الذنوب

जब मुसलमान या मोमिन बंदा वुज़ू करता है और अपना मुँह धोता है तो वो तमाम गुनाह जिन पर इस ने अपनी दोनों आँखों से निगाह की है इसके चेहरे से पानी के साथ या पानी के आख़िरी क़तरे के साथ ख़ारिज हो जाते हैं और जब वो अपने दोनों हाथ धोता है तो वो तमाम गुनाह जो उस के दोनों हाथों ने किए हैं उस के हाथों से पानी के साथ या पानी के आख़िरी क़तरे के साथ ख़ारिज हो जाते हैं और जब वो अपने दोनों पांव धोता है तो वो तमाम गुनाह जिनकी तरफ़ उस के पांव चल कर गए हैं उस के पांव से पानी के साथ या पानी के आख़िरी क़तरे के साथ ख़ारिज हो जाते हैं यहां तक कि वो अपने गुनाहों से बिल्कुल पाक हो जाता है।

इस्लाम की ज़ाहिरदारी और क़ानून जवाज़ की सूरत ज़्यादातर गुनाह के बयान में निहायत सफ़ाई से नज़र आती है। इस्लाम गुनाह की असली मकरूह सूरत देखने में बिल्कुल ना बीना है और इस्लामी इल्म ईलाही के मुताले से ये बात साफ़ मालूम हो सकती है कि इस का सबब ख़ुदा के बारे में ग़लत तसव्वुर और ग़लत एतिक़ाद रखता है।

इस्लाम ख़ुदा को रास्तकार और इन्साफ़-दोस्त हाकिम की सूरत में पेश नहीं करता बल्कि बखिलाफ इस के एक मुतलव्विन मिज़ाज-उल-अनान हुक्मरान की हैसियत में दिखाता है जिसकी ख़ुशनुदी उस के चंद अहकाम की बजा आवरी से हासिल हो सकती है बल्कि जैसा हम पेशतर ज़िक्र कर आए हैं महिज़ उस के निनान्वे (99) नामों के विर्द ही के वसीले से नजात हासिल हो सकती है।

तिर्मिज़ी और निसाई के मुताबिक़ आँहज़रत की एक हदीस ये भी है :-

من قمر کل یوم مانی مرقہ قل ھواللہ احد فحی عنہ ذنوب خمسین سنہ

जिसने हर-रोज़ दो सौ बार "क़ुल हूवल्लाह अहद" पढ़ा उस के पच्चास बरस के
गुनाह मिट जाएंगे |

किताब फ़ज़ायल-उल-क़ुरआन में बार-बार ये मुज़िर तालीम दी गई है कि चंद ज़ाहिरी रसूम की पाबंदी से गुनाह माफ़ हो जाएंगे और मक्का का हज तो बहिश्त में जाने के लिए राबदारी का यक़ीनी परवाना समझाता है।

मुस्लिम व बुख़ारी के मुताबिक़ आँहज़रत की एक और हदीस मिश्कात में अस्मा-ए-ईलाही के बाब में मुंदरज है । इस से बहुत ही अच्छी तरह ये बात ज़ाहिर होती है कि हज़रत मुहम्मद के ख़्यालात गुनाह और मग़फ़िरत के बारे में बहुत ही गड़-बड़ और बे ठिकाना थे। चुनांचे मर्क़ूम है:-

قال رسول اللہ صلی ان عبد اذنب ذبنا فقال رب اذنبت فاغفر فقال ربہ اعلمہ عبدی ان لہ رباً یغفر الذنوب دیا خذبہ غفرت لعبدی ثمہ ملث مشاء اللہ ثما اذنب ذنباً قال رب اذنبت ذباء اغفر فقال اعلمہ عبدی ان لہ ریا یغفر الذنوب دیا خذیم غفرت العبدی ثمہ مکث ماشا ء اللہ ثم اذنب زنبا قال رب اذنبت ذبنا اخر فاعفر
ہ لی فقال اعلمہ عبدی ان لہ ر بالیغفر الذنب ویا حذبہ غفرت لعبد فلیفعل مشاء

रसूल अल्लाह ने फ़रमाया कि ख़ुदा के एक बंदे ने कोई सख़्त गुनाह किया और कहा ए मेरे रब मैंने गुनाह किया है उसे माफ़ कर दे। इस के रब ने कहा । क्या मेरा बंदा जानता है कि इस का रब है जो गुनाह माफ़ करता है और उन के लिए सज़ा भी देता है। मैंने अपने बंदे को माफ़ किया। फिर वो ठहरा रहा। जैसा ख़ुदा ने चाहा । फिर इस ने एक सख़्त गुनाह किया और कहा ए मेरे रब । मैंने सख़्त गुनाह किया है। उसे माफ़ कर दे। इस ने कहा क्या मेरा बंदा जानता है कि इस का रब है जो गुनाह माफ़ करता है और सज़ा भी देता है। मैंने अपने बंदे को माफ़ किया। फिर वो ठहरा रहा जैसा ख़ुदा ने चाहा । फिर इस ने सख़्त गुनाह किया और कहा ए रब मैंने फिर सख़्त गुनाह किया है । मुझे माफ़ कर दे। तब ख़ुदा ने कहा क्या मेरा बंदा जानता है कि इस का रब है जो गुनाह माफ़ करता है और सज़ा भी देता है। मैंने अपने बंदे को माफ़ किया है पस अब वो जो चाहे सो करे !

ऐसी तालीम सरीहन गुनाह की तरफ़ माइल करती है लिहाज़ा कुछ ताज्जुब नहीं कि अहले-इस्लाम ने कफ़्फ़ारा की ज़रूरत को महसूस नहीं किया और गुनाह की कराहीयत को नहीं पहचाना। जब गुनाह आसानी से माफ़ हो सकता है तो उस का इर्तिकाब भी ताम्मुल व बेख़ौफ़ होता है लेकिन अगर इन्सान मसीहीयों के साथ इस बात को मालूम कर ले कि गुनाह की माफ़ी के लिए सय्यदना मसीह को मस्लूब होना पड़ा तो वो गुनाह से नफ़रत व परहेज़ करना सीखेगा।

हक़ीक़त तो ये है कि इस्लाम में नजात के बारे में कोई माक़ूल और काबिल-ए-क़बूल ख़्याल या तालीम नहीं है और इसकी तलाश में कतुब-ए-इस्लाम का मुतआला बिल्कुल बेसूद ठहरता है।

इन्सानी ज़मीर अपनी गुनहगारी को महसूस कर के पुकारती है :-

“मैं क्या करूँ कि नजात पाऊं ?”

लेकिन इस्लाम से इस का कोई तसल्ली बख़्श जवाब बन नहीं आता। और जो जवाब इस्लाम देता है वो बिल्कुल नाक़िस है और इस से ये भी ज़ाहिर होता है कि अहले-इस्लाम ख़ुदा की ज़ात के बारे में कैसे नावाक़िफ़ और ग़लत ख़्याल रखने वाले हैं।

जब बुनियाद ही ऐसी खोखली है और ख़ुदा के हक़ में दुरुस्त एतिक़ाद ही नहीं तो फिर कुछ ताज्जुब की बात नहीं कि हज़रत मुहम्मद को नजात की कोई ऐसी सूरत नहीं सूझी जो ख़ुदा की शान के शायां होती।

"मैं क्या करूँ कि नजात पाऊं ?" के जवाब में हज़रत मुहम्मद के अक़्वाल बेशुमार और बाहम मुतज़ाद हैं।

अगर गुंजाइश होती तो हम बहुत से ऐसे मुक़ामात को नक़ल करते जिनसे ये साबित होता है कि आँहज़रत के ख़्याल कि मुताबिक़ क़ियामत के रोज़ कुल बनी-आदम के नेक व बद-आमाल तोले जाएंगे और उन की कमी या बेशी के मुताबिक़ जज़ा व सज़ा के फतावे सुना कर बाअज़ को बहिश्त में दाख़िल किया जाएगा और बाक़ी सब जहन्नुम वअसिल होंगे ।

फिर ये भी आपने फ़रमाया कि हज़रत मुहम्मद समेत तमाम बनी-आदम को नजात का दार-ओ-मदार ख़ुदा की रहमत पर है। इलावा बरीं बाअज़ अहादीस क़ुरआन के बरख़िलाफ़ ये तालीम देती हैं कि गुनहगार इन्सान नजात हासिल करने के लिए ज़्यादा तर हज़रत मुहम्मद की शफ़ाअत ही पर भरोसा रख सकते हैं।

लेकिन सबसे बढ़कर ये कि हर एक इन्सान पैदाइश से पेशतर ही से जन्नत या जहन्नुम के लिए मुक़र्रर हो चुका है। ये एतिक़ाद कैसा ना उम्मीदी और मायूसी से पुर है।

कतुब इस्लाम में ख़ुदा का एक नाम अल-आदील भी है। और वो अल-रहीम भी कहलाता है लेकिन इस्लाम ये बात समझाने से बिल्कुल क़ासिर व आजिज़ है कि वो आदिल व रहीम दोनों क्योंकर हो सकता है इन्साफ़ और अदल का तक़ाज़ा ये है कि गुनाह के लिए सज़ा दी जाये और नजात की कोई तदबीर जो उसकी चाराजोई ना करे नामाक़ूल व बातिल ठहरेगी।

साथ ही ख़ुदा के रहम के इज़्हार की भी कोई सूरत होनी चाहिए ताकि ख़ुदा की इन हर दो सिफ़ात यानी अदल व रहम का कामिल इज़्हार होवे।

इस्लाम की इस नाक़िस व ग़ैर-तसल्ली बख़्श तालीम के नताइज की शहादत तवारीख़ से मिलती है बड़े बड़े पक्के मुसलमान बल्कि आँहज़रत के बाअज़ सहाबा किराम भी अव्वल दर्जे की मायूसी व ना उम्मीदी की हालत में क़ब्र में गए।

चुनांचे लिखा है कि ख़लीफ़ा अली के यहाँ कोई मेहमान वारिद हुआ और पूछा कि कैसे गुज़रती है ? आपने जवाब दिया कि एक लाचार गुनहगार की मानिंद नविश्ता तक़्दीर के मुताबिक़ दिन पूरे कर रहा हूँ और हैबतनाक अंजाम का मुंतज़िर हूँ।

फिर आँहज़रत के सहाबा में से उमर इब्ने अब्दुल्लाह की बाबत लिखता है कि वो दिन-भर रोज़ा रखता था और सारी सारी रात इबादत में खड़ा रहता था।

ऐसे मौक़े पर उस के हम-साए अक्सर उस को चिल्लाते और यूं कहते सुनते थे :-

ए मेरे ख़ुदा! आतिश व दोज़ख़ का ख़्याल मुझे बेचैन कर रहा है मुझे नींद नहीं आती । मेरे गुनाह माफ़ कर दे, इस दुनिया में इन्सान के लिए फ़िक्रें और ग़म हैं। दूसरे जहान सज़ा का हुक्म और आतिश दोज़ख़ मौजूद है। हाय हाय ! रूह को आराम व राहत की कहाँ से उम्मीद हो सकती है?

इस्लाम नजात का कुछ यक़ीन नहीं दिलाता क्योंकि वो न गुनाह का कोई ईलाज बहम पहुँचाता है और ना गुनहगार का कोई इव्ज़ मुहय्या करता है ताहम इन्सान की रूह कफ़्फ़ारा के लिए चिल्लाती है और इस बात की अज़बस आर्ज़ूमंद है कि किसी तरह से मग़फ़िरत का यक़ीन हासिल हो जावे ।

बाइबल की ये तालीम कि "बिन ख़ून बहाए माफ़ी नहीं" इन्सान फ़ौरन क़बूल करता है और शीया लोगों को इमाम हसन और इमाम हुसैन की मौत को कफ़्फ़ारा की मौत क़रार देना साफ़ ज़ाहिर करता है कि कफ़्फ़ारा की ज़रूरत का यक़ीन इन्सान के दिल में निहायत ही पुख़्ता व बीख़ गिरिफ़ता है।

जब इस्लाम इस अज़ीम हक़ीक़त को समझेगा कि "ख़ुदा मुहब्बत है" तब ही अहले-इस्लाम मसीह के कफ़्फ़ारे की अज़ीम माक़ूलीयत को समझ सकेंगे |

इस्लाम इब्तिदाई गुनाह को तस्लीम करता है और मानता है कि आदम के वसीले से तमाम बनी-आदम गुनहगार ठहरे। पस अब अहले-इस्लाम इस बात को क्यों माक़ूल और काबिल-ए-क़बूल ख़्याल नहीं करते एक ही येसु मसीह की फ़रमाबर्दारी के सबब से तमाम बनी-आदम रास्तबाज़ ठहर सकते हैं ?

इंजील शरीफ़ में ये एक निहायत अज़ीम अज़ली हक़ीक़त मुनकशिफ़ की गई है बल्कि इंजील यही है और लाखों ने इसी से हक़ीक़ी राहत हासिल की है ।

ए बिरादरान-ए-अहले-इस्लाम बाइबल को पढ़ो। इस में आपको ख़ुदाए तआला की ज़ात-ए-पाक का मुकाशफ़ा नसीब होगा। वो मुतलक़ अल-अनान व जाबिर हाकिम नहीं जो बंदों को उन गुनाहों की सज़ा देता है जिनके इर्तिकाब पर इस ने ख़ुद ही उन को मजबूर किया बल्कि मेहरबान और रहीम बाप है जो अपनी मख़्लूक़ बनी-आदम में से किसी की हलाकत नहीं चाहता बल्कि ये आरज़ू रखता है कि वो सब उस की तरफ़ रुजू लावें और हयात-ए-अबदी के वारिस हों ।

वो निहायत मुहब्बत भरे अल्फ़ाज़ से सबको बुलाता है । ये ख़ुदा सय्यदना मसीह में हो कर तमाम जहान को अपने आपसे मिलाता है और सिर्फ सय्यदना मसीह की सलीब के वसीले से ही गुनहगार इन्सान ख़ुदा-ए-पाक तक रसाई हासिल कर सकता है। सलीब पर अदल का तक़ाज़ा पूरा हो गया और रहम के इज़्हार की भी सूरत निकल आई ।

बस अब जो कोई चाहे आए और आब-ए-हयात मुफ़्त ले जो कोई ख़ुदा को जानना चाहे उसे मसीह "कलिमतुल्लाह" को जानना ज़रूर है क्योंकि :-

"ख़ुदा को किसी ने कभी नहीं देखा इकलौता बेटा जो बाप की गोद में है उसी ने ज़ाहिर किया"
(युहन्ना 1:18)

सय्यदना मसीह फ़रमाते हैं :-

"जिसने मुझे देखा उस ने बाप को देखा (युहन्ना 14:9)"

राह-ए-हक़ और ज़िंदगी में हूँ। कोई मेरे वसीले के बग़ैर बाप के पास नहीं आता" (युहन्ना 14:6)